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अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की नई सरकार बनने में कहाँ फँसा है पेच?
- Author, सरोज सिंह
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की नई सरकार का नया रूप पिछले हफ़्ते ही दुनिया के सामने आने वाला था. लेकिन अब बताया जा रहा है कि सरकार बनाने में तालिबान को कुछ वक़्त और लगेगा.
नई सरकार के गठन को लेकर तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद से सोमवार को हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सवाल भी पूछा गया, लेकिन उनकी तरफ़ से कोई ठोस जवाब नहीं आया.
इस वजह से कहा जा रहा है कि नई सरकार के लिए अफ़ग़ानिस्तान की जनता और दुनिया को अभी और इंतज़ार करना होगा.
इस बीच कुछ ऐसी अहम ख़बरें आई, जिससे अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि सरकार गठन में कुछ अड़चनें आ रही हैं.
पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद शनिवार को काबुल पहुँचे. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ काबुल पहुँचने पर आईएसआई चीफ़ ने कहा, "फ़िक़्र मत कीजिए. यहाँ सब कुछ ठीक है."
लेकिन जब उनसे ये पूछा गया कि क्या वे तालिबान नेतृत्व से मिलेंगे तो उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत मंसूर अहमद ख़ान की तरफ़ देखते हुए कहा, "मैं अभी यहाँ पहुँचा ही हूँ. हम अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए काम कर रहे हैं."
आईएसआई प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद के काबुल पहुँचने के बाद से तालिबान की नई सरकार बनने में देरी के पीछे पाकिस्तान एंगल की चर्चा हो रही है.
पाकिस्तान एंगल
विदेश मामलों की वरिष्ठ पत्रकार और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की डिप्लोमेटिक एडिटर इंद्राणी बागची कहती हैं कि पुख़्ता तरीक़े से सरकार बनाने में देरी की वजह तो तालिबान के प्रवक्ता के अलावा कोई नहीं बोल सकता.
लेकिन वहाँ के मामलों पर पैनी नज़र रखते हुए इतना ज़रूर कह सकती हूँ, "तालिबान के अंदर गुटबाज़ी है, जिसको ख़त्म करने के लिए पाकिस्तान के आईएसआई चीफ़ पिछले दिनों काबुल में देखे गए."
"पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान मामले में कहता कुछ है और करता कुछ और है. फ़िलहाल अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता है, जो आने वाले दिनों में और बढ़ सकती है. ऐसे में पाकिस्तान ने वहाँ ज़बरदस्ती कर कोई सरकार बनवा भी दी, तो वो सरकार किस हद तक तालिबान के गुटों के बीच मतभेद को सुलझा पाएगी, ये देखना होगा."
इंद्राणी कहती हैं कि आईएसआई का तालिबान पर नियंत्रण और प्रभाव कितना है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है, कि किस तरह से खुले आम आईएसआई चीफ़ काबुल जा कर नई सरकार अफ़ग़ानिस्तान में बनवा रहे हैं.
वो आगे कहती हैं, "वैसे तो तालिबान के तमाम गुटों से आईएसआई के अच्छे संबंध हैं, लेकिन इनमें से भी तालिबान के हक़्कानी गुट को आईएसआई का सबसे क़रीब माना जाता है. ऐसे में आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद का नई सरकार के गठन के पहले काबुल पहुँचना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन दिलचस्प ज़रूर है. अब पाकिस्तान भी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के साथ अपनी भागीदारी छिपाने की कोशिश भी नहीं कर रहा है."
तालिबान के अंदर गुटबाज़ी
ऐसे में ये जानना ज़रूरी है कि आख़िर वो कौन से गुट हैं, जिनका झगड़ा सुलझाने के लिए आईएसआई चीफ़ काबुल पहुँचे हैं.
तालिबान की अंदरूनी गुटबाज़ी में तीन नाम प्रमुखता से सामने आ रहे हैं.
पहला मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर का है.
मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर उन चार लोगों में से एक हैं, जिन्होंने 1994 में तालिबान का गठन किया था. साल 2001 में जब अमेरिका के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान पर हुए आक्रमण में तालिबान को सत्ता से हटा दिया गया था, तब वो नेटो सैन्य बलों के ख़िलाफ़ विद्रोह के प्रमुख बन गए थे.
बाद में फ़रवरी 2010 में अमेरिका और पाकिस्तान के एक संयुक्त अभियान में उन्हें पाकिस्तान के कराची शहर से गिरफ़्तार कर लिया गया था और वो आठ साल पाकिस्तान की जेल में रहे.
साल 2018 में जब क़तर में अमेरिका से बातचीत करने के लिए तालिबान का दफ़्तर खुला, तो उन्हें तालिबान के राजनीतिक दल का प्रमुख बनाया गया. वो हमेशा से ही अमेरिका के साथ वार्ता का समर्थन करते रहे थे. वे अफ़ग़ानिस्तान के सभी युद्धों में तालिबान की तरफ़ से अहम भूमिका निभाते रहे और ख़ासकर हेरात और काबुल क्षेत्र में सक्रिय थे.
दूसरा नाम है हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा का. अख़ुंदज़ादा अफ़ग़ान तालिबान के नेता हैं, जो इस्लाम के विद्वान है और कंधार से आते हैं.
माना जाता है कि उन्होंने ही तालिबान की दिशा बदली और उसे मौजूदा हालत में पहुँचाया. फ़िलहाल तालिबान प्रमुख वही हैं. 1980 के दशक में उन्होंने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान के विद्रोह में कमांडर की भूमिका निभाई थी, लेकिन उनकी पहचान सैन्य कमांडर के मुक़ाबले एक धार्मिक विद्वान की ज़्यादा है.
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में बताया जा रहा है कि ईरान की शासन व्यवस्था की तर्ज़ पर नई तालिबान सरकार के मुखिया अख़ुंदज़ादा भी हो सकते हैं.
तीसरा नाम है हक़्क़ानी समूह के प्रमुख सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का. बताया जाता है कि काबुल पर तालिबान का क़ब्ज़ा होने में महत्वपूर्ण भूमिका सिराजुद्दीन हक़्क़ानी के भाई अनस हक़्क़ानी ने निभाई थी.
माना जाता है कि ये नेटवर्क अपने आप में बहुत ताक़तवर है और तालिबान के साथ होते हुए भी अपना एक अलग वजूद भी रखता है. आईएसआई के तालिबान के इस गुट के साथ बेहतर संबंध भी बताए जाते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची तालिबान की नई सरकार बनने में देरी के पीछे एक वजह, उनके अंदर की गुटबाज़ी को भी मानती हैं.
उनके मुताबिक़, तालिबान के भीतर ही मुल्ला बरादर और हक़्क़ानी गुट के बीच मतभेद हैं और लड़ाई चल रही है. वो कहतीं है कि कुछ रिपोर्ट्स ऐसी भी हैं कि दोनों गुटों की लड़ाई में मुल्ला बरादर जख़्मी भी हुए हैं. लेकिन इसकी स्वतंत्र तरीक़े से पुष्टि करना मुश्किल है."
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ईरान का बयान
पाकिस्तान एंगल और आपसी गुटबाज़ी के अलावा जानकार एक एंगल ईरान और चीन का भी मानते हैं.
5 सितंबर को ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने सरकारी टीवी चैनल को बयान देते हुए कहा, "अफ़ग़ानिस्तान में एक ऐसी सरकार होनी चाहिए, जो अफ़ग़ान नागरिकों की ओर से चुनी गई हो. अफ़ग़ान नागरिकों की चुनी गई सरकार का ईरान समर्थन करेगा."
ईरान की बात का चीन ने भी समर्थन किया. पाकिस्तान के विदेश मंत्री से दोनों देशों ने इस बारे में अपनी चिंताएँ भी साझा की हैं.
इन दोनों घटनाक्रम का ज़िक्र करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस की प्रोफ़ेसर डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं, "आज की तारीख़ में तालिबान को पाकिस्तान से ज़्यादा ज़रूरत ईरान और चीन की है. ऐसे में तालिबान ईरान की चिंता की अनदेखी नहीं कर सकता है. "
डॉ. स्वास्ति राव का मानना है कि नई सरकार के गठन में देरी के पीछे ये भी एक संभावित वजह है.
पंजशीर में लड़ाई
पंजशीर इलाक़े में तालिबान के ख़िलाफ़ विरोध और अस्थिरता भी सरकार बनने में देरी के पीछे तीसरी वजह है. हालाँकि तालिबान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर एक बार फिर दावा किया है कि पंजशीर पर उनका क़ब्ज़ा हो गया है लेकिन नॉर्दन एलायंस इन दावों को अब भी ख़ारिज़ कर रहा है.
ख़बरें हैं कि पंजशीर में दोनों के बीच सुलह-सफ़ाई के लिए बातचीत के ज़रिए रास्ता निकालने की कोशिश हो रही है.
दोनों जानकार मानते हैं कि पंजशीर में विरोध की वजह से तालिबान की नई हुकूमत का ध्यान उस तरफ़ भी बँटा हुआ है और सरकार बनाने में इस वजह से भी देरी हुई. अगर ये विरोध आज सुलझ जाता है, तो नई सरकार बनने में एक अहम अड़चन दूर हो जाएगी.
संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय दबाव
लेकिन राजनीतिक अड़चनों के अलावा नई सरकार के गठन में इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान में कई आर्थिक अड़चने भी हैं.
संयुक्त राष्ट्र के एक बयान के मुताबिक़, "अफ़ग़ानिस्तान में 18 लाख लोगों को गुजर बसर करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मदद की ज़रूरत है. वहाँ की एक तिहाई जनता को ये नहीं मालूम कि सुबह के बाद दोपहर का खाना उन्हें मिलेगा या नहीं. चार साल में दूसरी बार वहाँ भयंकर सूखा पड़ा है. पाँच साल से कम उम्र के आधे से ज़्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार है."
कुल मिला कर वहाँ के आर्थिक हालात बेहद चिंताचनक और गंभीर हैं. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान को ज़रूरत है अंतरराष्ट्रीय मदद और नई सरकार के मान्यता की.
संयुक्त राष्ट्र चाहता है कि तालिबान की नई सरकार में बच्चों और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो. इस मक़सद से संयुक्त राष्ट्र का एक प्रतिनिधिमंडल भी रविवार को काबुल पहुँचा है. वहाँ उन्होंने तालिबान नेता मुल्ला बरादर और उनके सहयोगियों के साथ मुलाक़ात भी की है.
जानकार मानते हैं कि तालिबान के नए नेताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की चिंताओं को भी नई सरकार में जगह देनी है. सरकार गठन में देरी की ये भी एक वजह है.
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