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ईरान में शुक्रवार को राष्ट्रपति चुनाव - कट्टरपंथी प्रत्याशी आगे पर क्या हैं मुद्दे?
- Author, विशाल शुक्ला
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
शिया मुस्लिम बहुल देश ईरान में चुनाव होने जा रहे हैं. 18 जून को वोटिंग है और जीतने वाला उम्मीदवार राष्ट्रपति बनने पर अगस्त महीने में कामकाज संभालेगा.
ईरान के इस चुनाव को लोकतांत्रिक सुधार, पश्चिमी देशों के साथ तकरार और ख़राब अर्थव्यवस्था की कसौटी पर परखा जा रहा है. आइए, जानते हैं इसका पूरा हाल.
कैसे होते हैं और कितने पारदर्शी हैं चुनाव?
ईरान में हर चार साल में फ़्रांसीसी चुनाव प्रणाली की तर्ज पर चुनाव होते हैं. पहले दौर के मतदान में अगर किसी उम्मीदवार को 50 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट नहीं मिले, तो दूसरे दौर में सबसे ज़्यादा वोट पाने वाले दो उम्मीदवारों के लिए वोट डाले जाते हैं.
मौजूदा राष्ट्रपति हसन रुहानी 2017 में दूसरी बार चुने जाने के बाद अपना दूसरा कार्यकाल ख़त्म कर रहे हैं, इसलिए संविधान के मुताबिक़ वो तीसरी बार कुर्सी हासिल करने के लिए चुनाव नहीं लड़ सकते.
ईरान में एक दशक से ज़्यादा वक़्त बितानेवाले राकेश भट्ट बताते हैं, "ईरान के इस्लामी गणराज्य की नियति का सर्वेसर्वा वहां का धर्मगुरु होता है, जिसे रहबर, पथप्रदर्शक या सर्वोच्च नेता की उपाधि से संबोधित किया जाता है. राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया का दायरा बहुत सीमित है. ईरान में जो लोग राष्ट्रपति चुनाव में उतरना चाहते हैं, उन्हें पहले आवेदन करना होता है. फिर ईरान में गार्जियन काउंसिल नाम की एक संस्था ये तय करती है कि कौन से उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे. गार्जियन काउंसिल की असल बागडोर भी सर्वोच्च नेता के हाथों में होती है."
ईरान में राष्ट्रपति चुनाव जीतनेवाले उम्मीदवार की नियुक्ति पर सर्वोच्च नेता के भी दस्तख़त होते हैं. ईरान का राष्ट्रपति गार्जियन काउंसिल की अध्यक्षता तो करता है, लेकिन उसे नियंत्रित नहीं करता है. ईरान की तमाम नीतियां में गार्जियन काउंसिल का दख़ल होता है.
चुनावों की पारदर्शिता पर राकेश कहते हैं, "कुछ देशों को छोड़ दें, तो दुनिया का हर देश अपनी शासन पद्धति में लोकतांत्रित कहलाना ही पसंद करता है. ईरान भी इससे अछूता नहीं है. लेकिन, सत्ता का चयन चुनाव से करा देने मात्र से कोई देश लोकतांत्रिक मान लिया जाता, तो क्या हम उत्तर कोरिया को लोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में रख सकते हैं? क़तई नहीं. लोकतंत्र का असली पैमाना देश के संस्थानों की स्वायत्तता और सत्ता से सवाल पूछने की आज़ादी ही होती है, जिसका ईरान में अभाव है."
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इस बार कौन-कौन लड़ रहा है चुनाव?
पहले की तरह इस बार भी 600 से ज़्यादा लोगों ने उम्मीदवारी के लिए नामांकन पत्र भरा था, लेकिन गार्जियन काउंसिल ने सिर्फ़ सात उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की मंज़ूरी दी. लेकिन इन सात में से दो उम्मीदवारों ने अपने नाम वापस ले लिए हैं. इनमें इकलौते सुधारवादी उम्मीदवार मोहसिन मेहरअलीज़ादे ने 16 जून को अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली. वहीं कट्टरपंथी उम्मीदवार अली रज़ा ज़ाकानी ने दूसरे कट्टरपंथी उम्मीदवार इब्राहिम रईसी के पक्ष में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली.
मैदान में बचे पांच प्रत्याशी हैं -
इब्राहिम रईसी, कट्टरपंथी नेता और ईरान के मुख्य न्यायधीश
मोहसिन रेज़ाई, IRGC के पूर्व कमांडर इन चीफ़
सईद जलीली, 2015 की परमाणु डील के एक नेगोशिएटर, सिक्यॉरिटी काउंसिल के सदस्य
अब्दुलनसर हिम्मती, ईरानी सेंट्रल बैंक के पूर्व प्रमुख
आमिर हुसैन ग़ाज़ीज़ादे हाशमी, संसद में डेप्युटी स्पीकर
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जब बात पश्चिमी देशों के साथ संबंधों की हो, तो ईरान की राजनीति में 'उदारवादी' उसे माना जाता है, जो 'कम रूढ़िवादी' होता है. सामाजिक आज़ादी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर जिनकी राय ज़्यादा 'उदारवादी' होती है, उन्हें 'सुधारवादी' कहा जाता है.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति-कूटनीति के जानकार और मध्य पूर्व के मामलों पर विशेष पकड़ रखनेवाले क़मर आग़ा कहते हैं, "ईरान की सियासत ने एक मोड़ लिया है. यहां का लोकतंत्र भारत-ब्रिटेन जैसा तो है नहीं. वोटिंग भी कम होती है. अभी तक हर चार-आठ साल में कट्टरपंथियों और उदारवादियों के बीच कुर्सी की अदला-बदली होती दिखती थी, लेकिन इस बार एक कट्टरपंथी उम्मीदवार का जीतना तय लग रहा है."
बीबीसी फ़ारसी सेवा के कसरा नाजी कहते हैं, "कम कट्टरपंथी उम्मीदवारों को रेस से बाहर किए जाने के क़दम ने ईरानी चुनाव को एक व्यक्ति के लिए मुफ़ीद बना दिया है. इससे चुने गए उम्मीदवारों में सबसे कट्टरपंथी इब्राहिम रईसी की जीत निश्चित हो गई है. चुनाव से पहले ही लग रहा है कि नतीजों का पूरा इंतज़ाम कर दिया गया है."
रईसी की जीत पक्की क्यों मानी जा रही है?
इब्राहिम रईसी ने 2017 में हसन रुहानी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था, जिसमें वो हार गए थे. उस चुनाव में रुहानी ने चेतावनी दी थी कि अगर रईसी चुनाव जीते, तो ईरानियों पर कट्टरपंथी इस्लामिक पाबंदियां थोपेंगे.' इस चुनाव में सबसे कट्टरपंथी उम्मीदवार होने की वजह से वो सबसे लोकप्रिय विकल्प बताए जा रहे हैं. इसका इशारा इससे भी मिलता है कि गार्जियन काउंसिल ने पहली बार इतनी तादाद में सुधारवादी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका है.
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कसरा नाजी कहते हैं, "रीवॉल्यूशनरी गार्ड समर्थित फ़ारस न्यूज़ एजेंसी का 'भरोसेमंद' ओपिनियन पोल बताता है कि इस बार 53 फ़ीसदी वोटिंग होगी और रईसी को 72 फ़ीसदी वोट मिलेंगे. उनके आगे कंज़रवेटिव वोट का बंटना बहुत मुश्किल है. रईसी मौलवियों के उस छोटे से समूह का हिस्सा हैं, जिसने 1988 में तत्कालीन सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह रुहोल्लाह खोमैनी के आदेश पर ईरान-इराक़ युद्ध के बाद बंदी बनाए गए हज़ारों राजनीतिक क़ैदियों को मारने के आदेश पर दस्तख़त कर दिए थे. तब वो तेहरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशन कोर्ट में एक प्रॉसिक्यूटर के ओहदे पर थे. इसके बाद अमेरिका ने रईसी पर प्रतिबंध लगा दिए थे."
ब्रितानी मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़ मारे गए क़ैदियों की तादाद पांच हज़ार से ज़्यादा थी. राकेश भट्ट बताते हैं कि रईसी के कट्टरपन के बारे में ईरान में प्रचलित है कि उनकी कलम सिर्फ़ फांसी लिखना जानती है.
इस बार ईरान में चुनाव के बहिष्कार की आवाज़ें भी ख़ूब उठ रही हैं. कमज़ोर अर्थव्यवस्था, भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और देश पर लगी कई पाबंदियों की वजह से कई वोटर्स का चुनाव से मोहभंग हुआ है. बीबीसी फ़ारसी सेवा के पोरिआ महरूयन बताते हैं, "पिछले चुनावों में कम वोटिंग का फ़ायदा कट्टरपंथियों और रूढ़िवादियों को मिला है. सरकार से जुड़ी ईरानी स्टूडेंट्स पोलिंग एजेंसी (ISPA) के मुताबिक़ इस बार सिर्फ़ 36% वोटिंग होगी और पोल में रईसी सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार बताए जा रहे हैं."
राकेश भट्ट कहते हैं कि भले समाज के कुछ हिस्सों में चुनावी बहिष्कार का चुपचाप प्रचार हो रहा हो, लेकिन गांव-देहात के समाज में इस तरह के प्रचार को अनदेखा ही किया जा रहा है. 2017 के चुनाव में यहां 42% वोटिंग हुई थी, जो ईरानी इतिहास के किसी चुनाव में सबसे कम वोटिंग थी.
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इस बार किन मुद्दों पर है चुनाव?
हसन रुहानी के पहले कार्यकाल में 2015 में अमेरिका और ईरान के बीच हुई परमाणु डील को उनकी बड़ी सफलता बताया गया, लेकिन विपक्षियों के मुताबिक़ वो इसका ज़्यादा फ़ायदा उठा नहीं पाए. लेकिन, 2018 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जब अमेरिका को डील बाहर निकालते हुए कई प्रतिबंध लाद दिए, तो धीरे-धीरे सुधार की राह पर बढ़ रही ईरानी अर्थव्यवस्था को ज़ोर का झटका लगा. इस चुनाव में सबसे ज़्यादा बात इन्हीं दोनों मुद्दों की हो रही है.
चुनाव के बायकॉट की मुहिम चला रहे लोग लोकतांत्रिक आज़ादी की बात करते हैं, क्योंकि यहां सरकार-विरोधी प्रदर्शनों पर डंडा ज़ोर का चलता है. 2017 से 2019 के बीच यहां विरोध प्रदर्शन में सैकड़ों लोग मारे गए थे. नवंबर, 2019 में पेट्रोल की बढ़ी हुई क़ीमतों का विरोध करने के लिए 100 से ज़्यादा शहरों में लोग सड़कों पर आ गए थे, तो सत्ताधारियों से कुर्सी छोड़ने की मांग कर रहे थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़ कुछ ही दिनों में 300 से ज़्यादा निहत्थे प्रदर्शनकारी सुरक्षाबलों के हाथों मार दिए गए थे.
पोरिआ महरूयन बताते हैं, "जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने से नेगोशिएशन शुरू होने की उम्मीद जगी थी, लेकिन ज़्यादातर कट्टरपंथी मानते हैं कि अमेरिका से बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकलेगा. वहीं सुधारवादी अमेरिका से बातचीत, FATF जैसे अंतरराष्ट्रीय एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग ऑर्गनाइज़ेशन जॉइन करने, सऊदी अरब और इसराइल से संबंध सुधारने की वक़ालत करते हैं. उधर चुनाव का बहिष्कार करनेवालों को लगता है कि अगला राष्ट्रपति कोई भी बने, उसके पास सुधार करने के ज़्यादा मौक़े होंगे नहीं."
अमेरिकी थिंकटैंक काउंसिल ऑफ़ फ़ॉरेन रिलेशंस के मुताबिक़, "2017 से ईरान की इकॉनमी बढ़ी नहीं है और 2020 में ये पांच फ़ीसदी सिकुड़ी है. कोरोना संक्रमण और इससे मौतों के मामले में भी ईरान बाक़ी के सभी खाड़ी देशों में सबसे आगे है. रईसी को 82 साल के ख़ामनेई का उत्तराधिकारी माना जाता है और वो पसंदीदा उम्मीदवार भी हैं, लेकिन जीतने पर ये शासन के वफ़ादार साबित होंगे और उनके पास ताक़त कम ही होगी."
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ईरान चुनाव का मध्य पूर्व, अमेरिका और भारत पर असर
इस सवाल पर राकेश भट्ट बताते हैं, "नि:संदेह ईरान में किसी भी बदलाव का असर मध्य पूर्व के देशों पर हमेशा पड़ता है. साथ ही, ये पश्चिमी दुनिया और ख़ासकर अमेरिका की नीतियों को भी प्रभावित करता है. मध्य पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को हम इस बात से जान सकते हैं कि दो बड़े देशों- सऊदी अरब और मिस्र को छोड़कर ईरान ने तमाम अरब देशों से मित्रता के रिश्ते क़ायम किए हैं. ईरान में कट्टरपंथी राष्ट्रपति के चुने जाने पर यमन में ईरानी प्रॉक्सी समूह अंसारुल्लाह को ईरान से अधिक सैन्य और आर्थिक सहायता मिलेगी, जो सऊदी अरब के लिए शुभ संकेत तो नहीं ही माना जाएगा. वहीं फ़लिस्तीनियों के इलाक़ों में हमास और इस्लामिक जिहाद जैसे संगठनों को मज़बूती मिलेगी, जिससे इसराइल की चिंता बढ़ना भी स्वाभाविक है."
वो कहते हैं, "ईरान में कट्टरपंथी राष्ट्रपति के हाथों में सत्ता का आना इराक़ और सीरिया में ईरानी रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का प्रभुत्व पहले से अधिक हो जाने के समान है, जिसका प्रभाव अमेरिका को भी परेशान ही करेगा और जिसका चीन और रूस स्वागत ही करेंगे. ईरान का चीन के साथ 25 साल का सामरिक समझौता और ईरानी सैन्य प्रगति के चलते मध्यपूर्व में अमरीका को अपने हितों की रक्षा करने के लिए नए सन्दर्भों में नीति निर्धारण करना होगा. इस बदले परिवेश में सैन्य वर्चस्व ही अकेला विकल्प नहीं माना जा सकता."
भारत-ईरान संबंधों के सवाल पर राकेश कहते हैं, "मध्यपूर्व ही नहीं, दक्षिण एशिया में स्थित अपने पडोसी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से ईरान की मित्रता का न सिर्फ़ अमेरिका, बल्कि भारत पर भी प्रभाव पड़ेगा. ईरान में कट्टरपंथी सत्ता के आगमन की छाया भारत पर भी अवश्य पड़ती दिखती है. चीन से बढ़ती प्रगाढ़ता और इस्लामी उसूलों के प्रति प्रतिबद्धता ईरान को मौजूदा भारतीय नीतियों का प्रशंसक तो बनाएगा नहीं. यूं तो इस्लामी ईरान भारत को अपने मित्र के रूप में ही देखता है, लेकिन भारत का अमेरिका की तरफ अत्यधिक झुकाव ईरान की कट्टर सत्ता को अखरेगा ही."
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ईरान में नतीजों के क्या होंगे मायने?
चुनावी नतीजों के बारे में क़मर आग़ा कहते हैं, "कट्टरपंथी और रूढ़िवादी नेता की जीत के मायने हैं कि ईरान रेज़िस्टेंट इकॉनमी की ओर बढ़ेगा. रेज़िस्टेंट इकॉनमी यानी अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़ुद तैयार करना. ऐसी सूरत में पश्चिमी देशों से पाबंदियां हटाने की उम्मीदें भी ज़्यादा नहीं होंगी. हालांकि, ईरान अपने पड़ोसी मुल्कों के मुक़ाबले कुछ विकसित और औद्योगिक देश है, लेकिन यूरोप से रिश्तों में किसी बेहतरी की गुंजाइश नहीं है. ईरान का अमेरिका के साथ परमाणु डील में लौटना संभवत: इस बात पर निर्भर करेगी कि उसे कितने तेल के निर्यात की इजाज़त दी जाती है. कई पाबंदियां लगी रहने की सूरत में विकल्प भी बहुत ज़्यादा नहीं होंगे."
क़मर आग़ा ये भी कहते हैं कि अगर कट्टरपंथी जीतते हैं, तो ईरान का सामाजिक बदलाव उदारवाद की ओर नहीं बढ़ेगा. उनकी नज़र में कोई विपक्षी नेता भी आज की तारीख़ में चुनौती देता नहीं दिखता. वो कहते हैं कि अब अगर वक़्त किसी को ऐसा नेता बना दे, तो अलग बात है.
कसरा नाजी कहते हैं कि रईसी का राष्ट्रपति बनना कई ईरानियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए चिंता की बात होगी. वहीं पोरिआ महरूयन कहते हैं कि 1997 से ईरान के चुनाव कट्टरपंथियों और सुधारवादियों के बीच पोलराइज़्ड होकर रह गए हैं. ऐसे में ईरान के राजनीतिक तंत्र को वैधानिकता देने के लिए बड़ी संख्या में वोटिंग ज़रूरी है.
वहीं राकेश भट्ट कहते हैं, "ईरानी समाज का चरित्र उग्र कभी भी नहीं रहा. भले ही वहां की सत्ता अपनी हठधर्मिता को इस समाज में भी देखना चाहती हो. इस्लामी क्रांति के बाद के ईरान में नरमपंथी और कट्टरपंथी सरकारें रहीं, लेकिन उनकी रहबरियत (पथप्रदर्शन) एक कट्टर धर्मगुरु के ज़रिए ही होती है, जिसके चलते किसी राष्ट्रपति में वो साहस नहीं हो सकता, जो लोगों के मत के प्रति वफ़ादारी कर सके."
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क्या ईरान को कट्टर रुख ही रास आता है?
अमेरिका से तनातनी हो, तुर्की से प्रतिद्वंदिता हो, सऊदी अरब से झगड़ा हो या इसराइल का विरोध हो... ईरान के सुर हमेशा कट्टरपंथी खेमे में ही दिखते हैं. लंबे समय तक इस रणनीति पर काम करने के बावजूद वो उदारवादी रवैया क्यों नहीं अपनाना चाहते?
इस सवाल के जवाब में क़मर आग़ा बताते हैं, "ईरान में धर्मगुरु का शासन है और हमने दुनिया के कई देशों में देखा है कि इस्लामी ताक़तों के सत्ता में आने पर उनका उदारवादी शक्तियों से संघर्ष होता है. सऊदी अरब भी इसका उदाहरण है. उदाहरण इस बात के भी हैं कि कैसे फ़ंडामेंटलिज़्म और रूढ़िवादी नीतियों से आर्थिक समस्या पैदा होती है."
क़मर आग़ा कहते हैं, "ईरान के अंदर फ़ारसी राष्ट्रवाद बहुत गहरे धंसा हुआ है, जिसे धार्मिक राष्ट्रवाद के साथ ख़ूब प्रमोट किया जाता है. उनके अंदर अपनी हज़ारों साल पुरानी सभ्यता पर गर्व की भावना है. वहां नवरोज़ आज भी अपने असली स्वरूप में मनाया जाता है."
अमेरिका के साथ डील में ईरान के लौटने के कूटनीतिक प्रयास तो शुरू हो ही गए हैं. अब इस चुनाव से ये और तय हो जाएगा कि कम से कम अगले चार साल ईरान में क्या होने वाला है.
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