पाकिस्तान के ज़िया-उल-हक़ क्या 1970 में 'फ़लस्तीनियों के जनसंहार' में शामिल थे?

    • Author, आबिद हुसैन
    • पदनाम, बीबीसी उर्दू, इस्लामाबाद

लगभग सात दशकों से चल रहे फ़लस्तीनी-इसराइली संघर्ष में आमतौर पर फ़लस्तीनी अरबों ने इसराइल की सेना का सामना किया है. लेकिन लगभग 51 साल पहले, फ़लस्तीन की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वालों ने मुस्लिम देश जॉर्डन के ख़िलाफ़ भी एक युद्ध लड़ा था, जिसमें उन्हें भारी जान-माल का नुक़सान उठाना पड़ा था.

लेकिन हमारे अधिकांश पाठक शायद यह नहीं जानते होंगे कि इस युद्ध में पाकिस्तान के एक सैन्य अधिकारी की भी अहम भूमिका थी.

यह बात 1970 में 16 सितंबर से 27 सितंबर तक चले उस युद्ध की है, जिसे इतिहास में 'ब्लैक सितंबर' के नाम से याद किया जाता है.

बाद में कई पर्यवेक्षकों ने लिखा कि जॉर्डन के शासक शाह हुसैन को इस युद्ध में निर्णायक सलाह देने वाले पाकिस्तान के भावी सैन्य तानाशाह ज़िया-उल-हक़ थे. उन्हीं की सलाह से जॉर्डन की सेना को युद्ध जीतने में मदद मिली.

ज़िया-उल-हक़ उस समय जॉर्डन में क्या कर रहे थे और उस युद्ध में उनकी क्या भूमिका थी?

इसराइल के ख़िलाफ़ 1967 में होने वाले छह दिवसीय युद्ध में हार के बाद जॉर्डन में स्थिति बहुत तनावपूर्ण थी. मिस्र और सीरिया के साथ, जॉर्डन को भी इस युद्ध में भारी नुक़सान हुआ था. वह यरूशलम, ग़ज़ा और पश्चिमी तट जैसे क्षेत्रों से हाथ धो बैठा था.

ऐसे में फ़लस्तीनी "फ़िदायीन" ने पश्चिमी तट से लगे क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और समय-समय पर इसराइल के क़ब्ज़े वाले सीमा क्षेत्रों पर सफल हमले किए, जिससे उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई. इसकी वजह से उन्हें सीरिया और इराक़ का समर्थन भी मिलने लगा.

इस स्थिति को देखते हुए, जॉर्डन के प्रमुख शाह हुसैन ने अपने पाकिस्तानी मित्र ब्रिगेडियर ज़िया-उल-हक़ से मदद माँगी, जो उस समय ओमान में पाकिस्तानी दूतावास में डिफेंस अटैचे की ड्यूटी निभा रहे थे.

लेखक और रिसर्चर तारिक़ अली ने अपनी किताब 'द डॉयल' में लिखा है कि ज़िया-उल-हक़ अमेरिका से अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद देश वापस आये तो उन्हें जॉर्डन भेज दिया गया, जिसने हाल ही में छह-दिवसीय युद्ध में शर्मिंदगी उठाई थी.

इस बात की पुष्टि करते हुए अमेरिका की सीआईए के एक पूर्व अधिकारी ब्रूस रिडेल ने अपनी किताब 'व्हाट वी वोन' में लिखा है कि ज़िया-उल-हक़ तीन साल पहले जॉर्डन आये थे. उनकी ज़िम्मेदारी थी कि पाकिस्तान और जॉर्डन की सेनाओं के बीच सैन्य मामलों पर आपसी संबंध बढ़ाएं और जॉर्डन में होने वाली घटनाओं की रिपोर्ट वापिस पाकिस्तान भेजें.

लेकिन ब्रिगेडियर ज़िया-उल-हक़ ने इससे बढ़कर ज़िम्मेदारियाँ निभाईं. इसका उल्लेख उस समय जॉर्डन में मौजूद सीआईए के अधिकारी जैक ओकोनेल ने अपनी किताब 'किंग्स काउंसिल' में किया है.

जैक ओकोनेल, जिन्होंने स्वयं लाहौर की पंजाब यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए दो साल बिताए थे, लिखते हैं कि "साल 1970 में, जब सीरियाई सेना, जॉर्डन पर हमला करने के लिए टैंक लेकर आ गई और जॉर्डन को अमेरिका की तरफ़ से सहायता के बारे में कोई जवाब नहीं मिला, तो शाह हुसैन की चिंताएं बढ़ गईं."

इस विकट स्थिति को देखते हुए, शाह हुसैन ने अपने 'मित्र' ज़िया-उल-हक़ से सीरियाई मोर्चे का दौरा करने और उन्हें ज़मीनी स्थिति से अवगत कराने का अनुरोध किया.

जैक ओकोनेल लिखते हैं कि जब ज़िया-उल-हक़ से जॉर्डन के अधिकारियों ने स्थिति के बारे में पूछा, तो उन्होंने जवाब में कहा कि "स्थिति बहुत ख़राब हैं."

ब्रूस रिडेल ने अपनी किताब के चौथे अध्याय में लिखा है कि इस अवसर पर ज़िया-उल-हक़ ने शाह हुसैन को सीरियाई सेना के ख़िलाफ़ जॉर्डन की वायु सेना का उपयोग करने की सलाह दी और "यही वह निर्णय साबित हुआ जिसके कारण जॉर्डन युद्ध जीतने में कामयाब हुआ."

'ब्लैक सितंबर' में ज़िया-उल-हक़ की भूमिका के बारे में सबसे महत्वपूर्ण गवाही शाह हुसैन के भाई और तत्कालीन क्राउन प्रिंस हसन बिन तलाल ने ब्रूस रिडेल से बात करते हुए दी थी.

ब्रूस रिडेल लिखते हैं कि प्रिंस हसन बिन तलाल ने उन्हें अप्रैल 2010 में बताया था कि "ज़िया-उल-हक़ शाह हुसैन के मित्र और विश्वासपात्र थे." शाही परिवार इस युद्ध में उनकी मदद के लिए बहुत शुक्रगुज़ार था, जिसमें उनकी उपस्थिति इतनी महत्वपूर्ण थी कि वह लगभग सेना का नेतृत्व कर रहे थे.

ब्रूस रिडेल के अनुसार, "ज़िया-उल-हक़ की इस कार्रवाई ने पाकिस्तान के अधिकारियों को नाराज़ कर दिया, क्योंकि यह स्पष्ट था कि ज़िया-उल-हक़ ने जॉर्डन सेना के साथ लड़ाई में शामिल होकर अपनी राजनयिक ज़िम्मेदारियों और आदेशों का उल्लंघन किया था."

लेकिन इन सेवाओं का बदला ज़िया-उल-हक़ को शाह हुसैन की तरफ़ से की गई सिफ़ारिश के रूप में मिला, जिन्होंने ज़िया-उल-हक़ की ब्लैक सितंबर युद्ध की उपलब्धियों के बारे में पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को आगाह किया. जिसके बाद प्रधानमंत्री भुट्टो ने ज़िया-उल-हक़ को ब्रिगेडियर से मेजर जनरल के पद पर पदोन्नत कर दिया.

बाद में, ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के पूर्व सलाहकार राजा अनवर ने अपनी किताब 'द टेररिस्ट प्रिंस' में प्रधानमंत्री भुट्टो के ग़लत फ़ैसलों के बारे में लिखा, कि अगर शाह हुसैन उस अवसर पर ज़िया-उल-हक़ की सिफ़ारिश न करते तो निश्चित रूप से ज़िया-उल-हक़ का सैन्य कैरियर ब्रिगेडियर के रूप में ही समाप्त हो जाता.

"कहा जाता है कि ज़िया-उल-हक़ ने ब्लैक सितंबर नरसंहार में भाग लिया था और अपनी सैन्य और राजनयिक ज़िम्मेदारियों की उपेक्षा की और नियमों का उल्लंघन किया था."

"लेकिन शाह हुसैन की सिफ़ारिश ने शायद प्रधानमंत्री भुट्टो को यह संकेत दिया कि ज़िया-उल-हक़ उनके प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं."

क्या "ब्लैक सितंबर" के दौरान फ़लस्तीनियों के "नरसंहार" में भी ज़िया-उल-हक़ शामिल थे?

आधिकारिक तौर पर, यह युद्ध 16 सितंबर से 27 सितंबर तक चला, जिसके बाद अगले साल जुलाई तक छोटे पैमाने पर झड़पें होती रहीं.

विभिन्न संदर्भों और ब्रूस रिडेल सहित विभिन्न विश्लेषकों का अनुमान है कि इस लड़ाई में तीन से चार हज़ार फ़लस्तीनी फ़िदायीन मारे गए थे, जबकि लगभग 600 सीरियाई सैनिक मारे गए थे और जॉर्डन के 537 सैन्यकर्मी हताहत हुए थे.

लेकिन इसके साथ-साथ दूसरे पक्ष पर नज़र डालें तो फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के हवाले से कहा गया था कि बड़ी संख्या में फ़िदायीन को नुक़सान हुआ था, जिसकी संख्या 20 से 25 हज़ार के बीच थी.

पाकिस्तान फ़लस्तीनियों के संघर्ष में उनके साथ खड़ा दिखा है. ताज़ा घटनाक्रम में भी दुनियाभर के कई दूसरे देशों की तरह पाकिस्तान में भी फ़लस्तीन के समर्थन में बहुत से प्रदर्शन किये गए, जिनमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए.

इसी तरह, ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान की तरफ़ से भी फ़लस्तीन का समर्थन करने और इसराइल का विरोध करने की पाकिस्तान की नीति को अटूट माना गया है.

अतीत में, जब भी इसराइल के साथ राजनयिक संबंधों को फिर से शुरू करने का कोई संकेत मिला है, तो उस पर तीखी बहस और आलोचना सुनने को मिली है और इसे फ़लस्तीनियों के साथ विश्वासघात माना गया है.

लेकिन इसका एक एक दूसरा पहलू भी है.

तारिक़ अली ने अपनी पुस्तक 'द डॉयल' में प्रसिद्ध इसराइली जनरल मोशे दायान से जुड़ा बयान दोहराते हुए लिखा है कि "शाह हुसैन ने 11 दिन में जितने फ़लस्तीनी मारे उतने तो इसरायल 20 वर्षों में भी नहीं मार सकता."

इसी तरह, वामपंथी झुकाव वाले भारतीय पत्रकार और इतिहासकार विजय प्रसाद अपने 2002 में लिखे एक लेख में लिखते हैं कि "शाह हुसैन ने ज़िया-उल-हक़ की मदद से फ़लस्तीनियों को हराने के लिए एक ख़ानाबदोश सेना भेजी और इसके बाद एक ऐसा नरसंहार हुआ जिसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता है."

लेकिन इसके बिल्कुल विपरीत पक्ष, आज से 11 साल पहले एक पूर्व पाकिस्तानी राजनयिक ने रखा, जो उस समय यानी सितंबर 1970 में जॉर्डन में तैनात थे.

अगस्त 2010 में अंग्रेज़ी अख़बार द न्यूज़ में प्रकाशित अपने एक लेख में पूर्व राजदूत तैय्यब सिद्दीक़ी ने लिखा था कि "छह दिवसीय युद्ध में हार के बाद, विभिन्न अरब देशों ने पाकिस्तान से सैन्य सहायता और प्रशिक्षण का अनुरोध किया था. जिसके बाद पाकिस्तान ने जॉर्डन, सीरिया और इराक़ में अपने अधिकारियों को भेजा था."

तैय्यब सिद्दीक़ी लिखते हैं कि जॉर्डन भेजे गए लोगों में तीनों सेनाओं के 20 उच्च अधिकारी शामिल थे, जिनकी अध्यक्षता थल सेना के मेजर जनरल नवाज़िश अली कर रहे थे और ज़िया-उल-हक़ उनके डिप्टी थे.

तैय्यब सिद्दीक़ी लिखते हैं कि बाद में शाह हुसैन के अनुरोध पर पाकिस्तान वायु सेना की भी एक रेजिमेंट जॉर्डन पहुँच गई. लेकिन इस पूरी टीम का मैंडेट केवल जॉर्डन की सेना को प्रशिक्षित करना था न कि किसी भी तरह के युद्ध में भाग लेना.

तैय्यब सिद्दीक़ी ने अपने लेख में आगे लिखा है कि "पाकिस्तानी राजदूत और फ़ौजी दस्ते के प्रमुख की अनुपस्थिति में, वह दूतावास का नेतृत्व कर रहे थे. जब दो सितंबर को उन्हें ज़िया-उल-हक़ का फ़ोन आया, उन्होंने कहा कि शाह हुसैन ने सीरियाई सीमा के पास इरबिद शहर में, उन्हें सैन्य डिवीज़न का नेतृत्व करने के लिए कहा है, क्योंकि जॉर्डन का कमांडर मैदान छोड़ कर भाग गया है."

तैय्यब सिद्दीक़ी आगे लिखते हैं, "मैंने तुरंत रक्षा सचिव ग़यासुद्दीन को फ़ोन किया और उन्हें मामले के बारे में बताया, तो उन्होंने बिना किसी झिझक के अनुमति दे दी. मैंने अपनी आपत्ति जताने की कोशिश की, तो उन्होंने मुझे रोकते हुए कहा, 'हमने इस्तिख़ारा कर लिया है.' हाशमी साम्राज्य का सितारा बुलंद हो रहा है. बादशाह के निर्देशों का पालन करो."

तैय्यब सिद्दीक़ी के अनुसार, ज़िया-उल-हक़ ने सैन्य दस्ते की कमान संभाल ली, लेकिन कोई सैन्य अभियान शुरू होने से पहले ही, सीरिया ने अमेरिका और इसराइल के दबाव में आकर अपनी सेना को वापस बुला लिया.

वह लिखते हैं कि "कथित फ़लस्तीनी नरसंहार में ज़िया-उल-हक़ की कुल भूमिका इतनी ही थी."

तैय्यब सिद्दीक़ी ने अपने लेख के अंत में लिखा है कि "आमतौर पर यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि ज़िया-उल-हक़ हज़ारों फ़लस्तीनियों की हत्या में शामिल थे और उसके बाद यासिर अराफ़ात ने निश्चय किया था कि वह कभी भी पाकिस्तान नहीं जाएंगे."

"लेकिन इस बात का वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. यासिर अराफ़ात बाद में कई बार पाकिस्तान के दौरे पर गए."

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