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चीन और अमरीका की 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' की पूरी कहानी
- Author, प्रशांत चाहल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
चीन और अमरीका के मौजूदा तनाव को देखते हुए ये कहा जाने लगा है कि 'अब दोनों देशों के रिश्ते सबसे ख़राब दौर में पहुँच चुके हैं.' जिन भी मुद्दों पर ये दोनों देश अब तक बात करते रहे, उन पर मतभेद अब खुलकर सामने आ रहे हैं.
चीन ने हाल में हॉन्ग-कॉन्ग के लिए एक 'कठोर' राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लाकर इस तनाव को और हवा दी. जबकि कोरोना वायरस महामारी, दक्षिण चीन सागर और आपसी व्यापार की शर्तों पर अमरीका और चीन के बीच पहले से अनबन जारी है.
उधर अमरीका लगातार चीन पर 'ज़ुबानी हमले' बोल रहा है. ट्रंप प्रशासन चीन को 'तानाशाह', 'अड़ियल', 'बौद्धिक संपदा का चोर' और 'उत्पीड़न करने वाला' कह चुका है और अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई के निदेशक क्रिस्टोफ़र रे ने चीन को 'अमरीका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा' बताया है.
हाल ही में क्रिस्टोफ़र रे ने कहा कि "चीन किसी भी तरह दुनिया का अकेला सुपरपावर बनने की कोशिश कर रहा है."
वहीं अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने अमरीका और चीन के मुक़ाबले को 'आज़ादी और उत्पीड़न का संघर्ष' बताया है.
विश्लेषकों की मानें, तो फ़िलहाल पूरी दुनिया में इस बात की चिंता है कि 'ऐसी तीखी बयानबाज़ी कहीं इन दो महाशक्तियों को युद्ध की ओर ना धकेल दे.'
लेकिन सवाल उठता है कि अमरीका, जो चीन के साथ अपने रिश्तों को 'ऐतिहासिक' बताता आया, उसके व्यवहार में आई तल्ख़ी की वजह क्या है?
दो सौ साल से ज़्यादा पुराने रिश्ते
अमरीकी विदेश मंत्रालय के 'ऑफ़िस ऑफ़ द हिस्टोरियन' के अनुसार, साल 1784 में 'एम्प्रेस ऑफ़ चाइना' पहला जहाज़ था जो अमरीका से चीन के ग्वांगज़ाओ प्रांत पहुँचा था. इसी के साथ अमरीका और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों की शुरुआत हुई, जिसमें चाय पत्ती, चीनी मिट्टी और रेशम प्रमुख उत्पाद थे.
वर्ष 1810 में ब्रिटेन के व्यापारियों ने चीन में भारतीय अफ़ीम को लाने का काम शुरू किया था. उनके मुनाफ़े को देखकर अमरीकी व्यापारियों ने भी यही काम शुरू किया, लेकिन वो अफ़ीम भारत से नहीं, बल्कि फ़ारस से लाते थे.
1830 में पहली बार कुछ अमरीकी पादरी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए चीन पहुँचे, जिन्होंने चीन के इतिहास, भाषा और संस्कृति का अध्ययन किया और अमरीका के इतिहास को चीनी भाषा में लिखा.
इसके पाँच साल के भीतर ही अमरीका के एक डॉक्टर चीन पहुँचे और उन्होंने वहाँ एक क्लीनिक की स्थापना की.
1847 में एक जहाज़ चीनी श्रमिकों (जिन्हें कुली भी कहा जाता था) को लेकर क्यूबा पहुँचा. वहाँ उन्हें गन्ने के खेतों में काम करने के लिए लगाया गया. इसके कुछ ही समय बाद चीनी श्रमिक अमरीका भी पहुँचने लगे, जहाँ उन्हें मज़दूरी करने की पूरी आज़ादी दी गई.
लेकिन इनमें खदानों में काम करने और रेल की पटरियाँ बिछाने जैसे अन्य छोटे काम करने के ही अवसर उपलब्ध थे. फिर भी अगले 20 सालों में एक लाख से ज़्यादा चीनी श्रमिक अमरीका पहुँच चुके थे. अमरीकी जनगणना ब्यूरो की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमरीका में चीनी मूल के 40 लाख से ज़्यादा लोग रहते हैं.
माओत्से तुंग का चीन-अमरीका संबंधों पर प्रभाव
अमरीकी विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, वर्ष 1850 से 1905 के बीच चीन और अमरीका के संबंधों ने कई उतार-चढ़ाव देखे. इस दौरान दोनों देशों में कई व्यापारिक संधियाँ हुईं और टूटीं, दोनों देशों ने एक दूसरे के नागरिकों पर प्रतिबंध लगाए और दोनों ही देशों के नागरिकों ने एक-दूसरे के लिए मुखर विरोध भी ज़ाहिर किया.
वर्ष 1911-12 में चीन में साम्राज्यवाद का पतन हुआ, जिसके साथ ही चीन में गणतंत्र की स्थापना हुई.
1919 में अमरीकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन के कहने पर चीन ने पहले विश्व युद्ध में मित्र देशों का साथ दिया, इस उम्मीद में कि उन्हें जर्मनी के व्यापार क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिलेगा, जो उस वक़्त तक सिर्फ़ जापान के पास था.
लेकिन यह उम्मीद 'वर्साय की संधि' के कारण पूरी नहीं हो पाई, क्योंकि जापान, ब्रिटेन और फ़्रांस ने आपस में ही कुछ संधियाँ कर ली थीं, जिसकी जानकारी चीन को नहीं दी गई थी.
इससे चीन के लोगों में अमरीका को लेकर क्रोध पैदा हुआ और 4 मई 1919 को छात्र समूहों ने चीन की राजधानी बीजिंग के टिएनामेन चौक पर विशाल प्रदर्शन किया, जो उस समय का 'सबसे बड़ा शहरी आंदोलन' था और इसी के साथ चीन में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव शुरू हुए.
1921 में वामपंथी विचारधारा के समर्थक कुछ लोगों ने शंघाई में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की और 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओत्से तुंग ने बीजिंग में 'पीपुल रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' की स्थापना की.
कम्युनिस्ट पार्टी को किसानों का समर्थन प्राप्त था और उन्होंने चियांग काई-शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हरा दिया था.
राजनीति की इस लड़ाई में अमरीका ने राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी का समर्थन किया था, जिसकी वजह से माओत्से तुंग के सत्ता में आने के बाद कई दशकों तक अमरीका और चीन के रिश्ते सीमित ही रहे.
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कोरियाई युद्ध और चीन का परमाणु परीक्षण
25 जून 1950 को सोवियत संघ के समर्थन वाली उत्तर-कोरियाई फ़ौज ने दक्षिण कोरिया पर हमला किया. इस युद्ध में जहाँ एक तरफ संयुक्त राष्ट्र संघ और अमरीका ने दक्षिण कोरिया का साथ दिया, वहीं चीन ने उत्तर कोरिया का समर्थन किया.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और भारत के पूर्व राजनयिक राकेश सूद बताते हैं, "शुरुआती कम्युनिस्ट शासन के दौरान चीन और अमरीका के रिश्ते काफ़ी शत्रुतापूर्ण थे. उसी दौर में कोरियाई युद्ध भी हुआ, जिसमें कम्युनिस्ट विचारधारा वाले चीन और उत्तर कोरिया एक साथ थे. इस युद्ध का अंत नहीं हो पाया था, बल्कि 1953 में संयुक्त राष्ट्र संघ, चीन और उत्तर कोरिया के बीच हुए एक समझौते के तहत युद्ध पर विराम लगा था. इस युद्ध में क़रीब 40 हज़ार अमरीकी सैनिक मरे, जबकि चीनी सैनिकों की संख्या इससे भी कहीं ज़्यादा थी, जिससे दोनों के बीच रिश्ते और ख़राब हुए."
1954 में अमरीका और चीन एक बार फिर ताइवान के मुद्दे पर आपने-सामने हुए और अमरीका ने चीन को परमाणु हमले की धमकी दी, जिसके बाद चीन को समझौता करने पर मजबूर होना पड़ा.
पर चीन ने इस धमकी को चुनौती की तरह लिया और 1964 में चीन ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया. इसे लेकर भी अमरीका और चीन के बीच विवाद खड़े हुए.
लेकिन इन दोनों देशों के रिश्तों में एक नया मोड़ तब आया, जब चीन और सोवियत संघ के बीच 'चीन की कथित अतिवादी औद्योगिक नीतियों' के कारण खटास पड़ने लगी जिसकी वजह से इन दोनों देशों के बीच बॉर्डर पर झड़पें शुरू हो गईं.
जल्द ही चीन के लिए सबसे बड़ा ख़तरा अमरीका ना होकर, रूस हो गया. इसके साथ ही अमरीका और चीन के रिश्ते सामान्य होने लगे.
जब पहली बार चीन और अमरीका 'प्रेम में पड़े'
1972 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से सामान्य रिश्ते बनाने की ओर क़दम बढ़ाया. वे चीन पहुँचे और वहाँ आठ दिन बिताए. इस बीच उन्होंने कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग से मुलाक़ात की और 'शंघाई कम्युनीक' पर हस्ताक्षर किए जिसे चीन और अमरीका के 'सुधरते रिश्ते का प्रतीक' माना गया.
राकेश सूद बताते हैं, "अमरीका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर और रिचर्ड निक्सन ने चीन को वैश्विक सत्ता में शक्ति-संतुलन बदलने का एक माध्यम समझा और रणनीति बनाई कि अगर अमरीका कम्युनिस्ट ब्लॉक में कुछ मतभेद पैदा कर सके और चीन को सोवियत संघ से अलग कर सके, तो फ़ायदेमंद रहेगा. और अमरीका ने बिल्कुल यही किया."
"तब तक चीन और सोवियत संघ में भी वैचारिक मतभेद दिखने लगे थे. उधर माओ भी ये सोच रहे थे कि अमरीका के साथ ओपनिंग की जाए. ऐसे में निक्सन की ओर से प्रयास होता देख, चीन ने सोवियत संघ से हटकर अमरीका के साथ जाने में देर नहीं की और अमरीका से उसे जो फ़ायदे मिल सकते थे, उस पर चीन ने अपना सारा ध्यान केंद्रित किया."
चीन के साथ संबंध सुधारने की दिशा में अमरीका ने 1980 के दशक में कुछ बड़े क़दम उठाए. तब तक माओत्से तुंग की मौत के बाद डेंग ज़ियाओपिंग चीन के नेता बन चुके थे.
सूद बताते हैं, "डेंग ज़ियाओपिंग ने चीन की रुकी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कुछ आर्थिक सुधार किए और चीन के आधुनिकीकरण की बात की, जिसके तहत उन्होंने अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए चीन के दरवाज़े खोले. इस वजह से 1985 आते-आते कई बड़ी जापानी और अमरीकी कंपनियों ने चीन में दिलचस्पी लेनी शुरू की. चूंकि चीन विकसित हो रहा था, तो अमरीकी कंपनियों के लिए भी यह फ़ायदेमंद था, क्योंकि चीन के पास बाज़ार बहुत बड़ा था."
ये माहौल देखकर अमरीका ने ताइवान के मुद्दे से अपने हाथ खींच लिए और चीन को आश्वासन दिया कि वो ताइवान की तरफ़ से मध्यस्थता की कोशिश नहीं करेगा. जबकि 1954 में ताइवान के मुद्दे पर ही अमरीका ने चीन पर परमाणु हमले की धमकी दी थी.
चीन ने छवि सुधारने पर पूरा ज़ोर लगाया
दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में डायरेक्टर और किंग्स कॉलेज, लंदन में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफ़ेसर रहे डॉक्टर हर्ष वी पंत बताते हैं, "1980 के दशक में चीन की आर्थिक वृद्धि के आँकड़े काफ़ी अच्छे रहे थे और जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तब तक चीन दुनिया की एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में दिखने लगा. उस वक़्त, जब सोवियत संघ ख़त्म हुआ, तो अमरीका में काफ़ी लोग ऐसे थे जिनमें भारी आशावाद था, वो कह रहे थे कि दुनिया में एक नया ग्लोबल ऑर्डर आ रहा है."
"उस दौर में अमरीका के नामी राजनीतिक विश्लेषक फ़्रांसिस फ़ुकुयामा ने लोगों के सामने 'एंड ऑफ़ हिस्ट्री' नामक थ्योरी रखी, जिसका कहना था कि 'इतिहास अगर अवधारणाओं और सिद्धांतों की एक प्रतियोगिता है, तो मुक़्त बाज़ार, पूँजीवाद और उदारवाद जीतने की कगार पर हैं और धीरे-धीरे सारे देशों में यह विचारधारा फैलेगी.' अमरीका को लगा कि धीरे-धीरे चीन हमारी तरह बन जाएगा क्योंकि आर्थिक रूप से चीन अमरीका की तरह दिखने लगा था."
लेकिन 1989 में जब चीनी सरकार ने बीजिंग के टिएनामेन चौक पर 'लोकतांत्रिक सुधारों और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़' प्रदर्शन कर रहे लोगों पर सैन्य कार्रवाई की, तो अमरीका ने चीन के साथ अपने रिश्तों को बढ़ाने की कोशिशों पर अस्थायी रोक लगा दी और चीन को युद्धक सामग्री की सप्लाई बंद कर दी.
1990 के दशक में चीन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि सुधारने के लिए कई ऐसे क़दम उठाए, जो उसे मानवाधिकारों के हितैषी के रूप में दर्शाते. चीनी सरकार ने न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफ़रेशन संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर किए और APEC की सदस्यता लेने के लिए चीन, ताइवान और हॉन्ग-कॉन्ग को अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं के रूप में स्वीकार किया.
साल 2000 आते-आते, तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, जो 1998 में चीन का दौरा कर चुके थे, उन्होंने कई ऐसे क़दम उठाए, जिनकी वजह से चीन और अमरीका के रिश्ते फिर एक बार मज़बूती की तरफ़ बढ़ने लगे. इनमें राजनीतिक क़ैदियों को आज़ाद करवाना, दोनों देशों में एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिनिधियों को जगह देना और व्यापारिक संबंधों में सुधार लाना शामिल था.
डॉक्टर हर्ष पंत बताते हैं, "अमरीकी सोच रहे थे कि 'चीन एक बड़ी मार्केट इकोनॉमी बनेगा, देश में बड़ा मध्यम वर्ग होगा, वो कहेंगे कि हमें राजनीतिक अधिकार दो और थोड़े समय बाद चीन एक लोकतंत्र में बदल जाएगा जिसके साथ कम्युनिस्ट पार्टी भी सिमट जाएगी.' वहीं ब्रिटेन ने भी हॉन्ग-कॉन्ग को चीन को सौंप दिया और उम्मीद की कि वो उसकी स्वायत्तता को बरक़रार रखेगा, लेकिन 'पश्चिम के चश्मे' से चीन को देखना उनकी एक बड़ी बेवकूफ़ी साबित हुई."
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'चीन के कई क़दमों की अनदेखी'
अमरीकी थिंक टैंक 'सेंटर फ़ॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़' के अध्यक्ष जॉन जे हेमरे ने पिछले वर्ष एक कार्यक्रम में कहा था, "चीन के साथ अमरीका के ऐतिहासिक संबंध हैं, लेकिन पिछले 40 साल कुछ ख़ास रहे हैं, इस दौर में बहुत सी आवाज़ें उठीं, जिन्होंने कहा कि हमें चीन के साथ वही करना चाहिए जो हमने सोवियत संघ के साथ किया, लेकिन अमरीका ने ठीक उसके विपरीत किया, हमने चीन के साथ मिलकर काम किया, जिसका नतीजा है कि बीते 40 सालों में दोनों देशों ने काफ़ी तरक्की की, लेकिन अब महसूस होता है कि अमरीका झुंझलाया हुआ है, क्योंकि चीन की ऐंठ वॉशिंगटन में बहुत लोगों को नाखुश करती है, जिस वजह से अमरीका में, ख़ासतौर से व्यापारिक समुदाय में चीन को लेकर राय बदली है. अब से चार-पाँच साल पहले जो अमरीकी चीन के साथ काम करना चाहते थे, वो अब ऐसा नहीं सोचते. बहुत से अमरीकियों को लगता है कि चीन के साथ अपने रिश्तों की समीक्षा करने में हमने बहुत देर की."
दरअसल, यहाँ जॉन हेमरे का इशारा पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और फिर बराक ओबामा के कार्यकाल में 'चीन के कई क़दमों की अनदेखी' करने पर था.
इसे समझाते हुए डॉक्टर हर्ष वी पंत कहते हैं, "पहले बुश और फिर ओबामा, दोनों नेताओं ने अपने कार्यकाल में चीन पर निशाना साधते हुए कई बार ये कहा कि इंडो-पैसेफ़िक में शक्ति संतुलन बिगड़ रहा है और चीन इसका फ़ायदा उठा रहा है. यह बात भी आई कि एशिया में लोकतांत्रिक देश भारत के अलावा अन्य देशों से भी संबंध बढ़ाने की ज़रूरत है. लेकिन नीतिगत रूप से इसका असर बहुत कम हुआ क्योंकि आर्थिक नज़रिया वही बना रहा कि समृद्ध व्यापार के लिए चीन को साथ लेना ही पड़ेगा."
लेकिन क्या इस 'अनदेखी' से अमरीका को कोई फ़ायदा हुआ?
इस पर राकेश सूद कहते हैं, "सोवियत संघ के ख़िलाफ़ चीन को मज़बूत करने का अमरीका का मक़सद तो 1990 के दशक में ही पूरा हो चुका था, लेकिन तब तक चीन में कॉरपोरेट की दिलचस्पी बढ़ चुकी थी, जिसे जायज़ ठहराने के लिए कुछ अमरीकी नीति-निर्माताओं ने कहना शुरू किया कि 'व्यापारिक रूप से बढ़ेगा तो राजनीतिक रूप से भी चीन में बदलाव आएगा.' इसलिए माओ के समय की दोस्ती अमरीका की मजबूरी थी, लेकिन डेंग ज़ियाओपिंग के समय तक ये लालच बन चुकी थी. वहीं डेंग ज़ियाओपिंग अमरीका के लिए कहते थे कि 'बिल्ली भूरी हो या काली, क्या फ़र्क पड़ता है, चूहे तो पकड़ती ही है.' उनका मक़सद स्पष्ट था कि अमरीकियों के दम पर हमें आगे बढ़ना है. यही वजह है कि इस वक़्त दुनिया के दो-तिहाई देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार चीन है, जबकि कुछ दशक पहले तक सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार यूरोप या फिर अमरीका हुआ करते थे."
क्या कभी चीन ने कहा था कि वो बदलेगा?
ये एक बड़ा सवाल है कि आख़िर अमरीका को क्यों लगा था कि चीन उसके रंग में ढल जाएगा? क्या दोनों देशों के मूल में बसी विचारधारा अमरीका को यह समझाने के लिए नाकाफ़ी थी कि ऐसा होना बहुत मुश्किल है?
इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और चीन पर कुछ किताबें लिख चुके प्रेम शंकर झा कहते हैं, "विचारधारा तो एक छद्मवेश है जिसे सबने ओढ़ा हुआ है. असल चेहरा है शक्ति और वर्चस्व. अमरीकी सोचते हैं कि दुनिया हमारी होनी चाहिए. उनका एक सिद्धांत है- 'मेनिफ़ेस्ट डेस्टिनी' जो कहता है कि ईश्वर ने इस देश (अमरीका) को बनाया है और यहाँ के लोगों को ज़िम्मेदारी दी है कि 'वो पूरी दुनिया में लोकतंत्र की स्थापना करें.' लेकिन कौन सा लोकतंत्र? वो जिसे अमरीका चलाए!... इस सिद्धांत को चीन नहीं मानता."
राकेश सूद इसे 'अमरीकी ख़ुशफ़हमी' बताते हैं. वे कहते हैं, "चीन ने कभी अमरीका को ये आश्वासन नहीं दिया था कि 'हम बहुदलीय लोकतंत्र बन जाएँगे.' और अगर अमरीका ऐसा सोच रहा था कि व्यापार मिलने पर चीन ख़ुद को बदलेगा, तो ये उनकी ख़ुशफ़हमी थी."
"अमरीका और पश्चिमी देशों की जो सरकारें हैं, जिनकी चीनी कंपनियों से शिक़ायतें अब जग-ज़ाहिर हो रही हैं, उन्हें लगता है कि चीन का जो प्राइवेट सेक्टर है, वो असल में प्राइवेट नहीं है क्योंकि उसके अंदर चीनी सरकार या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ है."
"शी जिनपिंग ने यह कहने से कभी परहेज़ नहीं किया कि 'चीन का अस्तित्व ही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी है.' उन्होंने हर क्षेत्र में पार्टी की भूमिका पर बहुत ज़ोर दिया है- चाहे आर्मी हो या प्राइवेट कंपनियाँ हों. चीन की प्राइवेट कंपनियों के अंदर कम्युनिस्ट पार्टी की एक कमेटी बैठाई जाती है और वो मैनेजमेंट के साथ एक सक्रिय भूमिका अदा करती है. इस तरह से पार्टी की मौजूदगी सारे देश में है. और ये अमरीकियों को पसंद नहीं है."
इस मामले में प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत मानते हैं, "चीन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी को जीवित रखना सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है. इसमें कोई भी दखल डालेगा तो वो इसकी मंज़ूरी नहीं देंगे. कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने आप को बनाए रखने के लिए चीन के मध्यम-वर्ग से एक सौदा किया है, वो ये कि 'हम आपको संवृद्धि और सुविधाएँ देंगे, आप राजनीतिक अधिकारों की माँग ना करें.' जबकि अमरीकियों को लगा था कि संवृद्धि होगी, तो लोग अधिकारों की माँग करेंगे ही. लेकिन ऐसा हुआ नहीं."
"चीनियों के पास दुनिया की सारी सुविधाएँ हैं, लेकिन राजनीतिक अधिकार नहीं हैं. इसके ख़िलाफ़ जनता ना उठ खड़ी हो, इसलिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपने यहाँ प्रोपेगैंडा करती है कि 'जिन देशों ने लोकतंत्र लागू किया, उन्होंने क्या कर लिया? हमारे पास लोकतंत्र नहीं, लेकिन जीवन स्तर देखिए, वोट डालकर क्या करेंगे.' चीन में कम्युनिस्ट पार्टी को अब तक यह मॉडल सफल लगा है, इसलिए वो इससे समझौता करने को तैयार नहीं है."
चीन को 'बिगाड़ने' में पश्चिमी देशों का हाथ?
अमरीका अब चीन को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बता रहा है जिसकी साफ़ तौर पर कई वजहें हैं. अमरीका और चीन के बीच निक्सन से बिल क्लिंटन के दौर में 'कोऑपरेशन' यानी सहयोग पर आधारित रिश्ते थे, जो ओबामा का समय आते-आते 'कंपीटिशन' यानी प्रतिस्पर्धा में बदले. लेकिन अब यह प्रतिस्पर्धा 'कन्फ़्रंटेशन' यानी टकराव में बदलती दिख रही है.
प्रोफ़ेसर पंत इस स्थिति के लिए चीन से ज़्यादा उससे संबंध रखने वाले देशों को ज़िम्मेदार मानते हैं.
वे कहते हैं, "पश्चिम के देशों और अमरीका की यह बड़ी ग़लती रही कि उन्होंने चीन के साथ अपने संबंधों को परस्पर सम्बद्ध नहीं बनाया और पारदर्शिता नहीं रखी. चीन को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता दे दी गई, चीन को उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में एंट्री दी, लेकिन चीन से उन्होंने अधिकार नहीं मांगे. यही वजह है कि चीन ने सभी का फ़ायदा उठाया."
वे कहते हैं, "डेंग ज़ियाओपिंग के नेतृत्व वाली चीनी सरकार का संदेश था कि 'चीन को अपना हुनर छिपाकर रखना चाहिए, सही समय का इंतज़ार करना चाहिए और किसी से जाकर झगड़ा नहीं करना चाहिए.' और चीन में ये नीति मोटे तौर पर 2012 में शी जिनपिंग के आने तक चलती रही. उन्होंने नेतृत्व संभालने पर चीन को एक नया संदेश दिया कि 'अब सही समय आ गया है और ये ज़रूरी है कि चीन को उसकी काबिलियत के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सही जगह मिले.' इसी नज़रिए से शी जिनपिंग ने कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ बनाने की कोशिश की और कई अंतरराष्ट्रीय प्लान लॉन्च किए हैं."
इससे पहले, साल 2006 में चीन अमरीका का 'दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार' बन चुका था, जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच आर्थिक निर्भरता भी बढ़ी. फिर साल 2010 में चीन, जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की 'दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था' बना और एक अनुमान लगाया गया कि '2027 तक चीन अमरीका को पीछे छोड़कर, दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा.'
हालांकि अमरीकियों का सोचना है कि 'चीन ने सभी व्यापारिक उपलब्धियाँ उनके दम पर हासिल की हैं' क्योंकि अमरीका ने ही साल 2001 में चीन को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता लेने में मदद की, जिसके बाद सारी दुनिया में चीन का व्यापार बढ़ा.
अमरीका चीन के साथ क्या कर सकता है?
अब अमरीका चीन को 'बौद्धिक संपदा की चोरी', 'अल्पसंख्यक वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न', 'कोरोना महामारी', 'दक्षिण चीन सागर' और 'हॉन्ग-कॉन्ग' के मुद्दे पर घेरने की कोशिश कर रहा है और चीन के ख़िलाफ़ एक वैश्विक मोर्चा खोलने की कोशिश कर रहा है.
लेकिन इस संघर्ष में अमरीका कहाँ खड़ा है? इसके जवाब में प्रेम शंकर झा कहते हैं, "2008-2010 की वैश्विक मंदी के बाद चीन विदेशों में बहुत पैसा लगा चुका है और देश से बाहर भी उसका रिज़र्व बड़ा हो रहा है. तभी से चीन की 'ट्रेड पावर' भी लगातार बढ़ी है और वो तब तक बनी रह सकती है, जब तक युद्ध ना होए. इसलिए चीन की जो ताक़त है वो शांति पर बनी हुई है, वो किसी युद्ध से नहीं बनी. हालाँकि चीन फ़िलहाल जो आधिपत्य बना रहा है, वो इस विचार के विपरीत है."
"उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस बात को समझ चुके हैं कि अगर चीन की ताक़त को कम करना है तो सैन्य शक्ति से ज़्यादा आसान है कि चीन की व्यापारिक शक्ति पर हमला किया जाए और ट्रंप इसी पर तुले हुए हैं. इसी मक़सद से चीन पर कुछ प्रतिबंध और अतिरिक्त व्यापारिक शुल्क लगाए गए, मोबाइल ऐप बैन किए जा रहे और अपने प्रभाव वाले देशों से भी अमरीका इसी तरह के हमले करवा रहा है."
प्रेम शंकर झा कहते हैं कि 'जो काम अब अमरीका चीन के साथ कर रहा है, वही वो रूस के साथ कर चुका है.'
उन्होंने बताया, "अमरीका एक धौंस दिखाने वाला मुल्क़ है. उसने यूरोपीय संघ से कहा है कि 'रूस से गैस नहीं ख़रीदनी है', जिस पर यूरोपीय संघ ने स्पष्ट किया कि 'वो ऐसा नहीं करना चाहते हैं.' तो ट्रंप प्रशासन ने नेटो छोड़ने की धमकी दी. हक़ीक़त ये है कि नेटो के लिए 90 फ़ीसद फंड अमरीका देता है और 100 प्रतिशत तकनीक भी अमरीका से मिलती है. अगर अमरीका नेटो को छोड़ता है तो यूरोपीय देश अपनी डिफ़ेंस फ़ोर्स कहाँ से बनाएँगे, इसलिए अमरीका के इशारे पर चलना उनकी मजबूरी है."
झा दावा करते हैं कि 'असलियत में अमरीका बहुत कमज़ोर मुल्क़ हो चुका है.'
उनके मुताबिक़, 1992 में शीत युद्ध जीतने के बाद से अमरीका ने एक कौड़ी किसी मुल्क़ के विकास पर ख़र्च नहीं की है, बल्कि लोगों को मारने के लिए पैसे ख़र्च किया है. दुनिया अफ़गानिस्तान देख चुकी है, इराक़, लीबिया, यमन और सीरिया देख चुकी है. कहीं इन्हें फ़ायदा नहीं हुआ.
अमरीका क़रीब पाँच ट्रिलियन अमरीकी डॉलर फसाद पर ख़र्च कर चुका है. लेकिन अमरीका चीन से लड़ना नहीं चाहता, क्योंकि चीन के पास बहुत सारे परमाणु शस्त्र हैं.
डर चीन को भी है क्योंकि उन्हें ख़तरा अपने व्यापार का है. यही वजह है कि बेल्ट एंड रोड जैसी परियोजना से चीन अपने लिए व्यापार करने के वैकल्पिक रूट तैयार कर लेना चाहता है ताकि अमरीका उसके समुद्री रास्ते बंद कर भी दे तो भी व्यापार पर फ़र्क ना पड़े. साथ ही चीन को इस रास्ते से अपने लिए ईंधन लाने की व्यवस्था करनी है.
अंत में प्रेम शंकर झा कहते हैं, "अमरीका को इस बात का भी बहुत रंज है कि अगर चीन ने वैकल्पिक रूट बना लिये, तो चीन पर उनका कोई कंट्रोल नहीं रह जाएगा. और अमरीका एक ऐसी बंदूक बिल्कुल नहीं बनना चाहेगा जिसमें कोई गोली ना हो."
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