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क्या अब हमें कोरोना वायरस से मरने वालों की परवाह नहीं रही?
जब दुनिया में कोरोना वायरस का प्रकोप फैलना शुरू हुआ था, तो एक-एक मौत पर लोग अफ़सोस जताते थे. कोरोना के ख़ौफ़ से डर जाते थे. जान गंवाने के डर से ही लोगों ने सख़्ती से लॉकडाउन का पालन किया.
लेकिन, अब जबकि ये महामारी पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में कस चुकी है. लाखों लोग इसके शिकार हो चुके हैं. शहर के शहर श्मशान बन चुके हैं. तो, लोगों को इस महामारी से किसी की मौत पर अफ़सोस नहीं होता. अब लोग इसे अपनी क़िस्मत का लिखा मानकर ख़ामोश रह जाते हैं.
कोरोना वायरस से होने वाली मौत अब सिर्फ़ आंकड़े बनकर रह गई हैं. यहां तक कि लोग अब इससे जुड़ी खबरें भी नहीं देखना चाहते.
क्या कोविड-19 के आतंक के आगे हम भी असंवेदनशील हो गए हैं? हमारी हमदर्दी, करूणा सब कमज़ोर पड़ गई है? अब हमें किसी के मरने या जीने पर कोई असर नहीं पड़ता.
इसकी वजह क्या है?
मदर टेरेसा ने एक बार कहा था कि "अगर मैं भीड़ को देखूंगी तो कभी काम नहीं कर पाऊंगी. अगर मैं किसी एक को देखूंगी तो ज़रूर बेहतर काम करूंगी."
इस एक जुमले के ज़रिए, मदर टेरेसा ने दुनिया को बताया कि किसी एक की परेशानी हमारे दिल और दिमाग़ पर सीधा असर डालती है. जबकि एक भीड़ की परेशानी सिर्फ़ आंकड़ा बनकर रह जाती है.
किसी भी आपदा में ना जाने कितने लोग मरते हैं. लेकिन हम सिर्फ़ उनके बारे में बात करते हैं, और भूल जाते हैं. कोरोना काल में भी वैसा ही हो रहा है. वायरस की शक्ल में ना जाने कितने घरों में मौत दाख़िल हो रही है, जबकि बाक़ी लोगों की ज़िंदगी बदस्तूर चल रही है.
अमरीका में पिछले महीने ही मरने वालों की संख्या एक लाख के पार हो चुकी है. ये आंकड़ा वियतनाम युद्ध के दौरान मारे गए अमरीकी नागरिकों की तुलना में दोगुना है.
कोरियाई युद्ध के बाद से अमरीका ने जितनी भी जंगें लड़ी हैं, उनमें जितने भी अमरीकी सैनिक मारे गए हैं, उससे कहीं ज़्यादा अमरीकी नागरिक कोरोना वायरस के चलते जान गंवा चुके हैं. लेकिन हम सभी के लिए ये महज़ आंकड़े हैं.
हमारी इस स्थिति को मनोविज्ञान में एक तरह का रोग माना जाता है. जितने ही लोग मरते जाते हैं, हम उतने ही बेपरवाह हो जाते हैं. दरअसल जब कोई एक व्यक्ति तकलीफ़ में होता है तो हमें यक़ीन होता है कि हमारी कोशिशें उसे बचा सकती हैं. उस एक व्यक्ति की जगह हम ख़ुद को रखकर देखने लगते हैं.
लेकिन जब ज़्यादा लोग एक जैसी स्थिति में आ जाते हैं, तो ख़ुद हमारा ही विश्वास कमज़ोर पड़ने लगता है. और हम पीछे हट जाते हैं. लोग ख़ुद को ये कह कर पीछे हटा लेते हैं कि उनका योगदान समंदर में एक बूंद के बराबर है.
कई तरह की रिसर्च में पाया गया है कि अगर किसी एक व्यक्ति की मदद करनी होती है, तो लोग ज़्यादा दरियादिली दिखाते हैं. लेकिन जैसे ही उन्हें ज़्यादा लोगों की मदद करने को कहा जाता है तो वो पीछे हट जाते हैं. मनोविज्ञान में इसे Psuedo Inefficiency या छद्म अक्षमता कहते हैं.
लोग मान चुके हैं कि ये वायरस अब हमारे साथ रहेगा
दुखद समाचार या त्रासदियों के बारे में गहराई से सोचने से लोग ख़ुद को दूर रखना चाहते हैं. हिंसक घटनाएं बार-बार देखने से हमारे ज़हन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
कोरोना काल में अब लोग समझ चुके हैं कि ये वायरस अब हमारे साथ ही रहेगा. इसलिए, अब कोरोना के बढ़ते आंकड़ों का अपडेट रखने के बजाए लोग लॉकडाउन के नियमों में बदलाव वाली ख़बरें देखना ज़्यादा पसंद कर रहे हैं क्योंकि ये उनके तनाव को कम करता है.
किसी त्रासदी की कवरेज के समय भी अक्सर व्यक्ति विशेष की ख़बर को प्रमुखता से दिखाया जाता है. उसकी उम्र, उसके परिवार, उसकी रोज़ी रोटी के बारे में ज़्यादा जानकारी दी जाती है. ताकि, लोगों का ज़हन उस ओर आकर्षित हो. इसी तरह अखबारों में किसी त्रासदी को किसी एक चीज़ की फोटो के ज़रिए, पूरी त्रासदी का ख़ाका लोगों तक पहुंचाया जाता है.
मिसाल के लिए हाल ही मज़दूरों की घर वापसी के दौरान एक तस्वीर ने सबका ध्यान आकर्षित किया था. एक मां अपने बच्चे को सूटकेस पर लाद कर ले जा रही थी. ये तस्वीर लाखों मज़दूरों का दर्द और परेशानी बयान करने के लिए काफ़ी थी. वहीं झुंड के झुंड पैदल चल रहे मज़दूरों की तस्वीर लोगों पर उतना असर नहीं डाल रही थीं.
इसी तरह अमरीका में एक पुलिसकर्मी द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन दबाने वाली तस्वीर ने दुनिया भर में जो असर छोड़ा, वो असर शायद जॉर्ज के लिए आवाज़ उठाने वाली भीड़ की तस्वीरों ने भी नहीं डाला.
उस एक तस्वीर ने अमरीका में अश्वेत लोगों के साथ होने वाले भेदभाव की पूरी कहानी बयान कर दी. और करोड़ों लोगों की हमदर्दी उनके साथ जुड़ गई.
कोरोना काल में जबकि हालात हर दिन बिगड़ रहे हैं, तो क्या हमें ऐसे में आंख मूंद कर ख़ामोश रहना चाहिए?
नहीं.
हमें ख़ुद को समझाना चाहिए कि हमें सबसे पहले अपनी एहतियात करें. मास्क पहनें, दो गज़ की दूरी का ख़याल रखें. ख़ुद को समझाएं कि हम सुरक्षित हैं तो अपने आसपास के लोगों को भी सुरक्षित रख सकते हैं. कहीं कोई हमारी वजह से बीमार न हो जाए.
महामारी के इस दौर में यही हमारा समाज को सबसे बड़ा योगदान होगा. समाज को महफ़ूज़ रखने की बेचैनी हमारे अंदर बनी रहनी चाहिए.
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