इमरान ख़ान: लाहौर में गिरफ़्तार हुए 'पूर्व कप्तान' के सियासी खेल का लेखा-जोखा

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- Author, आरिफ़ शमीम
- पदनाम, बीबीसी उर्दू

- इस्लामाबाद की जिला और सेशन कोर्ट ने पूर्व पीएम इमरान ख़ान को तोशाखाना मामले में दोषी पाया है.
- कोर्ट ने उन्हें तीन साल की जेल और एक लाख रुपये जुर्माने की सज़ा सुनाई है.
- कोर्ट के फ़ैसले के बाद लाहौर के ज़मान पार्क स्थित इमरान के घर से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है.
- इस्लामाबाद में हाई अलर्ट जारी किया गया है और सुरक्षा के बेहद कड़े इंतज़ाम किए गए हैं.
- इमरान ने उन पर लगे आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि वो इसके ख़िलाफ़ अपील करेंगे
- इमरान ख़ान की गिरफ्तारी के बाद उनका पहले से रिकॉर्ड किया हुआ एक वीडियो सोशल मीडिया पर उनके हैंडल पर पोस्ट किया गया.
- वीडियो में वो कहते हैं "आपको चुप नहीं रहना है, आपको अपना हक़ मिलने तक लड़ना है और ये लड़ाई वोट के ज़रिए लड़नी है."
- सरकार में सूचना मंत्री मरियम औरंगज़ेब ने कहा कि इमरान को राजनीतिक बदले के लिए निशाना नहीं बनाया जा रहा.

(ये ख़बर सबसे पहले 04 अप्रैल 2022 को इस्लामाबाद में इमरान ख़ान की गिरफ्तारी के वक्त प्रकाशित हुई थी, पढ़िए ताज़ा अपडेट के साथ.)
अगर किसी को इस बारे में भी शक है, कि इमरान ख़ान 'क्राउड पुलर' या भीड़ को अपनी तरफ़ खींचने वाले नहीं हैं, तो ज़ाहिरी तौर पर वह पाकिस्तान की राजनीति से अनभिज्ञ हैं.
इमरान ख़ान का एक बहुत बड़ा फ़ैन क्लब है, जो 1992 में क्रिकेट विश्व कप जीतने से लेकर 2022 में जेब से एक पत्र निकाल कर लहराने तक, उनके जादू में गिरफ़्तार है, उनकी एक आवाज़ पर खड़ा हो जाता है और समझता है कि कप्तान जो कुछ भी कह रहे हैं वही सच है.
इमरान ख़ान ही उन्हें क्रिकेट की शब्दावली में बताते हैं, कि वह डट कर खड़े हैं और आख़िरी गेंद तक खेलेंगे. लेकिन क्या आख़िरी गेंद पर 172 रन बन सकते थे? और क्या होगा अगर उनका अपना बल्ला ही विकेट को छू जाए?
इमरान ख़ान की कहानी भी पवेलियन से लेकर पिच तक की कहानी जैसी है और इस बीच उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों के ऐसे छक्के छुड़ाए हैं कि शायद वो उनके साथ खेली गई पारी को कभी न भूलें.
क्रिकेट का ग्राउंड और राजनीति का मैदान

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इमरान ख़ान का मुख्यधारा की राजनीति में आना कोई अचानक होने वाली घटना नहीं थी और उनके अनुसार उन्होंने इसके लिए कई सालों तक इंतज़ार किया और मेहनत की. साल 1987 में वर्ल्ड कप के बाद जब इमरान ख़ान ने क्रिकेट से संन्यास लेने का फ़ैसला किया, तो उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ ने उन्हें दोबारा क्रिकेट में जाने के लिए कहा और कुछ महीने बाद इमरान ने अपना फ़ैसला वापस ले लिया.
इसी तरह जनरल ज़िया ने उन्हें बाद में राजनीति में आने के लिए भी कहा, लेकिन इमरान ने साफ़ मना कर दिया. नवाज़ शरीफ़ ने भी उन्हें कुछ ऐसा ही ऑफ़र किया था, लेकिन कप्तान राजनीति में नहीं आने के अपने फ़ैसले पर डटे रहे.
लेकिन अख़िरकार इमरान ख़ान राजनीति में आ ही गए.
इमरान ख़ान मिलिट्री इंटेलिजेंस आईएसआई के पूर्व प्रमुख जनरल हमीद गुल को उनकी जिहादी विचारधारा के कारण पसंद करते थे, और जब उन्हें मौक़ा मिला, तो वो जनरल हमीद गुल और मोहम्मद अली दुर्रानी के ज़ाहिरी तौर पर सामाजिक विचारधारा पर बनाये गए संगठन 'पासबान' में शामिल हो गए. हमीद गुल और मोहम्मद अली दुर्रानी इसे एक प्रेशर ग्रुप या 'थर्ड फ़ोर्स' कहते थे, उनके अनुसार जिसकी पाकिस्तान को सख़्त ज़रूरत थी, क्योंकि राजनेता अपने फ़ायदे के लिए देश को लूट रहे थे और जनता उनकी आपसी लड़ाई में पिस चुकी थी.
पासबान के संस्थापक इसे राजनीति के बजाय सामाजिक परिवर्तन की दिशा में पहला क़दम कहते थे, जो कई साल बाद इमरान की तब्दीली (परिवर्तन) की सुनामी की लहर में उभर कर सामने आई.
यह एक बहुत ही प्रभावी 'कोशिश' थी. पाकिस्तान के पूर्व आईएसआई प्रमुख हमीद गुल के योजनाबद्ध विचार, जमात-ए-इस्लामी से आये हुए दुर्रानी की बेहतरीन प्रबंधन क्षमता और वर्ल्ड कप के हीरो इमरान ख़ान का करिश्माई व्यक्तित्व. ऐसा लगता है कि इस संगठन और इसके दो नेताओं का इमरान की राजनीतिक विचारधारा की परिपक्वता में बहुत ज़्यादा प्रभाव है.
कई साल बाद, जनरल मुशर्रफ़ भी इमरान के क़रीब हुए और इमरान उनके साथ मिलते-मिलते रह गए. जनरल मुशर्रफ़ के मुताबिक़ पीटीआई के नेता पार्टी की हैसियत से ज़्यादा सीटें मांग रहे थे.
कैंसर अस्पताल और न्याय का पैमाना

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इमरान ख़ान निस्संदेह अब्दुल सत्तार ईधी के बाद, पाकिस्तान में कल्याणकारी कार्य करने वाले सबसे प्रमुख व्यक्तित्व समझे जाते हैं, जिन्होंने अपनी माँ के नाम पर बनाये गए शौक़त ख़ानम कैंसर अस्पताल के माध्यम से पाकिस्तान के एक बहुत बड़े वर्ग की सेवा की है.
लेकिन यहां भी 'पासबान' का ज़िक्र करना ज़रूरी है. यह मोहम्मद अली दुर्रानी ही थे जिन्होंने अपनी जमात के कार्यकर्ताओं और व्यापारिक समुदाय के साथ अपने संबंधों का इस्तेमाल करके इमरान ख़ान के लिए बड़े पैमाने पर फ़ंड इकठ्ठा कराया था.
ऐसे ही एक फ़ंड रेज़िंग इवेंट में, इमरान ख़ान की मुलाक़ात अरबपति व्यवसायी अब्दुल अलीम ख़ान से भी हुई, जिन्होंने वहीं खड़े-खड़े शौक़त ख़ानम हॉस्पिटल के लिए 6 करोड़ रुपये का दान देने की घोषणा की.
डॉन अख़बार के पत्रकार मंसूर मलिक जो पीटीआई को कवर करते थे इस कार्यक्रम में मौजूद थे. उनका कहना है कि "पीटीआई के गठन से पहले इमरान ख़ान का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट शौक़त ख़ानम कैंसर अस्पताल था, जिसके लिए उन्होंने दिन-रात काम किया. शौक़त ख़ानम एक ऐसा प्रोजेक्ट था जिसके लिए उन्हें पाकिस्तान के लोगों का सबसे ज़्यादा समर्थन मिला. इसमें युवा, महिलाएं, व्यापारी वर्ग और बाद में अलीम ख़ान, जिन्हें पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ का 'एटीएम' भी कहा जाता था, इसमें शामिल हो गए."
अलीम ख़ान के दान और उनके शौक़त ख़ानम के लिए सेवा की वजह से ही लाहौर में शौक़त ख़ानम अस्पताल की तीसरी मंज़िल पर एक वार्ड का नाम उनके पिता अब्दुल रहीम ख़ान के नाम पर रखा गया था और पेशावर में शौक़त ख़ानम में एक मंजिल का नाम उनकी मां नसीम ख़ान के नाम पर रखा गया था. अलीम ख़ान 'अब्दुल हलीम ख़ान फाउंडेशन' के तहत धर्मार्थ और कल्याण कार्य करते हैं.
शौक़त ख़ानम मेमोरियल कैंसर रिसर्च हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर का उद्घाटन 29 दिसंबर 1994 को हुआ और दो साल बाद 25 अप्रैल 1996 को इमरान ख़ान ने अपनी ख़ुद की राजनीतिक पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) की स्थापना की जिसका घोषणापत्र पर भी पासबान की बुनियाद पर ही आधारित था.
जिनमें 'इस्लामिक कल्याणकारी राज्य की स्थापना, जवाबदेही का नारा और एक न्यायपूर्ण समाज का गठन सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल थे. हालांकि शुरुआत में इसे केवल 'वन मैन शो' कहा जाता था, बाद में इस काफ़िले के साथ और भी लोग जुड़ते गए.
मंसूर मलिक का कहना है कि हालांकि पार्टी का गठन 1996 में हुआ था, लेकिन इसका पहला बड़ा प्रदर्शन 2011 में नज़र आया, जब इसने 30 नवंबर को लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान में अपनी पहली बड़ी रैली की.
इस समय तक वैचारिक लोगों के अलावा कुछ इलेक्टेबरल भी इसमें शामिल हो चुके थे. साल 2002 के चुनावों में, पीटीआई ने केवल एक सीट जीती थी, जिसे इमरान ख़ान ने मियांवाली से जीती थी. फिर 2013 का चुनाव आया. उस समय, पीटीआई ने ज़मीनी स्तर पर ख़ुद को संगठित करना शुरू कर दिया, कि उसके उम्मीदवार कौन होंगे, कौन पैसा ख़र्च करेगा, कौन कर सकता है और कौन नहीं कर सकता है.
पार्टी बनते ही टूट-फूट शुरू
आजकल पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई), में टूट-फूट बाग़ी सदस्यों और सहयोगियों के नाराज़ होने की बात चल रही है. बाग़ी सदस्यों को कभी 'देशद्रोही' कहा जाता है और कभी उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जाता है. लेकिन क्या पीटीआई में ऐसा पहली बार हो रहा है? बिलकुल नहीं. जब से पार्टी बनी है और चुनाव में भाग लिया है, तब से ही पार्टी के विभिन्न समूह एक-दूसरे से नाराज़ रहे हैं और कई ने पार्टी भी छोड़ी है.
1996 में जब इमरान ख़ान ने अपनी राजनीतिक पार्टी, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) बनाई थी, तो उस समय शायद उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि 11 खिलाड़ियों की क्रिकेट टीम की कप्तानी करने और राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनीतिक पार्टी चलाने में क्या अंतर है.
कहा जाता है कि इमरान ख़ान की शख़्सियत में ये बात भी शामिल है कि जो भी उनके बहुत क़रीब आता है वो कुछ समय बाद उनसे दूर हो जाता है. हामिद ख़ान से लेकर रिटायर्ड जस्टिस वजीहुद्दीन तक और जहांगीर ख़ान से लेकर अलीम ख़ान तक पीटीआई में नाराज़ सदस्यों की लिस्ट बहुत लंबी है.
अक्सर इस तनाव की वजह इमरान ख़ान के ख़ुद के फ़ैसले होते हैं. उदाहरण के लिए, 2013 के चुनावों से पहले, अचानक यह निर्णय लिया गया कि ज़मीनी स्तर पर संगठन निर्माण के लिए, 'नामांकन के बजाय निर्वाचित लोगों को लाया जाना चाहिए', जो पार्टी के मूल सिद्धांतों का ही उल्लंघन था.
मंसूर मलिक के मुताबिक़, पहले कहा गया कि पार्टी चुनाव कराएगी, लेकिन ध्रुवीकरण इतना हो चुका था कि ग्रुप्स आपस में ही लड़ने लगे. इस बीच, 2013 का चुनाव सिर पर आ गया. उस समय पीटीआई को लगा कि हम चुनाव में विपक्ष से लड़ने के बजाय अपने आप से ही लड़ रहे हैं. जब चुनाव के नतीजे आए तो सभी को पता चल गया कि ग़लतियां कहां हुई हैं.
मलिक का कहना है कि अब जो लोग पार्टी से अलग हुए हैं, ये वही लोग हैं जो पहले भी आवाज़ उठाते रहे हैं और यह पहली बार नहीं है कि वे पार्टी से नाराज़ हुए हैं.
उन्हें पैकेज और डेवलपमेंट फ़ंड नहीं मिलते थे, क्योंकि इमरान ख़ान ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया था, कि पार्टी के एमएनए और सांसदों को तो फ़ंड नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह लोकल गवर्नमेंट का काम है.
लेकिन उन्होंने ज़मीनी स्तर पर प्रबंधन के लिए न तो पार्टी के भीतर चुनाव कराए और न ही घोषणापत्र के अनुसार लोकल गवर्नमेंट के चुनाव कराए. चुनाव आयोग चार साल से कह रहा है कि चुनाव कराएं, लेकिन ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि उनके अनुसार लोग ही पूरे नहीं हैं.
ये वो काम थे जो उन्हें पहले 100 दिनों में करने थे. पार्टी में वैचारिक लोग कहने लगे कि बाहर से लोग आ रहे हैं, संघीय मंत्री और सलाहकार बन रहे हैं और जो लोग शुरू से पार्टी के साथ रहे हैं उन्हें कुछ भी नहीं दिया जा रहा है. ये सारा ग़ुस्सा अब सामने आ गया है.
मंसूर मलिक कहते हैं कि मैंने पार्टी को बनते और फलते-फूलते देखा है और मैं पार्टी के लोगों को अच्छी तरह जानता हूं. "मुझे पता है कि 2013 से पहले और बाद में जो मतभेद शुरू हुए थे, वे अभी भी हैं. उस समय ही पार्टी में लोगों ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने शुरू कर दिए थे.
जैसे उस समय लोग अलीम ख़ान को 'भ्रष्ट' कहने लगे थे और आज भी जब अलीम ख़ान ने वरिष्ठ मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया है, तो पार्टी के अंदर बहुत से लोग कह रहे हैं कि शुक्र है उनसे जान छूट गई है.
लेकिन ये वही इंसान हैं जिसने पार्टी को बहुत सपोर्ट किया था और सारी बड़ी बड़ी रैलियां कराई थीं, जिनसे पार्टी ज़मीनी स्तर पर दिखाई दी थी. अलीम ख़ान जैसे लोग ये सोचते थे कि हम इमरान ख़ान के वफ़ादार और वैचारिक सहयोगी हैं, लेकिन जब सरकार बनती है तो हमे भुला दिया जाता है.
साल 2013 से साल 2018 तक की यात्रा पीटीआई के लिए राजनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण दौर था. 2013 के चुनाव में इसने 30 सीटें जीतीं और वोट शेयर के मामले में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में, जिसके बारे में इमरान ख़ान सबसे ज़्यादा बात करते हैं, उन्हें बहुमत मिला और वहां पीटीआई की पहली प्रांतीय सरकार बनी.
मंसूर मलिक का कहना है कि जैसे ही 2018 आया और इमरान ख़ान ने एस्टेब्लिशमेंट के साथ हाथ मिलाया, जिस पर उन्हें पहले विश्वास नहीं था, लेकिन अब सभी मानते हैं, तब एस्टेब्लिशमेंट ने उन्हें लोग लाकर देने शुरू कर दिए.
"जब इलेक्टेबरल्ज़ लाए गए, तो पार्टी में फिर से विवाद शुरू हो गया. अपने लोगों को टिकट नहीं मिल रहे थे और जो लोग बाहर से लाये जा रहे थे उन्हें पार्टी का टिकट मिल रहा था. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उस्मान बज़दार हैं. पाकिस्तान मुस्लिम लीग-क्यू और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-(नवाज़) से हो कर आने वाले बज़दार को पीटीआई में शामिल करके मुख्यमंत्री बना दिया गया. इससे पार्टी के सभी सदस्य नाराज़ हो गए, लेकिन इमरान डटे रहे.
इमरान, एर्तुगरुल और यूथ

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2018 के चुनावों में, पीटीआई ने नेशनल असेंबली में 116 सीटें जीतीं और इमरान ख़ान पाकिस्तान के इतिहास में पहले राजनेता बने जिन्होंने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा और पांचों सीट जीती.
जीत के बाद अपने भाषण में इमरान ख़ान ने अपनी भावी सरकार का विज़न पेश किया और कहा कि वह देश को पूर्ण कल्याणकारी राज्य बनाकर इसे मदीना राज्य के सिद्धांतों पर चलाना चाहते हैं.
उन्होंने सादगी और छोटी कैबिनेट वाली सरकार की बात की, लेकिन अतीत की तरह यह वादा भी कुछ ही दिनों में हवा में गुम हो गया. मंत्रिमंडल का भी विस्तार होता चला गया, और ख़र्च भी बढ़ते चले गए. न तो प्रधानमंत्री आवास यूनिवर्सिटी बना, और न ही मंत्री साइकिलों पर आए.
बड़ी बड़ी और महंगी गाड़ियों की लाइन लग गई और प्रधानमंत्री हेलीकॉप्टर से ऑफ़िस पहुंचने लगे. हालांकि उन्हें पसंद करने वाले मतदाताओं को बुरा तो लगा, लेकिन इमरान के प्यार और अतीत के राजनेताओं के प्रति घृणा ने उनके दिलों को इस हद तक भर दिया था कि कप्तान का यह रूप भी न चाहते हुए उन्होंने स्वीकार कर लिया था.
साल 2020 में, इमरान ख़ान ने एक इंटरव्यू में कहा कि वह चाहते हैं कि पाकिस्तान की जनता लोकप्रिय तुर्की सीरीज़ 'डिरिलिस: एर्तुगरुल' को देखें. यह इमरान ख़ान का एक मज़बूत इस्लामिक राज्य की नींव की तरफ़ भी इशारा था या शायद वह ख़ुद को भी उसी रूप में देख रहे थे.
तुर्क ऐतिहासिक किरदार एर्तुगुल तुर्क साम्राज्य के संस्थापक उस्मान गाज़ी के पिता थे, जिन्होंने अपना जीवन मंगोलों, गद्दारों और धर्मयुद्ध लड़ने वाले ईसाइयों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए बिताया था. उनके बेटे ने बाद में ओटोमन साम्राज्य की स्थापना की जो 600 साल तक चला.
पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की निदेशक और वरिष्ठ पत्रकार फ़राह ज़िया का मानना है कि इमरान ख़ान का वादा पुरानी राजनीति को ख़ारिज कर नई राजनीति लाने का था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. "उन्होंने न्याय के साथ शुरुआत की थी, लेकिन आप न्याय की स्थिति देख सकते हैं. वास्तव में, तो कोई भी बदलाव नहीं ला सके. क्योंकि वे कोई बदलाव नहीं ला सके, इसलिए आसान तरीका लोगों को इस्लामी विचारों या एर्तुगरुल नाटक पर लगाने का ही रह गया था.

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इस्लामिज़म और नेशनलिज़्म का तड़का
इमरान ख़ान पाकिस्तान को मदीना राज्य की तर्ज़ पर तो देखना चाहते हैं, लेकिन साथ ही वह स्कैंडिनेवियाई कल्याण संरचनाओं, ब्रिटिश और अमेरिकी लोकतंत्र और चाइना शैली की सत्ता व्यवस्था की भी अपेक्षा करते हैं.
साथ ही, वह तुर्की के रेचेप तैयब एर्दोआन और मलेशिया के महाथिर मोहम्मद का उदाहरण देते हुए, उनकी तरह का नेतृत्व भी चाहते हैं. राजनीति के किसी भी छात्र के लिए इन सभी को जोड़ना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन भी है, क्योंकि उनमें सत्तावाद भी है और लोकतंत्र भी, फासीवाद भी है और इस्लामिक मूल्य भी. ये सभी एक दूसरे को चुंबक के एक समान शीर्षों की तरह एक दुसरे से दूर करती हैं.
लेकिन इमरान ख़ान का अपना एक विचार है कि इन सबमे से चुन चुन कर कुछ चीज़ें ली जा सकती हैं, या शायद वह इन्हें एक ही चीज़ मानते हैं.
उनकी विदेश नीति में भी इस कंफ्यूज़न की झलक मिलती है. वह हर मंच पर दुनिया भर के मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्लामोफ़ोबिया और अत्याचार के बारे में तो बात करते हैं,
लेकिन जब उनसे पूछा जाता है, कि चीन के उइगर मुस्लिमों के बारे में उनका क्या विचार है, तो वो कहते हैं कि उन्हें नहीं पता. इसी तरह उन्होंने उत्तरी सीरिया पर तुर्की के हमले का भी समर्थन किया था, जिससे उनके कई समर्थक नाराज़ भी हो गए थे.
इसी तरह, जब उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शासनकाल में अमेरिका का दौरा किया, तो उन्होंने पाकिस्तान के साथ अमेरिकी संबंधों की ख़ूब प्रशंसा की और जब वे पाकिस्तान लौटे, तो उन्होंने बहुत ही गर्व से कहा कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे वो विश्व कप जीत कर आये हैं.
राष्ट्रपति जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद, उन्होंने बहुत इन्तिज़ार किया कि वो उनसे संपर्क करें, और कुछ इंटरव्यू में तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि पता नहीं फ़ोन क्यों नहीं आया, लेकिन साथ ही हाल ही में उन्होंने यह भी कह दिया कि अमेरिका उनकी सरकार को गिराने की साज़िश रच रहा है.
इस्लामाबाद में क़ायद-ए-आज़म यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स एंड इंटरनेशनल रिलेशंस के सहायक प्रोफ़ेसर डॉक्टर सैयद क़ंदील अब्बास कहते हैं कि इमरान ख़ान की अमेरिका के बारे में नीति और बयान को समझने के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखना होगा.
"पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान के समय से ही हमारी समस्या यह रही है कि हमारी विदेश नीति 'भारतीय केंद्रित' रही है और हम यही मानते रहे हैं, कि जो भी देश भारत के बारे में हमारे पक्ष का समर्थन करेगा, वो हमारा मित्र है. ऐसा कहा जाता है कि शुरुआत में ही लियाक़त अली ख़ान रूस की यात्रा को छोड़ कर अमेरिका चले गए थे."
"यहीं से पाकिस्तान की विदेश नीति की नींव पड़ी और पाकिस्तान को पश्चिमी ब्लॉक के साथ जोड़ दिया गया. लेकिन 1965 और 1971 की जंग में पाकिस्तान को अमेरिका से वह मदद नहीं मिली, जिसकी उसे उम्मीद थी और पाकिस्तान में पश्चिम-विरोधी और अमेरिका-विरोधी भावनाएं पैदा हुईं. जब जुल्फ़िकार अली भुट्टो का समय आया और उन्होंने इस्लामिक गुट की बात की और हेनरी किसिंजर ने उन्हें एक मशहूर धमकी दी, तो बात यहां तक पहुंच गई, कि कुछ लोग तो भुट्टो की फांसी के लिए भी अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराते हैं."
उनका कहना है कि पाकिस्तान की त्रासदी यह है कि पश्चिमी गुट में होते हुए भी पाकिस्तान में पश्चिम विरोधी और अमेरिका विरोधी भावनाएं मौजूद रही हैं. सत्ता में आने से पहले इमरान ख़ान भी अमेरिकी ड्रोन हमलों और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के ख़िलाफ़ जंग में अमेरिका की मौजूदगी का विरोध करते रहे हैं. तनाव तब ज़्यादा बढ़ गया जब पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी में उतनी मदद नहीं की जितनी वह चाहता था.
डॉक्टर क़ंदील का कहना है कि जब इमरान ख़ान से एक इंटरव्यू में पाकिस्तान की ज़मीन से अफ़ग़ानिस्तान पर हुए हमलों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने 'एब्सल्यूटली नॉट' का वह मशहूर वाक्य बोला और दूसरी जगह यह भी कहा कि अगर अब ड्रोन आए तो हम गिरा देंगे.

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डॉक्टर क़ंदील का कहना है कि इमरान ख़ान का झुकाव चीन और रूस की ओर है और वह पाकिस्तान को पश्चिमी गुट से निकाल कर पूर्वी गुट में ले जाना चाहते हैं और साथ ही इस्लामी गुट के बारे में भी सोचते हैं. "यह सच है कि वह चीन के दौरे के तुरंत बाद रूस के दौरे पर उसी दिन गए, जिस दिन रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था, यह एक संयोग भी हो सकता है क्योंकि दौरे पहले से ही तय किये जाते हैं."
लेकिन फ़राह ज़िया का कहना है कि पाकिस्तान की कोई भी सरकार कभी भी स्वतंत्र विदेश नीति नहीं बना पाई है. "स्टेब्लिशमेंट कभी भी राजनीतिक सरकारों को एक स्वतंत्र विदेश नीति नहीं चलाने देती है. सच तो यह है, कि विदेश कार्यालय भी उनके ही पास होता है. ज़रदारी ने कोशिश की थी और ईरान तक चले गए थे, लेकिन उन्हें इससे आगे कुछ भी नहीं करने दिया गया. मेरा सवाल यह है कि क्या उनके पास इतनी आज़ादी थी कि वो अपनी विदेश नीति बना सकें?"
डॉक्टर क़ंदील के अनुसार, भू-राजनीति से निकल कर भू-अर्थशास्त्र की तरफ़ देखने की ज़रूरत है और शायद इमरान ऐसा करना भी चाहते हैं. "एक मज़बूत अर्थव्यवस्था के बिना एक स्वतंत्र विदेश नीति संभव नहीं है."
इमरान के 'टाइगर' और 'अभद्र भाषा' की सुनामी

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इमरान ख़ान जब साल 2014 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आये थे और कहा था कि उनके युवाओं की सुनामी 'भ्रष्ट' राजनेताओं को तबाह कर देगी, तो शायद बहुत से लोगों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि सुनामी के बाद तबाही की बहुत ज़्यादा गंदगी भी बाहर आ जाती है, जिसे समेटना बहुत मुश्किल है. और इमरान की सुनामी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ.
जिसने भी इमरान का विरोध किया, इमरान ख़ान के समर्थकों और ख़ुद इमरान ने उन्हें ख़ूब बुरा भला कहा. आज अगर उनकी पार्टी में कोई पसंदीदा है तो कल आलोचना करने के बाद वह बुरा बन जाएगा और उसे 'गद्दार' और 'बिकाऊ' कहा जाएगा. असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है और यही पीटीआई की सबसे बड़ी ख़ामी लगती है.
लेकिन विरोधियों के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा का इस्तेमाल सिर्फ़ इमरान के दौर में ही नहीं हुआ है, इससे पहले मुस्लिम लीग (नवाज़) ने इसकी शुरुआत की थी और जन सभाओं में नवाज़ शरीफ़ और शाहबाज़ शरीफ़ ने अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ जो शब्द इस्तेमाल किये थे वो भी इतिहास का हिस्सा हैं. हालांकि, पीटीआई के दौर में एक नई गिरावट देखी गई है. ऐसा महसूस हुआ है कि एक सोची-समझी नीति के तहत इमरान के टाइगर्स हर उस आवाज़ को अभद्र भाषा इस्तेमाल करके दबाना चाहते हैं, जो भी उनकी नीति या नेता की आलोचना करती है.
हालांकि, फ़राह ज़िया का कहना है कि हमें यह चीज़ें विरासत में मिली हैं कि राजनेता या तो भ्रष्ट हैं या देशद्रोही और यह कोई नई बात नहीं है. बल्कि यह 1950 के दशक से ही हो रहा है. "लेकिन यह भी सच है कि आज कल इस तरह का नज़रिया एक दूसरे ही स्तर पर पहुंच गया है."
दूसरी ओर, इमरान ख़ान ने ख़ुद को कभी भी जवाबदेह नहीं ठहराया और जब भी उन पर कोई आरोप लगा या उनकी किसी भी नीति में नाकामी दिखाई दी, तो उन्होंने तुरंत किसी और को इसका ज़िम्मेदार ठहराया या इसे साज़िश बताया.
इमरान कुछ भी कहने से नहीं डरते, चाहे वह भाषण में ख़ुफ़िया पत्र का ज़िक्र करते हुए, अमेरिका का नाम लेना ही क्यों न हो. और यह भी याद रखें कि इमरान ख़ान ही थे, जिन्होंने स्वीकार किया था कि वह बॉल टेम्परिंग करते थे, बल्कि एक बार तो उन्होंने बॉल को किसी तेज़ धार चीज़ से रगड़ कर इस्तेमाल किया था.
क्या इमरान ख़ान राजनीतिक व्यक्ति हैं?
इमरान ख़ान हमेशा से राजनेताओं को बुरा भला कहते रहे हैं, कभी वह सदन को भी कुछ नहीं मानते हैं और कभी वह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को छोड़कर अतीत के किसी भी राजनेता को देश के प्रति वफ़ादार नहीं मानते हैं.
फ़राह ज़िया का कहना है कि ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इमरान ख़ुद एक राजनीतिक आदमी नहीं हैं. उनकी ट्रेनिंग ही उस तरह से नहीं हुई है, "वे अपने भाषणों में यह कहने की कोशिश करते रहते हैं कि मैं राजनीति का छात्र हूं, लेकिन वास्तव में वे राजनीति के छात्र नहीं हैं. वह एक क्रिकेटर है और वो भी रिटायर्ड, जो सिर्फ़ अपने अतीत में रहता है. क्योंकि राजनीति तो लेने देने के सिद्धांतों पर आधारित होती है, इसमें बहुत लचीलेपन की ज़रूरत होती है जो इमरान ख़ान में नहीं है. वह तो सिर्फ़ एक वैचारिक इंसान हैं जो ख़ुद को मसीहा मानता है.'
पाकिस्तान का मौजूदा सरकार लगातार इमरान ख़ान को घेरने की कोशिश कर रही है, ऐसे में अब यह देखना बाकी है कि इमरान अपनी दूसरी पारी में रक्षात्मक रणनीति रखेंगे या आक्रामक तरीक़े से ही खेलना जारी रखेंगे. वो कौन सी भूमिका निभाएंगे- मसीहा, क्रिकेटर या राजनेता?
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