ब्रितानी राज के 'जेम्स बॉन्ड' एलेक्ज़ेंडर बर्न्स, जो भेष बदलने में माहिर थे

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- Author, वक़ार मुस्तफ़ा
- पदनाम, पत्रकार व शोधकर्ता, लाहौर
एलेक्ज़ेंडर बर्न्स ने साहस, चालाकी और रुमानियत से भरा ऐसा जीवन बिताया कि किसी ने उन्हें 'विक्टोरियन जेम्स बॉन्ड' बताया तो किसी ने उन्हें उन्हीं गुणों के कारण एक ऐसे किताबी हीरो 'फ्लैशमैन' का नाम दिया, जो ख़तरों का खिलाड़ी होने के साथ-साथ ख़ूबसूरती का भी दीवाना था.
एलेक्जेंडर बर्न्स एक दुस्साहसी, योद्धा, जासूस, कूटनीतिज्ञ, भेष बदलने और भाषाएं सीखने के विशेषज्ञ और सौंदर्य के पुजारी थे, जो अगर भरी जवानी में मारे न जाते तो न जाने और क्या क्या करते.
बर्न्स 17 मई 1805 को मोन्ट्रोज़, स्कॉटलैंड में पैदा हुए. 16 साल की उम्र में ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज में शामिल हुए. ब्रितानी हिन्दुस्तान में सेवाएं देते हुए उर्दू और फ़ारसी भाषा सीखी और सन 1822 में गुजरात के शहर सूरत में अनुवादक नियुक्त हुए.
सिन्धु नदी का ख़ुफ़िया मिशन
एलेक्जेंडर बर्न्स के दुस्साहस से भरे जीवन की शुरुआत एक ऐसे ख़ुफ़िया मिशन से हुई, जिसने अंग्रेज़ों की सिंध में विजय की बुनियाद रख दी.
सन 1829 में सिंधु घाटी को जानने के लिए यात्रा के बर्न्स के प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई. क्रिस्टोफ़र एलन बेली ने ब्रितानी हिन्दुस्तान में ख़ुफ़िया सूचनाओं की व्यवस्था से संबंधित अपनी पुस्तक में लिखा कि सन 1831 में उनके और हेनरी पोटिंगर के सिंधु नदी के सर्वे से एक रास्ता खुल गया. सिंध पर भविष्य में आक्रमण से मध्य एशिया की ओर का रास्ता साफ़ किया गया.
उसी साल बर्न्स को ब्रिटेन के महाराजा विलयिम चतुर्थ की ओर से पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के लिए घोड़ों का उपहार लेकर लाहौर आना था. जो उस समय तक एक स्वतंत्र रियासत थी. लेकिन यह मामला इतना सरल नहीं था.
जी.एस. ओजला का कहना है कि इस यात्रा से सिख रियासत के साथ समझौतों की एक ऐसी कड़ी की शुरुआत होनी थी जिसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी सतलुज और सिन्धु नदी से होकर जलमार्गीय यात्रा और व्यापार कर पाती.
सर थॉमस रो को 17वीं सदी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से मुग़ल सम्राट जहांगीर के दरबार में इंग्लैंड का राजदूत बनाकर भेजा गया तो उन्होंने रिपोर्ट दी कि व्यापार की संभावनाएं बढ़ाने का बेहतरीन तरीक़ा सिंधु नदी का इस्तेमाल है.
मगर तब थॉमस रो सिंधु नदी की जलमार्गीय अनुकूलता और पश्चिमी भारत और पंजाब की दूसरी बड़ी नदियों के साथ उसके संपर्क से अनजान थे. ईस्ट इंडिया कंपनी को उन नदियों का रास्ता समझने के लिए दो सदियों से अधिक इंतज़ार करना पड़ा.
एक उत्साही युवा अफ़सर कैप्टन एलेक्जेंडर को यह मिशन सौंपा गया. प्रत्यक्ष रूप में बर्न्स को इंग्लैंड के महाराजा विलयम चतुर्थ की ओर से महाराजा रणजीत सिंह के लिए भेजे गए पांच घोड़ों को चिपटी तह वाली नाव से रंजीत सिंह तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी दी गयी. अंग्रेज़ों ने दावा किया ये घोड़े सड़क यात्रा में जीवित नहीं रहेंगे.

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कराची से लाहौर एक हज़ार मील की यात्रा
अबू बक्र शेख़ लिखते हैं कि सन 1830 में एक जहाज़ ने बम्बई बंदरगाह पर लंगर डाला, जिसमें ब्रिटेन के बादशाह की ओर से पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के लिए उपहार स्वरूप पांच घोड़े और एक दोस्ती का पत्र भेजा गया था.
सफ़र से पहले बम्बई के चीफ़ सेक्रेटरी का एक ख़ुफ़िया ख़त बर्न्स को मिला जिसमें निर्देश दिया गया था, ''इस यात्रा में एक महत्वपूर्ण काम ये भी है कि सिन्धु नदी की विस्तृत तकनीकी रिपोर्ट तैयार की जाए और यह पता लगाया जाए कि कहां-कहां कितना पानी है, किस जगह चौड़ाई कितनी है. जलमार्गीय यात्रा के लिए लकड़ी प्राप्त करने के लिए किनारों पर कितने जंगल हैं, किनारों पर लगी फ़सलों वाली ज़मीनें किन की हैं और किन-किन जात-पांत के लोग आबाद हैं. साथ ही यह भी पता लगाना था कि शासकों की आर्थिक और राजनैतिक स्थित कैसी है.''
ओजला के अनुसार कराची से लाहौर एक हज़ार मील से अधिक की यात्रा में उन 'ट्रोजन हॉर्सेज़' की आड़ में उन्हें नदियों के बारे में जानकारी प्राप्त करनी थी, लेकिन सिंध के तालपोर सरदारों ने उनको ठट्ठा के डेल्टा में तीन माह तक हिरासत में रखा क्योंकि उनको शक था कि उनके पास हथियार है.
अंततः कोई हथियार ना मिलने पर उन्हें लाहौर के सफ़र पर रवाना कर दिया गया. किसी को यह पता नहीं था कि नाव में अलग-अलग जगहों पर नदी की गहराई की नाप लेने और दूसरी जानकारियां इकट्ठी करने के लिए सर्वे के यंत्र रखे गए हैं.
उच्च अधिकारियों के दबाव के बावजूद बर्न्स ने यात्रा में फ़ौजी दस्ता लेने से इनकार कर दिया ताकि स्थानीय आबादी यह न समझे कि कि ब्रितानी हमला करने की मंशा रखते हैं. बर्न्स ने सिर्फ एक ब्रितानी अफ़सर डी जे लैकी के साथ सफ़र किया और बीच बीच में स्थानीय लोगों को अपने क़ाफ़िले में शामिल करते रहे।
ऐसा करते हुए बर्न्स ने सिन्धु नदी के किनारे शहरों में स्थानीय नेताओं और शासकों के साथ निकट संबंध बना लिए.

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कूटनीति की महारथ, स्थानीय रीति व रिवाज से परिचय और चापलूसी के तरीकों से वे सिन्धु नदी के उन क्षेत्रों में यात्रा करने में सफल हुए जो पहले यूरोपियों के लिए बंद थे. उनमें ठट्ठा, हैदराबाद, भक्कर और शुजा आबाद शामिल हैं.
बर्न्स पंजाब के शासक रणजीत सिंह के दरबार में
अबू बक्र शेख़ महाराजा रणजीत सिंह से बर्न्स की भेंट का ब्योरा उनके ही शब्दों में बताते हैंः
"हम एक बग्घी के पीछे हाथियों पर सवार थे. मैं जिस शानदार हाथी पर सवार था वह सबसे आगे था. शहर की गलियां पैदल फ़ौज, घुड़सवार दस्तों और तोपख़ाने के फ़ौजियों से व्यवस्थित ढंग से सजी हुई थीं. लोगों की एक भीड़ इकट्ठी थी. एक मेले का माहौल था. मैं जैसे ही दरबार के मुख्य दरवाज़े पर पहुंचा और झुक कर अपने बूट के फ़ीते खोलने लगा तो मुझे किसी की बांह और फिर गले मिलने का एहसास हुआ."
''मैंने जब देखा तो वो ढलती उम्र के बूढ़े और दुबले शख़्स महाराजा रणजीत सिंह थे. उनके दो बेटे भी उनके साथ थे. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर दरबार में पहुंचे. हमारा भव्य स्वागत किया गया. हमें चांदी की कुर्सियों पर बिठाया गया और ब्रिटेन के बादशाह की ख़ैरियत पूछी गई.''
''मैंने महामहिम को बताया कि महाराजा की ओर से आपके लिए भेजे गए पांच घोड़े मैं सुरक्षित लेकर लाहौर पहुंचा हूं. साथ में बादशाह सलामत के भारतीय मामलों के मंत्री की ओर से पत्र भी है जो सोने के तारों से बनी थैली में है. उन्होंने स्वयं वह पत्र मुझसे लिया और मुहर को अपने माथे से लगाकर सम्मान प्रकट किया."
''दूसरे दिन यानी 21 जुलाई को पत्र का अनुवाद दरबार में पढ़ा गया और पत्र जब आधा पढ़ लिया गया तो महाराजा ने कहा कि मेरी इच्छा है कि इस पत्र के यहां पहुंचने पर सलामी दी जाए ताकि लाहौर वासियों को बादशाह के ख़ुश होने का पता लगे. ये ख़ुशी लोगों तक पहुंचाने के लिए 60 तोपों को सलामी दी गई. एक तोप से 21 गोले दागे गए."
राजकाज में माहिर महाराजा रणजीत सिंह का ज़िक्र
रणजीत सिंह के बारे में बर्न्स ने लिखा है, ''महाराराजा तड़क-भड़क से दूर हैं लेकिन दरबार पर उनकी हनक छायी रहती है. मैं किसी एशियाई नागरिक से इतना प्रभावित नहीं हुआ जितना रणजीत सिंह से हुआ. उनके पास न शिक्षा है, न किसी का मार्गदर्शन लेकिन राजकाज के मामलों में उन्हें कमाल की महारथ हासिल है. वह इस काम को चुस्ती से निपटाते हैं."
बर्न्स विवरण देने के माहिर हैं. उदाहरण के लिए उन्होंने अपने सफ़र के बारे में लिखा है कि डेरा ग़ाज़ी ख़ान के बाज़ार में 1597 दुकानें हैं, जिनमें से 115 कपड़े की, 25 रेशम की, 60 सुनारों की और 18 काग़ज़ की हैं.
बर्न्स के इस सर्वे के बाद सन 1835 में 'इंडस' नाम का एक बड़ा जहाज़ सिंधु नदी में हैदराबाद और कराची के बीच चलाया गया. इसके सात साल बाद अंग्रेज़ों ने सन 1843 में सिंध पर अपनी हुकूमत क़ायम कर ली.
जब रणजीत सिंह ने कोहिनूर की नुमाइश की
अक्टूबर 1831 में बर्न्स ने महाराजा रणजीत सिंह की पहली भेंट ब्रितानी सेना के कमांडर, गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेन्टिक के साथ करवाई.
यह मुलाक़ात सतलुज नदी के किनारे एक गांव रोपड़ में 22 से 26 अक्टूर तक हुई. इसमें कई ब्रितानी राजनैतिक दूत और दूसरे लोग शामिल थे.
इस आयोजन में महाराजा रणजीत ने कोहिनूर हीरा भी दिखाया. इसे अंततः ब्रितानी शाही परिवार के क़ब्ज़े में आना और महारानी के ताज में सजना था.
रोपड़ में शीर्ष नेतृत्व की बैठक के बाद बर्न्स ने नवंबर से दिसंबर 1831 तक कुछ समय तक दिल्ली में अपना ठिकाना बनाया.
यहीं 19 दिसंबर को बर्न्स की पहली बार अपने भविष्य के सहयात्री मोहन लाल से भेंट हुई. हुमायूं के मक़बरे के मैदान में एक हिन्दू स्कूल का दौरा करते हुए, बर्न्स पश्चिम के भूगोल के बारे में उस किशोर के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए.

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उन्होंने लाल को अपने साथ मध्य या अंदरूनी यूरेशिया जाने की दावत दी. दिल्ली से बर्न्स ने लुधियाना का सफ़र किया, जहां उन्हें मध्य एशिया की ओर बढ़ने की अनुमति मिली.
ग्रेट गेमः अफ़ग़ानिस्तान और बुख़ारा का सफ़र
आने वाले सालों में मोहन लाल के साथ उनका सफ़र अफ़ग़ानिस्तान से होता हुआ हिन्दूकुश के पार बुख़ारा जो आज का उज़्बेकिस्तान है, और फ़ारस यानी ईरान तक जारी रहा.
पॉलिटिकल एजेंट के सहायक के तौर पर उन्होंने उत्तर पश्चिमी भारत और आसपास के देशों के इतिहास और भूगोल मे रुचि ली जिनके बारे में अब तक अंग्रेज़ों ने ठीक से खोज नहीं की थी. फिर वो अफ़ग़ानिस्तान चले गए.
अफ़ग़ानिस्तान प्रतिद्वंद्वी ब्रितानी और रूसी साम्राज्यों के बीच फंसा था. रूस को शक था कि हिंदुस्तान में कंट्रोल के बाद ब्रिटेन अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ने की मंशा रखता है.
इधर, अंग्रेज़ों को आशंका थी कि रूस यहीं से हिंदुतान पर क़ब्ज़ा करना चाहता है और इस तरह 'ग्रेट गेम' यानी बड़ा खेल कहलाने वाले राजनैतिक और कूटनीतिक संघर्ष ने जन्म लिया.
ब्रितानी हुकूमत को ख़ुफ़िया सूचनाओं की ज़रूरत थी. इसलिए बर्न्स को रवाना किया गया. बुख़ारा के किसी शख़्स के भेष में सफ़र करते हुए बर्न्स ने काबुल से बुख़ारा तक के रास्ते का सर्वे किया और अफ़ग़ानिस्तान पर विस्तृत रिपोर्ट पेश की.
सन 1834 में ब्रिटेन जाकर उन्होंने जो किताब प्रकाशित की उसने उन देशों के सामयिक ज्ञान में अथाह वृद्धि की और वह उस समय की सबसे लोकप्रिय किताबों में से एक थी.
यह किताब बुख़ारा, हिन्दुस्तान से काबुल, मध्य या अंदरुनी यूरेशिया और फ़ारस तक और सिंधु नदी पर समुद्र से ब्रिटेन के बादशाह के तोहफ़ों के साथ लाहौर तक के सफ़र की दास्तान थी जो सन 1831, 1832 और 1833 में हुकूमत के हुक्म पर किए गए. पहले संस्करण से बर्न्स ने 800 पाउन्ड कमाए.

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अफ़ग़ानिस्तान में बतौर पॉलिटिकल एजेंट तैनाती
दोस्त मोहम्मद बारकज़ई ने सन 1838 में अफ़ग़ानिस्तान के सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था. ऐसे में हिन्दुस्तान में ब्रितानी गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने रूसी प्रभाव व पैठ को सीमित करने के लिए अफ़ग़ान की विदेश नीति पर नियंत्रण की कोशिश की.
बर्न्स ने लॉर्ड ऑकलैंड को काबुल की गद्दी पर दोस्त मोहम्मद ख़ान का समर्थन करने की सलाह दी लेकिन वायसराय ने सर विलियम मैकेन्टाइन की राय को प्राथमिकता दी और शाह शुजा को बहाल कर दिया. सन 1839 में शाह शुजा की बहाली पर बर्न्स काबुल में औपचारिक रूप से पॉलिटिकल एजेंट बन गये. इस पद पर बर्न्स ख़ुद को ऊंचे वेतन वाला बेकार कहते थे.
शाह शुजा का काल अफ़ग़ान नागरिकों पर अत्याचार और व्यापक पैमाने पर ग़रीबी के लिए जाना जाता है.
उनके साथ बड़ी संख्या में अजनबी रस्मो-रिवाज जैसे क्रिकेट, स्केटिंग और स्टीपल चेज़ भी आए. शहर की आबादी के अचानक बढ़ने से बाज़ारों में खाने पीने की चीज़ों की क़ीमतें आसमान को छूने लगीं.
ऐसे समय में जब शाह शुजा ने आबादी पर टैक्स में भी बेइंतिहा इज़ाफ़ा कर दिया था. निम्न वर्ग में बड़े पैमाने पर आर्थिक बदहाली फैल गयी.
शाह शुजा के कहने पर ब्रितानी और हिन्दुस्तानी फ़ौजियों ने शहर से बाहर छावनियों में चले जाने पर सहमति जतायी लेकिन बर्न्स ने अपने भाई लेफ्टिनेंट चार्ल्स बर्न्स और मेजर विलियम ब्रैडफुट समेत कुछ और सीनियर अफसरों के साथ पुराने शहर के मध्य में एक घर में रहने का निर्णय किया.
बर्न्स की हत्या
एक नवंबर 1841 को मोहन लाल ने बर्न्स को बताया कि उनकी हत्या करने की साज़िश हो रही है और ज़ोर दिया कि वे शहर से निकल जाएं. बहुत से अफ़ग़ान बर्न्स को काबुल में ब्रिटेन के प्रतिनिधि के तौर पर शहर के आर्थिक और नैतिक पतन का ज़िम्मेदार मानते थे.
इस विश्वास के साथ कि वे किसी भी संभावित परेशानी से निपट सकते हैं, बर्न्स ने अपने दोस्त के मशविरे के ख़िलाफ़ काबुल में ही रहने का फ़ैसला किया.
दो नवंबर की रात बर्न्स विरोधी एक छोटे से गिरोह ने शहर में यह कहकर एक भीड़ इकट्ठा करनी शुरू कर दी कि बर्न्स के घर से सटी इमारत में छावनी का ख़ज़ाना है, जहां ब्रितानी फ़ौजियों की तनख़्वाह रखी जाती है.
रात होते ही एक बड़ा हुजूम बर्न्स के घर के बरामदे पर जमा हो गया. बर्न्स ने तत्काल मदद के लिए छावनी को एक हरकारा भेजा लेकिन ब्रितानी फ़ौज के सीनियर अफ़सरों के बीच इस बात पर बहस की वजह से देर हुई कि इस ख़तरे का बेहतरीन जवाब कैसे दिया जा सकता है.
हालात ख़राब होते गए. हमलावरों ने अस्तबल को आग लगा दी. हुजूम की तरफ़ से गोली चली और बाल्कनी में बर्न्स के साथ खड़े मेजर ब्रैडफुट मारे गए.
अब जब यह विश्वास हो गया कि बचाव का और कोई रास्ता नहीं है तो चार्ल्स बर्न्स हथियार लेकर बरामदे में आए. छह लोगों को मार डाला लेकिन फिर भीड़ ने उनके भाई को मार डाला.
फिर अलेग्जेंडर बर्न्स ख़ुद भी हुजूम का सामना करने बिना हथियार बाहर निकले. कुछ ही पलों में उन्हें भी हुजूम ने हिंसा के बाद उन्हें मार डाला.
ये घटनाएं ब्रितानी फ़ौजियों से सिर्फ आधे घंटे की दूरी पर हुईं. एक युवा अफ़सर ने अपनी पत्रिका में घटना का उल्लेख करते हुए लिखा कि 'सुबह के वक़्त तो 300 आदमी काफ़ी होते, लेकिन तीसरे पहर 3000 भी कम पड़ते.'
अगले दिन बर्न्स, मेजर ब्रैडफुट और लेफ्निेंट चार्ल्स बनर्स के सिर चौक पर तलावरो में पिरो दिए गए. बर्न्स की उम्र उस वक़्त 36 साल थी.

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बर्न्स जो भेष बदलने में माहिर थे
उज़्बेकिस्तान में पूर्व ब्रितानी राजदूत क्रैग मरे ने अपनी किताब 'सिकन्दर बर्न्स, मास्टर ऑफ़ द ग्रेट गेम' में उनकी जासूसी की तकनीकों का विस्तृत विवरण दिया है.
"बर्न्स एक मुसाफ़िर के भेष में आते लेकिन नक़्शा बनाने में बहुत सतर्क रहते. नक़्शे रात के समय ख़ुफ़िया तौर पर अपने तंबू में बनाते. फिर उन्हें ताबीज़ बनाकर संदेशवाहकों के द्वारा तस्करी कर देते. संदेशवाहक ख़ुद भी भेष बदलकर सफ़र करते. रूसियों के ख़तों को रोकने और नाकाम बनाने के लिए पेचीदा कोड वर्ड का इस्तेमाल करते."
मरे कहते हैं कि 'बर्न्स का सेक्स जीवन भी रोचक था. सभी वर्णन में इस बात का उल्लेख मिलता है कि उनके अफ़ग़ान महिलाओं से संबंध थे जिनसे अफ़ग़ान विद्रोह को बल मिला लेकिन मुझे ऐसा कोई सबूत नहीं मिल सका जो बिल्कुल सही हो, मुझे जो कुछ मिला वह इस बात का निश्चित सबूत था कि बर्न्स का हरम सफ़र में उनके साथ होता था.'
शान डेमर लिखते हैं कि 'बर्न्स के सफ़र के दौरान विभिन्न जगहों पर और बम्बई में ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय के बीच दूरी इतनी अधिक थी और संपर्क इतना कठिन था कि वो अक्सर अपने नेता ख़ुद ही होते थे.'
'बर्न्स का चरित्र महफ़िलों, स्वादिष्ट भोजन और शराब की दावतों, नाचने वाली लड़कियों और ज़ेवरात और तड़क भड़क से भरा हुआ है.'
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