क्या भारत से संबंधों को लेकर पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष 'निक्सन चाइना सिंड्रोम' से पीड़ित हैं?

    • Author, उमर फ़ारूक़
    • पदनाम, रक्षा विश्लेषक

ऐतिहासिक तौर पर ऐसा क्यों है कि पाकिस्तान के सभी सैन्य शासक भारत के साथ राजनयिक संबंध ठीक करने की इच्छा और कोशिश में सिविलियन शासकों से आगे रहे हैं. लेकिन उन्हें कभी भी इस कोशिश के लिए किसी नकारात्मक सार्वजनिक राय या प्रतिक्रिया का सामना नहीं करना पड़ा?

चाहे वह भारत के साथ संयुक्त रक्षा समझौते की पेशकश हो, कूटनीतिक संबंध चलाने हों या भारत के साथ चरणबद्ध तरीक़े से बातचीत शुरू करने की प्रक्रिया हो. पिछली घटनाओं से पता चलता है कि पाकिस्तानी सैन्य शासकों ने किसी भी बारे में सार्वजनिक राय या राज्य मशीनरी की उलझन या जवाबी प्रतिक्रिया की ज़रा भी परवाह नहीं की.

अय्यूब ख़ान, जनरल ज़िया और जनरल परवेज़ मुशर्रफ़, सभी भारत के साथ सर्वोच्च स्तर पर कूटनीतिक मामले निपटाने में शरीक रहे हैं. लेकिन कभी भी इन पर कोई भड़काऊ सार्वजनिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई.

पहले अय्यूब ख़ान ने संयुक्त रक्षा समझौते की पेशकश की थी. इसके बाद जनरल ज़िया भारत के 'ब्रास टैक्स' सैन्य अभ्यास से उत्पन्न होने वाले, सैन्य तनाव को समाप्त करने के लिए आगे आए. वह (जनरल ज़िया) क्रिकेट कूटनीति (यानी क्रिकेट कूटनीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने) के उच्चतम मुद्दे के साथ सामने आए.

जनरल मुशर्रफ़ एक कदम और आगे निकल गए. मुशर्रफ़ और वाजपेयी का संयुक्त बयान कुछ इस तरह लिखा गया था, कि "राष्ट्रपति (परवेज़) मुशर्रफ़ ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को आश्वासन दिया है कि वह पाकिस्तान के नियंत्रण में किसी भी क्षेत्र का, किसी भी तरह से, आतंकवादियों के समर्थन करने के लिए इस्तेमाल नहीं होने देंगे."

पाकिस्तान के सैन्य शासक अपने कार्यकाल में, हर बार भारत को शांति पेशकश करने में सफल क्यों होते हैं और इस पर कोई राजनीतिक प्रतिक्रिया क्यों नहीं होती है? राजनीतिक विशेषज्ञ इस पहेली की तुलना 'निक्सन चाइना सिंड्रोम' से करते हैं.

इस शब्द का प्रयोग अमेरिका के राजनीतिक और कूटनीतिक हलक़ों में निक्सन के परिचय के रूप में किया जाता है. जो एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी के रूप में लोकप्रिय थे और चीन को कम्युनिस्ट शक्ति के रूप में, सीमित रखने की कोशिश करते रहते थे.

निक्सन चाइना सिंड्रोम क्या है और यह पाकिस्तानी नेताओं पर कैसे लागू होता है?

सन 1950 और 1960 का दशक ऐसा दौर था, जब अमेरिकी समाज में कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ बदले की भावना में बढ़ोतरी हुई.

इस संबंध में, रिचर्ड निक्सन, कम्युनिस्ट विरोधी अभियान चलाने वाले एक स्टार और हीरो के रूप में उभरे. बाद में, जब वे राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने कम्युनिस्ट चीन से दोस्ती का हाथ बढ़ाया और अंततः बीजिंग का दौरा भी किया.

इस प्रकार अमेरिकी राजनीति का ये मुहावरा बन गया, कि 'निक्सन चीन गए' या 'निक्सन चाइना सिंड्रोम'. जिससे यह पता चलता है कि निक्सन जैसा कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी भी चीन जा सकता हैं और वास्तविक राजनीतिक कारणों या तर्क पर गठबंधन बना सकते हैं.

अमेरिकी समाज में, निक्सन को इतने कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी के रूप में देखा जाता था, कि किसी कम्युनिस्ट शक्ति से दोस्ती के क़दम को उनकी राजनीतिक चाल समझ कर उस पर कोई भी सवाल नहीं उठता था. और आमतौर पर यह माना जाता था कि इसके पीछे ज़रूर कोई राजनीतिक तर्क होगा.

ज़िया के बाद, पाकिस्तान के एकमात्र राजनेता जिन्हें 'निक्सन चाइना सिंड्रोम' के फल का आनंद लेने का सौभाग्य मिला, वे पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ थे. उनका यह (निक्सन चीन चला गया) समय 1997 के शुरुआती महीनों में शुरू हुआ, जब वह चुनाव प्रचार कर रहे थे. उन्होंने दावा किया था कि इस बार सत्ता में आने के बाद, वह पहला काम भारत के साथ संबंधों को सुधारने का करेंगे.

नवाज़ शरीफ ने नेशनल असेंबली (निचले सदन) में दो-तिहाई बहुमत हासिल किया और दक्षिणपंथी धार्मिक दल न होने के बराबर रह गए. ये दक्षिणपंथियों के वो धार्मिक दल थे, जिन्होंने भारत के साथ दोस्ती की पेशकश का विरोध किया था.

सत्ता में आने के दो साल के भीतर, तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ द्वारा शुरू की गई 'बैक चैनल' कूटनीति का फल मिलना शुरू हो गया. और तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी फ़रवरी 1999 में ऐतिहासिक बस यात्रा पर लाहौर आए.

लाहौर शिखर सम्मेलन के परिणामस्वरूप, दोनों देशों के बीच 'स्ट्रक्चरड' बातचीत बहाल हो गई. दक्षिणपंथी धार्मिक समूह एक बार फिर इस कूटनीतिक क़दम को ख़राब करने के लिए सामने आए. पर्यवेक्षकों का कहना है कि सेना ने इस अवसर को ख़राब करने की पूरी कोशिश की.

हालांकि, कोई भी रणनीति कारगर साबित नहीं हो सकी और नवाज़ शरीफ़ की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई थी. प्रधान मंत्री के रूप में उनके तीसरे कार्यकाल में, उन्हें पाकिस्तान में भारतीय हितों के लिए काम करने वाले व्यक्ति के रूप में पेश किया जाने लगा था.

अय्यूब ख़ान के दौर में भारत के साथ संबंधों को सुधारने के प्रयास

पाकिस्तानी सैन्य शासकों को इस तरह के आरोपों और शीर्षकों से हमेशा छूट मिली है. यही कारण है कि उन्होंने हमेशा व्यापक और लचीले लक्ष्यों के साथ बड़ी आसानी और सहजता से सर्वोच्च राजनयिक स्तर पर क़दम उठाए हैं.

पाकिस्तान के पहले कमांडर-इन-चीफ़ और सैन्य शासक जनरल अय्यूब ख़ान की ट्रेनिंग ब्रिटिश सैन्य परंपरा के अनुसार हुई थी. और उनके पास उपमहाद्वीप की रक्षा के लिए अपने ब्रिटिश पूर्ववर्तियों की रणनीतिक दृष्टि थी.

उपमहाद्वीप के विभाजन के समय, ब्रिटिश जनरल स्टाफ़ का मानना था कि उपमहाद्वीप की रक्षा और रणनीति के संदर्भ में, ब्रिटिश भारतीय सेना का विभाजन बिल्कुल भी बुद्धिमानी नहीं था. क्योंकि इसके लिए पाकिस्तान और भारत दोनों के संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता होगी. ऐसा लगता है कि विभाजन के बाद भी, जनरल अय्यूब ख़ान पर इसी धारणा का प्रभाव रहा, क्योंकि मई 1959 में, अय्यूब ख़ान ने 'भारत और पाकिस्तान के बीच उपमहाद्वीप की संयुक्त रक्षा की ढीली सी व्यवस्था' का प्रस्ताव रखा था.

नेहरू ने इस पर तत्काल प्रतिक्रिया दी और अपनी सरकार में नापसंद होने का हवाला देते हुए, संयुक्त सुरक्षा समझौतों के पाकिस्तानी क़दम को ख़ारिज कर दिया. अय्यूब ख़ान की पेशकश के कुछ ही दिनों बाद चार मई, 1959 को भारतीय संसद को संबोधित करते हुए भारतीय नेता ने कहा था, "हम किसी भी क़ीमत पर किसी अन्य देश के साथ सैन्य गठबंधन का प्रस्ताव नहीं देते हैं."

बाद में, जब भारतीय सेना को 1962 में चीन के हाथों "अपमानजनक हार" का सामना करना पड़ा था. उन दिनों प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने वाले अमेरिकी अधिकारियों का कहना है, कि "उन्होंने दक्षिण एशिया में कम्युनिस्ट या चीनी ख़तरे से निपटने के लिए, पाकिस्तान और भारत के संसाधनों का एक साथ उपयोग करने के तर्क को स्वीकार किया.

भारत के उत्तर में चीनी सेना के आगे बढ़ने के बाद, भारत और नेहरू बहुत दबाव में थे. अमेरिका पाकिस्तानी सैन्य सरकार को यह समझाने की कोशिश कर रहा था, कि "चीन के ख़तरे को देखते हुए भारत की हार पाकिस्तान के हित में नहीं होगी." हालांकि, अय्यूब ख़ान बेहद नाराज़ थे कि उनके पश्चिमी सहयोगी, ब्रिटेन और अमेरिका, दोनों चीन के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए भारत को सशत्र कर रहे थे और उसकी क्षमता को बढ़ा रहे थे.

पाकिस्तान की राजधानी ने भारत में चीनी सैन्य ख़तरे के परिणामस्वरूप होने वाली घटनाओं को, कश्मीर को भारतीय चंगुल से छीनने के अवसर के रूप में देखा. हालाँकि, अय्यूब ख़ान ने यह नहीं किया बल्कि इसके विपरीत, अमेरिका और भारत की सलाह को मान कर, कश्मीर विवाद पर भारत के साथ बातचीत शुरू कर दी.

पाकिस्तान और भारतीय विदेश मंत्रियों के बीच चार दौर की बातचीत के बवजूद, दोनों देश कश्मीर विवाद को हल नहीं कर सके. अमेरिकी राजनयिकों ने वाशिंगटन सूचना भेजी कि (जैसे कि पॉल मैग्रा की किताब 'उत्तरी एशिया में शीत युद्ध' में हवाला दिया गया है) अय्यूब ख़ान देश के अंदर राजनीतिक समूहों के दबाव में आ रहे हैं, जो कश्मीर पर भारत के साथ वार्ता को निरर्थक मानते हैं. लेकिन अय्यूब ख़ान ने इस आंतरिक तूफ़ान का सामना करते हुए, भारत को चीनी सेना से होने वाले गंभीर ख़तरे के मुक़ाबले में रिलीफ़ मुहैय्या कराया.

मैग्रा के अनुसार, अमेरिकी प्रशासन अमेरिका के लिए यह समस्या थी कि उसने भारत के उत्तर में, चीनी सैन्य हस्तक्षेप के मद्देनज़र भारत को हथियारों की आपूर्ति करने का निर्णय लिया था. लेकिन इस निर्णय के बाद, वह अपने सैन्य सहयोगी पाकिस्तान को ख़ुश करना चाहता था.

अय्यूब ख़ान चाहते थे कि अमेरिकी इस सैन्य सहायता को एक चाल के तौर पर इस्तेमाल करे और नई दिल्ली को राज़ी करे, कि वो पाकिस्तान के साथ कश्मीर पर समझौते के लिए तैयार हो जाए. अमेरिका ने ऐसा नहीं किया. हालाँकि अय्यूब ख़ान ने भारत के साथ बातचीत जारी रखी.

जनरल ज़िया-उल-हक़ और क्रिकेट डिप्लोमेसी

1986 की अंतिम तिमाही में, भारतीय सेना ने उपमहाद्वीप के इतिहास में 'ब्रास टैक्स' के नाम से सबसे बड़ा डिवीज़न-कोर स्तर का सैन्य अभ्यास शुरू किया. पाकिस्तान ने भारत के इस क़दम को एक धमकी के रूप में लिया. उनका मानना था कि यह सैन्य अभ्यास पाकिस्तान के राजनीतिक रूप से अस्थिर सिंध प्रांत पर एक बड़े हमले में बदल सकता है, क्योंकि उनका रुख़ पाकिस्तान की तरफ़ था.

पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम अभी तक प्रारंभिक स्तर में था और पाकिस्तान अपनी परमाणु क्षमता प्राप्त करने और घोषित करने से कम से कम 12 साल दूर था. उस समय, ब्रास टैक्स को पाकिस्तान के अस्तित्व और सुरक्षा के लिए एक रणनीतिक ख़तरे के रूप में देखा गया था.

पाकिस्तान और भारतीय सेनाएं एक-दूसरे के आमने-सामने थीं. राजस्थान और पंजाब की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर दोनों सेनाएं आंखों में आंखें डाले एक दूसरे के सामने खड़ी थीं. सीमा के दोनों तरफ़ हमला करने के अंदाज़ में थल सेना तैनात की जा रही थी. वायु सेना पहले से ही हाई अलर्ट पर थी और आर्म्ड डिवीज़न सीमा के क़रीब पहुँच रही थी.

भारतीय सैन्य अभ्यास से पाकिस्तान ने अपने अस्तित्व और अखंडता के लिए ख़तरा महसूस किया. इस संकट को आमतौर पर ब्रास टैक्स क्राइसिस के नाम से ही जाना जाता है, जो शोधकर्ताओं के बीच बहुत विद्वतापूर्ण बहस का विषय रहा है. लेकिन शायद ही कोई इस पर असहमत हो कि इस ख़तरे ने ही, पाकिस्तान के सुरक्षा योजनाकारों को जल्द परमाणु विकल्प विकसित करने के लिए गंभीरता से काम करने पर मजबूर किया.

इस्लामाबाद और नई दिल्ली दोनों तरफ़ अफ़रातफ़री मची हुई थी. क्योंकि ज़ाहिरी तौर पर जंग सर पर खड़ी थी. दोनों तरफ़ की राजधानियों में युद्ध उन्माद था.

पाकिस्तान में भारत-विरोधी भावनाएं चरम सीमा पर थीं, फिर भी जनरल ज़िया चार फ़रवरी, 1987 को भारत के शहर जयपुर में भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाला क्रिकेट मैच देखने गए. और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी से सैन्य तनाव कम करने के लिए मुलाक़ात की.

ज़िया और राजीव दोनों सैन्य तनाव कम करने के लिए विश्वास-निर्माण के उपायों पर सहमत हुए. सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि जयपुर में 'राजीव-ज़िया' सम्मेलन का संबंध तनावों को हल करने के बारे में नहीं था, बल्कि यह संकेत देने के लिए था कि संकट ख़त्म हो गया है. लेकिन पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख द्वारा सैन्य तनाव की समाप्ति के संकेत के रूप में यह एक असामान्य क़दम था. हालाँकि उस समय पाकिस्तान की जनता भारत विरोधी भावनाओं में जकड़ी हुई थी.

विपक्षीय दलों की तरफ़ से इस क़दम की तीखी आलोचना हुई , लेकिन ज़िया इस तूफ़ान से बच निकले.

सैन्य तनाव को समाप्त करने के लिए ज़िया ने असामान्य क़दम क्यों उठाया?

इसका जवाब ढूंढना ज़्यादा मुश्किल नहीं है: पाकिस्तान अभी तक परमाणु शक्ति नहीं बना था और पूर्वी सीमा पर बहुत मज़बूत और बड़ी सैन्य शक्ति से ख़तरा था.

ऐसी स्थिति में, भारतीय नेतृत्व के साथ सामंजस्य स्थापित करने और यात्रा करने के लिए सभी राजनयिक साधनों का उपयोग करना समझदारी थी.

मुशर्रफ़ ने 'निक्सन चाइना सिंड्रोम' का उपयोग कैसे किया?

12 अक्टूबर, 1999 की रात को, जब जनरल मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख के रूप में मार्शल लॉ लागू किया. उस समय पाकिस्तानियों और क्षेत्रीय राजधानियों में उनकी 'छवि' भारत के कारगिल हिल्स को छीनने के लिए हमला करने वाले सिपाही के रूप में ताज़ा थी. हालाँकि, उन्होंने यू-टर्न लेते हुए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने के लिए, जुलाई 2001 में भारत के आगरा शहर में होने वाले शिखर सम्मेलन में भाग लिया.

यह वह समय था जब पाकिस्तान चरमपंथ के ख़िलाफ़ अमेरिकी युद्ध में अग्रिम पंक्ति का राज्य बन गया था. मुशर्रफ़ ने पाकिस्तानी समाज में चरमपंथी समूहों को बढ़ने से रोकने के लिए देश के अंदर सुधारों की शुरुआत की.

उन्होंने चरमपंथी प्रभाव वाले पाकिस्तानी सशस्त्र बलों से छुटकारा पाने की कोशिश की और पाकिस्तान के केंद्रीय हिस्से और जनजातीय क्षेत्रों में स्थानीय चरमपंथी समूहों का पीछा करना शुरू कर दिया.

नई दिल्ली में भारतीय संसद भवन पर पाकिस्तान से जुड़े चरमपंथी समूह के हमले के बाद भारत के साथ सैन्य तनाव चरम सीमा तक पहुँच गया था.

मुशर्रफ़ ने एक बार फिर 'निक्सन चाइना सिंड्रोम' का इस्तेमाल करते हुए, 12 आतंकवादी समूहों पर प्रतिबंध लगाया और उनके ख़िलाफ़ सैन्य अभियान शुरू कर दिया. किसी ने उन पर भारतीय एजेंट होने का आरोप नहीं लगाया.

उनके सबसे साहसी कूटनीतिक क़दम को (इस्लामाबाद में 2004 में प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ एक शिखर बैठक के रूप में) आज भी याद किया जाता है. जब वो भारतीय प्रधान मंत्री के साथ एक संयुक्त वक्तव्य में इस बात पर सहमत हुए थे, कि वह आतंकवादी समूहों को भारतीय ज़मीन पर हमला करने के लिए, पाकिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं देंगे.

पाकिस्तान में विपक्षी दलों ने इस संयुक्त बयान की व्याख्या करते हुए कहा है कि इसका अर्थ यह स्वीकार करना है कि आतंकवादी समूह भारत पर हमला करने के लिए पाकिस्तानी ज़मीन का इस्तेमाल कर रहे हैं. विपक्षी दलों ने इस बात पर ख़ूब आलोचना की, लेकिन मुशर्रफ़ बच गए.

भारत को शांति की पेशकश करके, मुशर्रफ़ पाकिस्तान की राजनीतिक प्रणाली में मौजूद 'अल्ट्रा राइट' के लिए जगह कम करना चाहते थे. वह 'अल्ट्रा-राइट' जो पाकिस्तानी समाज में चरमपंथी समूहों की बयानबाज़ी से फल फूल रहा था.

यह बात ग़ौरतलब है कि 2004 में वाजपेयी से मिलने से कुछ ही समय पहले, जनरल मुशर्रफ़ रावलपिंडी में उन पर हुए एक जानलेवा आत्मघाती हमले में बच गए थे. इसलिए, मुशर्रफ़ की भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की नीतियां और चरमपंथी समूहों के ख़िलाफ़ कार्रवाई साथ-साथ चल रही थी.

जनरल बाजवा की भारत को शांति की पेशकश

पाकिस्तानी सेना के वर्तमान चीफ़ ऑफ़ स्टाफ जनरल क़मर जावेद बाजवा ने पिछले महीने इस्लामाबाद में, इस्लामाबाद सुरक्षा संवाद को संबोधित किया. जिसे भारत के साथ संबंधों के बारे में हर तरह से एक नीतिगत बयान कहा जा सकता है.

जहाँ तक जनता की धारणा का सवाल है, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और उनके विदेश मंत्रालय इसमें कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं. सैन्य अधिकारियों ने युद्ध विराम समझौता किया और सेना प्रमुख ने पाकिस्तानी सरकार की ओर से भारत को लेकर उनकी नीति बयान की.

इस्लामाबाद सुरक्षा संवाद को संबोधित करते हुए, जनरल बाजवा ने कहा कि "भारत-पाकिस्तान मज़बूत संबंध पूर्वी और पश्चिमी एशिया के बीच संपर्कों को निश्चित बनाते हुए, दक्षिण और मध्य एशिया के अप्रयुक्त संसाधनों को खोलने की चाबी है.

"परमाणु-सक्षम पड़ोसियों के बीच संघर्ष और समस्याओं ये संसाधन हमेशा बंधक बने रहे हैं. निस्संदेह, कश्मीर विवाद इस मुद्दे का प्रमुख केंद्र है. यह समझना महत्वपूर्ण है कि शांतिपूर्ण तरीक़े से कश्मीर विवाद को हल किए बिना, उपमहाद्वीप में सुलह और सामंजस्य हमेशा राजनीतिक रूप से प्रेरित विवादों से प्रभावित होगा. हालाँकि, हमें लगता है कि अतीत को दफ़नाने और आगे बढ़ने का समय आ गया है.

यह पहली बार नहीं है जब जनरल बाजवा ने भारत को शांति की पेशकश की है. अप्रैल 2018 में उन्होंने पाकिस्तान मिलिट्री एकेडमी (पीएमए) काकोल में, सैन्य छात्रों के स्नातक होने की परेड को संबोधित किया था. अपने भाषण में उन्होंने कहा था, कि "हमारी सोच यह है कि कश्मीर की बुनियादी समस्या समेत, भारत-पाकिस्तान विवाद के शांतिपूर्ण हल का रास्ता व्यापक और सार्थक बातचीत है.

हालाँकि, जनरल बाजवा का भाषण केवल एक तरफ़ा संदेश का उदाहरण नहीं था. इसमें पाकिस्तानी कूटनीति के सभी लोकप्रिय तत्व शामिल थे. जिसका उद्देश्य दुनिया और पाकिस्तानियों को यह विश्वास दिलाना था कि पाकिस्तान शांति में विश्वास रखता है.

"इसके साथ ही, पाकिस्तान भारत के साथ अपनी बराबरी का दावा करने पर भी ज़ोर देता है."

उन्होंने शांति वार्ता (संप्रभु समानता और गरिमा के साथ) करने की बात की और कहा कि व्यापक वार्ता प्रक्रिया के लिए कश्मीर पहली शर्त है.

इसी प्रकार, अपने नए भाषण में, जनरल बाजवा ने एक बार फिर भारत-पाकिस्तान शांति प्रक्रिया को शुरू करने के लिए, कश्मीर में अनुकूल वातावरण बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया.

जनरल बाजवा ने भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के लिए व्यापक नीतिगत बयान क्यों दिया?

यदि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीतिक स्थिति कोई संकेत हो सकती है, तो सेना प्रमुख सत्ता का सबसे प्रमुख केंद्र है और सेना एकमात्र ऐसी संस्था है, जो दुनिया को दिए गए मौजूदा नीतिगत बयान के पीछे खड़ी है.

इसके अलावा, पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान, तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच, अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रक्रिया को स्पॉन्सर कर रहा है. पाकिस्तान सेना ने पूरे मनोयोग से क्षेत्रीय संपर्क को जोड़ने वाली एक बड़ी परियोजना को अपनाया है. जिसे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सी-पेक) के नाम से जाना जाता है.

ऐसी स्थिति में, यह निचले स्तर का विरोधाभास होगा, कि भारत के साथ सैन्य शत्रुतापूर्ण संबंधों को भी जारी रखें और साथ ही नए उद्देश्यों और लक्ष्यों की रक्षा और प्रचार करना भी जारी रहे.

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