पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों की आबादी बहुत तेज़ी से घट रही है, आखिर क्यों?

अहमदिया बिरादरी
    • Author, रियाज़ सुहैल
    • पदनाम, बीबीसी उर्दू

पाकिस्तान के पेशावर शहर के बाहरी इलाक़े बाज़ी ख़ेल में दोपहर का समय था. सब कुछ आम दिनों के मुताबिक़ चल रहा था कि एक निजी क्लिनिक में 16-17 साल का लड़का दाख़िल हुआ और अजीब सी नज़रों से इधर उधर देखता रहा.

जब स्टाफ़ ने उस लड़के से पूछा कि क्या काम है, तो उसने जवाब दिया, कि 'मैं मरीज़ हूं. मुझे बड़े डॉक्टर से दवा लेनी है.'

वो 'बड़े डॉक्टर' डॉक्टर अब्दुल क़ादिर थे, वो इबादत (प्रार्थना) पूरी करके क्लिनिक में स्थित अपने कैबिन में आकर बैठे ही थे. युवक उनके कमरे में घुसा और पिस्टल निकालकर फ़ायरिंग शुरू कर दी. अपने ही ख़ून से लथपथ डॉक्टर अब्दुल क़ादिर वहीं ढेर हो गए.

ये घटना पिछले साल 11 फ़रवरी की है. डॉक्टर अब्दुल क़ादिर के बेटे के अनुसार, उनके पिता को पास के एक अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका, लेकिन हमलावर को अस्पताल के गार्ड्स ने पकड़ लिया.

साल 2021 में, डॉक्टर अब्दुल क़ादिर अहमदिया समुदाय से संबंध रखने वाले चौथे ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें टारगेट किलिंग का निशाना बनाया गया.

वीडियो कैप्शन, पाकिस्तान के नोबेल विजेता अब्दुस सलाम की कहानी

अहमदिया समुदाय पर हमलों की इस लहर के बाद, कई अहमदिया परिवार पेशावर से पलायन कर गए हैं, इनमें से कुछ पाकिस्तान के अन्य शहरों में चले गए और कुछ विदेश चले गए हैं.

अगर पाकिस्तान में साल 2017 में हुई जनगणना की तुलना 1998 की जनगणना से की जाए, तो देश में अहमदिया समुदाय की जनसंख्या में होने वाली कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.

अहमदिया समुदाय की आबादी में कितनी कमी?

पिछले साल जारी किये गए जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अहमदिया समुदाय पाकिस्तान की कुल आबादी का लगभग 0.09 प्रतिशत हैं. जबकि साल 1998 की जनगणना के अनुसार, अहमदिया समुदाय की जनसंख्या 0.22 प्रतिशत थी.

अहमदिया जमात के प्रवक्ता सरकारी आंकड़ों से सहमत नहीं हैं.

उनका कहना है कि निश्चित रूप से उत्पीड़न के कारण लोग पलायन कर रहे हैं, लेकिन यह सिलसिला 1980 से चल रहा है. उन्होंने कहा कि जनसंख्या में जो प्राकृतिक वृद्धि होती है उस हिसाब से भी देखा जाये, तो यह संख्या बहुत कम है. उनके अनुमान के मुताबिक़ पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय की आबादी फिलहाल चार से पांच लाख के आसपास है.

ताहिर अहमद अशरफी

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ध्यान रहे कि पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने साल 2018 में अहमदिया मतदाताओं की संख्या एक लाख 67 हज़ार बताई थी, जिनकी आबादी पंजाब और सिंध में ज़्यादा थी.

अहमदिया समुदाय अपनी पहचान छिपा रहा है?

धार्मिक सद्भाव पर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सहयोगी और पाकिस्तान उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष हाफ़िज़ ताहिर महमूद अशरफ़ी ने कहा कि वो यह स्वीकार नहीं करते कि अहमदिया समुदाय की आबादी में समय के साथ इतनी गिरावट आई है.

बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने दावा किया कि उनकी निजी जानकारी के मुताबिक़, जिन इलाक़ों में अहमदिया समुदाय के लोग मौजूद हैं, वो व्यापार और व्यवसाय के अलावा पाकिस्तान में अच्छे पदों पर भी हैं और उनमें से ज़्यादातर अपनी पहचान छिपाकर रखते हैं.

"अगर उन्हें कहीं विदेश जाने का मौक़ा मिलता है, तो वो यह मौक़ा हासिल करते हैं, जिसमें उनका संगठन उनकी मदद करता है. मैं व्यक्तिगत रूप से कुछ ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होंने विदेश जाने के लिए अपने ख़िलाफ़ ख़ुद एफ़आईआर दर्ज कराई थी."

वीडियो कैप्शन, पाकिस्तान के इस क़दम से अहमदिया मुसलमानों में डर क्यों है?

पूर्व केंद्रीय सचिव फ़ज़लुल्लाह क़ुरैशी पाकिस्तान सरकार के योजना और जनगणना सहायक के तौर पर काम कर चुके हैं. उनका कहना है कि प्रतिबंधों के कारण अहमदिया समुदाय अपनी धार्मिक पहचान को ज़ाहिर नहीं करते हैं.

"आज से पहले स्थिति अलग थी, अब स्थिति अलग है. मानवीय त्रुटि की कोई गुंजाइश नहीं है, क्योंकि नागरिक जो जानकारी उपलब्ध कराता है वही लिखी जाती है. अगर कोई अपना धर्म इस्लाम बताता है, तो कर्मचारी इस्लाम लिखते हैं, क्योंकि अहमदिया समुदाय के बहुत से लोग ख़ुद को इस्लाम से जोड़ते हैं और अपनी पहचान छिपाते हैं. दूसरा ये, कि कुछ लोग विदेश भी गए हैं जैसे अन्य समुदायों के लोग गए हैं."

फ़ज़लुल्लाह क़ुरैशी ने कहा कि अहमदिया समुदाय किसी एक घर या इलाक़े में तो नहीं रहता है और जानबूझकर किसी को नज़रअंदाज करना संभव नहीं है. उन्होंने कहा कि बहुत से लोगों में यह धारणा पाई जाती है लेकिन यह सच नहीं है और जनगणना की निगरानी तीन चरणों में की जाती है.

दूसरी तरफ़, लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनेजमेंट साइंसेज़ के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर अली उस्मान क़ासमी ने कहा कि जनगणना के नतीजों पर प्रांतों और धार्मिक अल्पसंख्यकों ने मिलकर आपत्ति जताई है.

वीडियो कैप्शन, हिंदू अफ़ग़ान जिन्हें समझा गया पाकिस्तानी मुसलमान

उन्होंने कहा कि अहमदिया समुदाय के बहुत से लोग अपनी पहचान गुप्त रखते हैं क्योंकि उन्हें जान का ख़तरा होता है.

उन्होंने कहा कि, "जनसंख्या में गिरावट का मुख्य कारण पलायन है जो पिछले 15 वर्षों में बढ़ा है. पढ़े-लिखे लोग पहले कनाडा, अमेरिका, जर्मनी चले जाते थे. अब थाईलैंड, श्रीलंका जैसे देशों में जहां वीज़ा की ज़रूरत नहीं है वहां जाना शुरू कर दिया है. यह ऐसी प्रवृत्ति है जो पहले कभी नहीं थी. यूरोप और अमेरिका में प्रवास करने का जो रिकॉर्ड है उसके बजाय, उन देशों की ओर देखना चाहिए जो सामान्य ग़रीब अहमदियों की पहुंच में हैं."

अहमदिया जमात के प्रवक्ता ने पलायन से तो इनकार नहीं किया, लेकिन उन्होंने कहा कि उनके पास डेटा नहीं है. हालांकि, पहचान छिपाने के दावों से वो सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि यह तभी संभव हो सकता है जब 1974 से फैमिली ट्री में पहचान मुस्लिम के रूप में चल रही हो और किसी ने उसमें बदलाव न कराया हो.

उन्होंने कहा कि पहचान के लिए एक हलफ़नामा देना होता है और अगर इसका ख़ुलासा न किया जाए, तो भी इसे अपराध माना जाता है.

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अहमदियों पर हमला, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा हॉटस्पॉट

पेशावर के बाहरी इलाक़े बाज़ी ख़ेल में डॉक्टर अब्दुल क़ादिर पर होने वाला ये हमला कोई पहली घटना नहीं थी.

उनके बेटे ने बताया कि जनवरी 2009 में प्रतिबंधित संगठन लश्कर-ए-इस्लाम मंगल बाग़ समूह ने उनके घर पर हमला किया और उनके एक डॉक्टर कज़िन को घसीट कर ले जाने की कोशिश की थी. उन्होंने कहा कि उस समय डॉक्टर अब्दुल क़ादिर और उनके गार्ड्स ने विरोध किया, विरोध के दौरान एक गोली उनकी जांघ में लगी थी, लेकिन वो अपने कज़िन को बचाने में कामयाब हो गए, हालांकि, इस संघर्ष में उनका एक गार्ड मारा गया था.

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर के बेटे ने कहा कि उनके कज़िन का क्लिनिक घर के अंदर ही था जिस पर पहले एक बार आत्मघाती हमला भी किया गया था, उस हमले में एक महिला की मौत हो गई थी और इस गंभीर स्थिति के कारण उन्हें एक सुरक्षित स्थान पर जाना पड़ा. जिसकी वजह से उनकी शिक्षा और उनके पिता की प्रैक्टिस प्रभावित हुई.

पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक़ के शासन के दौरान, 26 अप्रैल 1984 को, पाकिस्तान की सरकार ने अध्यादेश-20 को लागू किया, जिसके तहत 1974 में ग़ैर-मुस्लिम घोषित किए गए अहमदियों द्वारा इस्लामी तौर-तरीक़े अपनाना भी एक दंडनीय अपराध बना दिया गया. और अहमदिया समुदाय के लोगों को ख़ुद को मुसलमान कहने पर भी पाबंदी लगा दी गई.

अहमदिया बिरादरी

अहमदिया जमात के दावे के अनुसार, अहमदिया समुदाय की हत्याओं की शुरुआत 1 मई 1984 को हुई थी. अहमदिया जमात के अनुसार, पिछले 38 सालों में अहमदिया समुदाय के 273 लोग मारे गए हैं, जिनमे सबसे ज़्यादा हत्याएं पंजाब में हुईं जो कुल हत्याओं का 69 प्रतिशत है.

दूसरे स्थान पर सिंध है, जहां 23 प्रतिशत हत्याएं हुई हैं. इसके बाद ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में पांच प्रतिशत और बलूचिस्तान में तीन प्रतिशत हत्याएं हुईं. हालांकि, पिछले कुछ समय में, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में हमले और मौतें अधिक हुई हैं.

पेशावर में अहमदिया समुदाय के नेता एक पूर्व सेवानिवृत्त कर्नल हैं. बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि शुरुआत में ख़ैबर पख़्तूनख़्वा की स्थिति सिंध और पंजाब से काफ़ी बेहतर थी.

उन्होंने कहा कि साल 1984 में उनके गांव समेत कई इलाक़ों में उनके समुदाय पर हमले हुए और फ़सलें जला दी गईं, जिसके बाद अहमदिया समुदाय के लोग पलायन करके पेशावर आ गए, जहां उनके अनुसार असहिष्णुता, हीनता और पूर्वाग्रह तो था, लेकिन हत्याएं नहीं हो रही थीं.

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर जिनकी पिछले साल फ़रवरी में हत्या कर दी गई थी

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"पिछले एक-डेढ़ साल के दौरान, योजनाबद्ध तरीक़े से कार्रवाई की गई है. पहले ऐसा माहौल बनाया गया कि इस अभियान के कारण अहमदिया समुदाय के वकील प्रैक्टिस छोड़ दें. उनके पास जो केस थे, वो वापस हो गए."

उन्होंने कहा कि अहमदिया समुदाय के डॉक्टरों के ख़िलाफ़ एक पैम्फ़लेट प्रकाशित किया गया था जिसमें उनके नाम और उन अस्पतालों का विवरण दिया गया था जिनमें वो प्रैक्टिस करते थे और लोगों से अपील की गई कि वे उनसे इलाज न कराएं.

"अकेले पेशावर में 20 से 25 अहमदिया डॉक्टर थे. ऐसे में जो सरकारी शिक्षक और अन्य कर्मचारी थे, उन्होंने लंबी छुट्टी ले ली या दूसरे इलाक़ों में ट्रांसफ़र कराने के लिए मजबूर हो गए."

वीडियो कैप्शन, पाकिस्तान में सर्दियों में आम के मज़े ले रहे लोग

अहमदिया शिक्षक से नहीं पढ़ाना चाहते अभिभावक

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर के बेटे के मुताबिक़, पेशावर में उनके पिता पर पहले हमले के बाद जब स्थिति में सुधार हुआ तो वह वापस आ गए और दूसरी जगह पर घर ले लिया.

पिताजी ने दोबारा प्रेक्टिस शुरू की लेकिन फिर जुलूस निकलते और नारे बाज़ी होती और गालियां दी जातीं. राजनीतिक दलों के नेता और निर्वाचित प्रतिनिधि इन तत्वों के साथ खड़े होते हैं, क्योंकि उन्हें उनसे वोट लेना होता है और अगर वो उनके साथ खड़े न हों, तो उन्हें कहा जाता कि आप 'क़ादियानियों' के साथ खड़े हैं. वो डर जाते कि अगली बार उन्हें वोट नहीं मिलेगें.'

उन्होंने कहा कि वह अध्यापन के पेशे से जुड़े हुए थे, लेकिन 'क़ादियानी' होने के कारण उन्हें कई बार नौकरी से निकाल दिया गया.

'कोई न कोई विद्यार्थी पहचान जाता. उसके बाद स्कूल प्रशासन कहता कि आप अच्छा पढ़ा रहे हो, लेकिन माता-पिता शिकायत कर रहे हैं कि हमारे बच्चे 'क़ादियानी शिक्षक' से नहीं पढ़ेंगे.'

उन्होंने कहा कि कई बार ऐसा हुआ कि उन्होंने नई नौकरी शुरू की और इसमें रूटीन बनाया, लेकिन फिर इन शिकायतों के कारण सब ख़त्म हो जाता. 'फिर मैं किसी सुदूर इलाक़े में जाकर दोबारा से पढ़ाना शुरू कर देता. मेरे पिता भी घर बैठ जाते और कभी-कभी कोई छोटा सा क्लिनिक शुरू कर देते थे. उन्हें बिल्डिंग ख़ाली करने का नोटिस आ जाता. हम लगातार आर्थिक रूप से नीचे जा रहे थे.'

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर के बेटे ने कहा कि उनकी छोटी बहन को उनका टीचर गालियां देता था और कहता कि 'ये काफ़िरों से भी बदतर हैं.'

'सुबह अगर अब्बू तंदूर पर रोटी लेने जाते, तो वहां कहा जाता, 'डॉक्टर साहब आज तो आप आए हो, दोबारा आये तो अच्छा नहीं होगा.'

सांकेतिक तस्वीर

'इसको ले जाओ और ज़हर का टीका लगा दो'

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर की विधवा ने बताया कि स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने पिछले डेढ़ साल में आठ बार घर बदला है.

'लोगों संबंध नहीं रखते हैं. जब हम बाहर निकलते तो लोग एक दूसरे को इशारा करके बताते कि ये अहमदिया हैं, इनसे बात मत करो. अगर बात करोगे तो मुंह गंदा हो जाएगा. अगर घर में पानी नहीं होता तो पानी भी नहीं देते थे. वे कहते थे कि यह धर्म छोड़ दो नहीं तो हमारे साथ संबंध मत रखो.

बीबीसी से उन्होंने कहा कि कई मौक़ों पर उनके मकान मालिक उनसे कहते थे, कि 'हम मजबूर हैं क्योंकि आपके मोहल्ले वाले आपकी शिकायत कर रहे हैं, वो हमें धमकी दे रहे हैं कि आपके घर को आग लगा देंगे इसलिए हम यह सब मजबूरी में कर रहे हैं.'

डॉक्टर क़ादिर की विधवा का कहना है कि उनका छोटा बेटा ख़ूब पढ़ा-लिखा था, लेकिन बैठे-बैठे गुम-सुम हो जाता था और फिर पूरी तरह चुप हो गया.

उन्होंने बताया कि 'उसे एक मनोरोग पुनर्वास केंद्र ले जाया गया. कुछ दिनों तक उनका इलाज चलता रहा और फिर न जाने वहां के कर्मचारियों को कैसे पता चला कि यह अहमदिया है. इसके बाद केंद्र के प्रभारी, जो एक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर थे, ने उन्हें (माँ को) कहा कि इसको ले जाओ और ज़हर का टीका लगा दो. क्या कोई माँ से ऐसा कह सकता है?'

उन्होंने कहा कि पिछले साल फरवरी में उनके पति की हत्या के बाद, मई में उनका बेटा भी लापता हो गया. उसने पुनर्वास केंद्र में कहा कि वह अपने भाई के पास जा रहा है, लेकिन उसके बाद पता नहीं वह कहां चला गया. हमने पुलिस में रिपोर्ट भी कराई. मुझे नहीं पता कि मेरा बेटा ज़िंदा है या नहीं. जब मैं खाने के लिए बैठती हूं या पानी पीती हूं तो मेरे सामने उसकी सूरत घूमने लगती है.'

अहमदिया बिरादरी

'मेरे अधीन कर्मचारियों ने यह कह कर मेरे साथ काम करने से इनकार कर दिया, कि यह अहमदिया है'

पेशावर में अहमदिया संगठन के नेता सेना में कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं.

उनका कहना है कि सेना में नौकरी के दौरान उनके साथ एक दो बार भेदभाव हुआ. कुछ अधिकारियों का कहना था कि 'अहमदिया समुदाय से संबंध रखने वाले इस व्यक्ति के बर्तन अलग होने चाहिए. लेकिन दूसरे अधिकारीयों ने जिनकी संख्या ज़्यादा थी उन्होंने इसका विरोध किया और कहा कि आप लोग अपने बर्तन अलग कर लें लेकिन हम इनके साथ इन्हीं बर्तनों में खाएंगे.'

वो बताते हैं कि 'सेवानिवृत्ति के बाद, भेदभाव का सामना ज़्यादा करना पड़ा. मैं जिस कंपनी के लिए काम करता हूं, वहां मेरे अधीन काम करने वाले कर्मचारियों ने यह कहते हुए मेरे साथ काम करने से इनकार कर दिया कि यह अहमदिया है. उसके बाद मेरे बॉस इस्लामाबाद से पेशावर आये और उन्होंने एक मुफ़्ती से किये गए मशवरे के बारे में कर्मचारियों को बताया कि मुफ्ती का कहना है कि अगर वह अपने पेशे में कुशल है और अपने काम से काम रखता है तो इसमें कोई समस्या नहीं है. जिसके बाद वो लोग आगे काम करने के लिए तैयार हो गए.'

अहमदिया जमात के प्रवक्ता ने कहा कि ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में कोहाट, डीआई ख़ान, बन्नू, पाराचिनार और सराय नोरिंग में अहमदिया आबादी थी जो बहुत कम रह गई है और पेशावर में भी कम हो गए हैं.

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'अब रबवाह भी सुरक्षित नहीं है'

अहमदिया जमात का हेडक्वार्टर पंजाब में चिनियोट जिले के रबवाह क्षेत्र जिसे अब प्रशासनिक रूप से 'चिनाब नगर' कहा जाता है, में स्थित है. अहमदिया जमात के प्रवक्ता के अनुसार, इस हेडक्वार्टर की स्थापना साल 1948 में ग़ैर-आबादी और वीरान इलाक़े में की गई थी, जिसकी वर्तमान आबादी लगभग 70 हज़ार है, जिनमें से 90 प्रतिशत अहमदिया हैं.

रबवाह में सुरक्षा का कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं दिखाई देता. अहमदिया हेडक्वार्टर के पास सीमेंट के कुछ ब्लॉक रखे गए हैं, जबकि कोने पर केवल एक पुलिस मोबाईल खड़ी दिखाई देती है. प्रवेश द्वार पर अहमदिया जमात के निहत्थे स्वयंसेवक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी निभाते हैं.

दूसरी ओर, धार्मिक सद्भाव के लिए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सहयोगी हाफ़िज़ ताहिर अशरफ़ी ने दावा किया कि कोई भी मुसलमान उनकी (क़ादियानियों की) अनुमति के बिना क़ादियानियों के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता है और यहां तक कि पुलिस भी उनसे बिना पूछे दाख़िल नहीं होती है.

पाकिस्तान में हत्याओं और हमलों से प्रभावित अहमदिया समुदाय के लोगों के लिए, रबवाह ही एक अस्थायी पनाहगाह होती है. लेकिन अहमदिया जमात के प्रवक्ता का कहना है कि अब रबवाह भी सुरक्षित नहीं है.

अहमदिया बिरादरी

'यहां कोई नागरिक सुविधाएं नहीं हैं. विकास कार्य इसलिए नहीं होता है क्योंकि हम राजनीतिक दलों के वोटर्स नहीं हैं, हालांकि यह ज़िले का सबसे अधिक टैक्स देने वाला शहर होगा. यहां कोई उद्योग नहीं है. नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ता है और जब उन्हें पता चलता है कि अहमदिया हैं तो वे उन्हें नौकरी नहीं देते.'

रबवाह में अहमदिया समुदाय के अपने दो अस्पताल हैं, जबकि क़रीब आठ स्कूल, एक कॉलेज और एक यूनिवर्सिटी हैं. प्रवक्ता के अनुसार प्रोफ़ेशनल एजुकेशन के लिए बाहर जाना पड़ता है, जहां पहचान बतानी होती है. रबवाह में हॉस्टल की तरह के फ़्लैट बने हुए हैं जहां अस्थायी आवास की व्यवस्था की जाती है जबकि शहर में किराए के लिए सीमित मकान उपलब्ध होते हैं.

अली मुराद (बदला हुआ नाम) लाला मूसा में व्यापार करते थे. पिछले साल अगस्त में उन पर जानलेवा हमला हुआ, जिसके बाद वह रबवाह आ गए थे. उनका कहना है कि इसके बाद उनका कारोबार ख़त्म हो गया और जिंदगी जैसे रुक सी गई.

'घर बंद है. बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे वे एक बंद गली में हैं और आगे अंधेरा है. कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं. चाहे कोई कहीं भी पैदा हुआ हो या पला-बढ़ा हो, वह अब वहां वापस नहीं जा सकता. यहां तक कि यहां रबवाह में भी किराए के लिए जगह नहीं मिलती है.

वीडियो कैप्शन, पाकिस्तान के युवा और बच्चों में बैले डांस का बढ़ता क्रेज़

'नागरिकों का भी फ़र्ज़ है कि वे संविधान का पालन करें और क़ानून व्यवस्था को बनाए रखें'

दूसरी ओर, धार्मिक सद्भाव के लिए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सहयोगी हाफ़िज़ ताहिर अशरफ़ी का दावा है कि पिछले छह महीनों में किसी भी अहमदिया पर कोई हमला नहीं हुआ है.

उन्होंने कहा कि पेशावर और ननकाना में होने वाली दोनों घटनाओं के आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया गया है और यह पहली बार हुआ है कि सरकार ही नहीं बल्कि धार्मिक विद्वानों ने भी इसकी निंदा की है. उन्होंने कहा कि राज्य अपने नागरिकों की सुरक्षा की अपनी ज़िम्मेदारी को निभाती रहेगी और संविधान और क़ानून उन्हें जो अधिकार देता है, वो उनको मिलेगा.

'पाकिस्तान का संविधान और क़ानून हर नागरिक को जो अधिकार देता है, वो अधिकार क़ादियानियों भी मिले हैं. नागरिकों का भी फ़र्ज़ है कि वे संविधान का पालन करें और क़ानून व्यवस्था को बनाए रखें. क़ादियानी अपनी पहचान को छुपाते हैं, वो संविधान और क़ानून का पालन नहीं करते हैं,अपना पंजीकरण नहीं कराते हैं.

पेशावर में अहमदिया समुदाय के नेता का कहना है कि हत्या के मुक़दमों की पैरवी में भी मुश्किल होती है, क्योंकि वादी डर जाते हैं जिसकी वजह से सुनवाई स्थगित हो जाती है जिससे आरोपी को फ़ायदा होता है.

लिम्स यूनिवर्सिटी लाहौर के प्रोफ़ेसर डॉक्टर अली उस्मान क़ासमी कहते हैं कि जहां अहमदियों की बात होती है, वहां सरकारी तंत्र नज़र ही नहीं आता है.

उनका कहना है कि इस संबंध में क़ानून, उसकी भाषा और अदालती फ़ैसले ऐसे हैं कि अगर कोई अहमदिया अपनी आस्था व्यक्त करता है तो उसे सलमान रुश्दी मान लिया जाता है. अगर कोई उसे मारना चाहता है, तो हमारा क़ानून न केवल इसे एक प्राकृतिक कार्य मानता है, बल्कि इसकी प्रशंसा भी करता है.

उन्होंने कहा कि अगर क़ानूनी कार्रवाई की भी जाती है तो मीडिया या अदालत में माहौल ऐसा बन जाता है कि आरोपी के समर्थक इकट्ठा हो जाते हैं, उलेमा आ जाते हैं या वकीलों का समूह इकट्ठा हो जाता है.

उन्होंने कहा, कि 'पूरी न्याय प्रणाली इस तरह से काम करती है कि अगर सरकार चाहे, तो भी इस नफ़रत को रोक नहीं पाती.'

अहमदिया बिरादरी

'यह सच है कि अगर मैं सेना में नहीं होता तो आज यहां सर्वाइव नहीं करता'

पेशावर में अहमदिया समुदाय के नेता सेवानिवृत्त कर्नल के लगभग दो दर्जन क़रीबी रिश्तेदार विदेश जा चुके हैं.

उनका कहना है कि उन्हें अपने बच्चों की चिंता है कि यहां वो किस क्षेत्र में जायेंगे, वे इस स्थिति का सामना कैसे करेंगे और क्या वे इस दबाव को बर्दाश्त कर पाएंगे या टूट जायेंगे.

'मेरी बेटी और बेटा यूनिवर्सिटी में हैं. मैं चाहता हूं कि वे विदेश चले जाएं. यह एक अच्छा विकल्प है. मैं नहीं चाहता कि वे यहां रहें. अगर छोटा बेटा पाकिस्तान में रहना चाहता है, तो सेना में भर्ती होना एक बेहतर विकल्प है, क्योंकि यह सच है कि अगर मैं सेना में नहीं होता, तो मैं आज यहां सर्वाइव नहीं करता.

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर की विधवा का कहना है कि उनकी कोशिश है कि वो अपने बच्चों को बाहर भेज दें. कोई भी अपना देश नहीं छोड़ना चाहता लेकिन इन बच्चों को इन ज़ालिमों के पास नहीं छोड़ा जा सकता. इंसान जहां पैदा हुआ हो, पला बढ़ा हो, वो केवल मजबूरी में ही अपना देश छोडता है.'

डॉक्टर अब्दुल क़ादिर का पांच सदस्यों का परिवार अब विदेश जाने का इंतजार कर रहा है जिसके लिए वो बड़ी भाग-दौड़ और कोशिश कर रहा है. अगर वे इस कोशिश में सफल हो जाते हैं, तो पाकिस्तान की अल्पसंख्यक आबादी में से एक और अहमदिया परिवार कम हो जाएगा.

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