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AUKUS- चीन के किस डर से अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया साथ आने पर हुए मजबूर
- Author, नोर्बेर्तो पारेदेस
- पदनाम, बीबीसी न्यूज़
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने ब्रिटिश और ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष के साथ बुधवार को एक वीडियो कॉन्फ्रेंस कर हलचल मचा दी. इसकी वजह एक समझौता है जिसे AUKUS कहा जा रहा है.
चीन ने दावा किया है कि यह भारत-प्रशांत क्षेत्र में 'शांति और स्थिरता को ख़तरे में डालेगा' और 'मुल्कों के बीच हथियारों की दौड़ को बढ़ाएगा.'
इस समझौते की ख़बर के बाद फ़्रांस की मीडिया ने इसे फ़्रैंच डिप्लोमेसी के लिए गंभीर झटका बताते हुए कहा कि यह हथियार उद्योग के लिए भी नुक़सानदेह है.
AUKUS ने फ़्रांस और ऑस्ट्रेलिया के बीच अरबों डॉलर के समझौते को भी समाप्त कर दिया है जिसका पेरिस में 'सदी का समझौता' कहकर जश्न मनाया गया था. इस समझौते के तहत ऑस्ट्रेलियाई नौसेना के लिए फ्रांस 12 पनडुब्बियां बनाने वाला था.
फ़्रांस के विदेश मंत्री ज़्यां युव ले द्रयां ने फ़्रांस इन्फ़ो से गुरुवार को कहा कि "यह पीठ में छुरा घोंपने के समान है."
ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड स्टेट्स के शुरुआत के अक्षरों के कारण इस समझौते को AUKUS कहा जा रहा है, जिसका मक़सद भारत-प्रशांत क्षेत्र में इन तीन देशों के 'हितों की रक्षा' करना है.
इस समझौते के तहत अमेरिकी तकनीक से ऑस्ट्रेलिया पहली बार परमाणु क्षमता वाली पनडुब्बियां बनाएगा. अमेरिका ने इस तकनीक को आज तक सिर्फ़ ब्रिटेन के साथ साझा किया है. दोनों के बीच ये समझौता पचास साल पहले हुआ था.
लेकिन पचास साल पहले हुए समझौते को लेकर इस समय क्यों चर्चा हो रही है?
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की धुरी बना
हालांकि, अमेरिकी अधिकारियों ने कहा है कि इस सौदे का मक़सद चीन को निशाना बनाना नहीं है लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि AUKUS समझौता इस क्षेत्र की रणनीति और नीति में बदलाव है.
किंग्स कॉलेज लंदन के इंटरनेशनल रिलेशंस में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विशेषज्ञ रेमोन पचेको पार्दो बीबीसी से कहते हैं, "भारत-प्रशांत क्षेत्र इस समय पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की कुंजी बन गया है. यह भी कहा जा सकता है कि यह न केवल चीन के लिए बल्कि जापान, दक्षिण कोरिया, भारत और अन्य देशों समेत पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की धुरी बन चुका है."
भारत-प्रशांत क्षेत्र दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत और चीन का घर है. इसमें इंडोनेशिया जैसे देश भी आते हैं. इस पूरे क्षेत्र में दुनिया की आधी से अधिक आबादी रहती है.
इसी तरह से यहां पूरी दुनिया की आधी चीज़ों का उत्पादन भी होता है और यहां पर दुनिया की दूसरी (चीन) और तीसरी (जापान) सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं मौजूद हैं. इनके बाद भारत भी है जो तेज़ी से विकास पकड़ रहा है और दक्षिण कोरिया भी है जो विश्व की शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है.
ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री डोमिनिक राब इस बात को समझते थे. इसी कारण बीते साल दिसंबर में भारत दौरे के दौरान उन्होंने कहा था, "अगर आप भारत और भारत-प्रशांत क्षेत्र पर एक लंबी नज़र डालकर देखते हैं तो आप पाएंगे कि यहां पर विकास की बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं."
चीनी ख़तरा
इस क्षेत्र के विशाल आर्थिक और जनसांख्यिकीय भार से इतर अमेरिका और पश्चिमी सहयोगियों की चिताएं इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे को लेकर है.
इसके अलावा चीन जिस तरह से इस क्षेत्र में कार्रवाई कर रहा है और हथियारों के क्षेत्र में खुद को मज़बूत कर रहा है वो इन देशों के लिए चिंता का विषय रहा है.
चीन के बारे में ब्रिटेन के रक्षा मंत्री बेन वॉलेस ने बीबीसी से कहा था कि चीन "इतिहास के सबसे बड़े सैन्य ख़र्चों में से एक की शुरुआत कर रहा है."
उन्होंने कहा था, "वह बड़ी तेज़ी से अपनी नौसेना और वायु सेना की शक्ति बढ़ा रहा है. यह भी ज़ाहिर है कि वह कुछ विवादित इलाक़ों में भी शामिल है. उन क्षेत्रों में हमारे साझेदार अपने इलाक़े की रक्षा करना चाहते हैं. यह किसी को भी नाराज़ करने वाली बात नहीं है."
बीते कुछ सालों में चीन पर भारत-प्रशांत क्षेत्र के विवादित इलाक़ों में लगातार विवाद भड़काने के आरोप लगते रहे हैं.
चीन का दावा है कि पूरा का पूरा दक्षिण चीन सागर उसका ही है जिसके बाद शी जिनपिंग के नेतृत्व में वहां पर कृत्रिम द्वीपों पर शहरों से लेकर हवाई पट्टी और पर्यटन और सैन्य केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं.
दूसरी ओर इस क्षेत्र पर फिलीपींस, वियतनाम, ताइवान, मलेशिया और ब्रूनेई अपना-अपना दावा करते रहे हैं. दशकों से अलग-अलग देश इसके कई द्वीपों, रीफ़ और अलग-अलग जलक्षेत्रों पर अपना दावा करते आए हैं.
दुनिया का 30% व्यापार का जलमार्ग
इस इलाक़े से दुनिया का 30% व्यापार होता है. हालांकि, अमेरिका कभी भी संप्रभुता के मुद्दे पर नहीं बोला है लेकिन 'जल परिवहन की स्वतंत्रता' के तर्क की रक्षा करते हुए उसने सैन्य उपस्थिति यहां पर दिखाई है.
ऐसा भी माना जाता है कि यह इलाक़ा बहुमूल्य तेल और गैस का भंडार भी है.
लंदन के RUSI में एशिया और प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनीतिक संबंधों के विशेषज्ञ फ़ियरले नॉवेंस कहते हैं कि इस क्षेत्र में अनुमानित आर्थिक वृद्धि और इसके नौपरिवहन रूट के कारण इससे यहां के और यहां से बाहर के कई देशों के 'सीधे राष्ट्रीय हित' जुड़ जाते हैं.
उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय नियमों के आधार पर इस क्षेत्र में स्थिरता की आवश्यकता है.
वो कहते हैं, "चीन की बढ़ती सैन्य दृढ़ता के कारण इसने भू-राजनीतिक चिंताओं को बढ़ा दिया है जो कि लंदन और वॉशिंगटन समेत इस क्षेत्र के उन साझेदारों को परेशान कर रही हैं जो चीन की आर्थिक और सैन्य क्षमता के आगे ख़ुद को बौना समझ रहे हैं."
किंग्स कॉलेज लंदन के पचेका पार्दो मानते हैं कि AUKUS इस क्षेत्र में पश्चिम की शक्ति और उसके वज़न को बढ़ाएगा. वो कहते हैं कि 'यह भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के व्यवहार को नियंत्रित करने का काम भी कर सकता है.'
'क्षेत्र में बदलता शक्ति का संतुलन'
इस समझौते के साथ ऑस्ट्रेलिया उन देशों के ख़ास और छोटे समूह में शामिल हो जाएगा जो परमाणु शक्ति से संपन्न पनडुब्बियां रखते हैं. इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, भारत और रूस शामिल हैं.
ऑस्ट्रेलिया इस बात पर ज़ोर दे चुका है कि उसका परमाणु हथियार विकसित करने का कोई इरादा नहीं है और वो परमाणु अप्रसार सिंध (NPT) का पालन करता रहेगा.
परमाणु पनडुब्बियां काफ़ी तेज़ होती हैं और पारंपरिक पनडुब्बी के मुक़ाबले इनका पता लगा पाना काफ़ी मुश्किल होता है. ये महीनों तक पानी के नीचे रह सकती हैं, लंबी दूरी की मिसाइल छोड़ सकती हैं और भारी सामान और हथियार ले जा सकती हैं.
वॉशिंगटन में स्टिमसन सेंटर्स ईस्ट एशिया प्रोगाम के सह-निदेशक युन सन बीबीसी से कहते हैं, "तथ्य यह है कि परमाणु पनडुब्बी मिल जाने से ऑस्ट्रेलिया चीन से अधिक ताक़तवर नहीं हो जाएगा लेकिन इससे क्षेत्र में शक्ति का संतुलन बदल सकता है."
उन्होंने कहा, "अगर चीन दक्षिण चीन सागर या ताइवन स्ट्रेट में सुरक्षा से जुड़ी किसी परिस्थिति का सामना करता है तो यह चीनी सेना की तैयारियों और उसकी प्रतिक्रिया पर असर डालेगा."
विश्लेषकों के अनुसार, इस तरह की पनडुब्बी के ऑस्ट्रेलिया में होने से इस क्षेत्र में अमेरिका का प्रभाव आलोचनात्मक रूप से बढ़ सकता है.
लेकिन इसके तुरंत प्रभाव ये होंगे कि ऑस्ट्रेलिया और चीन के रिश्तों में यह समझौता ज़हर घोल देगा.
गुरुवार को चीन के सरकारी मीडिया में प्रकाशित कई लेखों में इस समझौते की निंदा की गई थी. ग्लोबल टाइम्स ने इससे भी बढ़कर यह दावा कर दिया था कि ऑस्ट्रेलिया 'चीन का दुश्मन बन गया है.'
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के निकलने के एक महीने के अंदर ही AUKUS का गठन हुआ है.
किंग्स कॉलेज लंदन के पचेको पार्दो को लगता है कि इन दोनों मामलों में कोई संबंध नहीं है लेकिन वो मानते हैं कि यह समझौता वॉशिंगटन को एक बड़ी उपलब्धि देगा कि वो सहयोगियों के साथ अपने रवैये की छवि को सुधारे. दरअसल अमेरिका पर उसके सहयोगियों ने आरोप लगाया था कि उसने बिना उनकी सलाह के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने का फ़ैसला किया था.
लेकिन विशेषज्ञ फ़ियरले नॉवेंस का मानना है कि यह साधारण तरीक़े से दिखाता है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र बाइडन प्रशासन की प्राथमिकताओं में शामिल है.
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