कोरोना लॉकडाउन: मोदी सरकार की प्राथमिकता सही नहीं- नज़रिया

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    • Author, प्रोफ़ेसर अरुण कुमार
    • पदनाम, अर्थशास्त्री

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद बुधवार शाम वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश को 20 लाख करोड़ के पैकेज़ पर विस्तार से जानकारी दी थी.

लेकिन दोनों ही नेताओं को सुनने के बाद मुझे लगता है कहीं न कहीं इस समय सरकार की प्राथमिकताएं सही नहीं हैं.

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ये वो समय है जब सबसे बड़ी प्राथमिकता अचानक से बेरोज़गार होने वाले पचास से सत्तर फ़ीसदी लोगों का ध्यान रखना होना चाहिए था.

इन्हें ज़रूरत का सामान दिया जाना चाहिए था. इसके बाद दूसरी प्राथमिकता स्वास्थ्य तंत्र से जुड़ी होनी चाहिए थी. लेकिन बुधवार शाम जो घोषणाएं सामने आई हैं, वे ज़्यादातर नियम-क़ानून बदलने से जुड़ी हुई हैं.

क़ानून से जुड़े सुधारों की ये घोषणाएं तब काम आएंगी जब अर्थव्यवस्था दोबारा शुरू होगी. अभी तो भारतीय अर्थव्यवस्था 25 फ़ीसदी की दर से भी नहीं चल रही है.

ज़्यादातर माइक्रो और स्मॉल स्केल उद्योग धंधे बंद पड़े हैं. ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा ये होगा कि इस तरह की व्यवसायिक इकाइयां असफल नहीं होंगी.

लेकिन ये वो समय है जब सरकार को अपने संसाधन भूख-प्यास से निपटने और लोगों की जान बचाने में लगाने चाहिए थे.

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बजट को दोबारा तैयार करने की ज़रूरत

सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज़ की घोषणा की. लेकिन इस पैकेज़ से उस वर्ग तक मदद पहुंचती नहीं दिख रही है जिसे इस समय इसकी सबसे ज़्यादा दरकार है.

फ़िलहाल हमारा माइक्रो सेक्टर बंद पड़ा हुआ है. ऐसे में अगर अभी आप कहेंगे कि हम आपको तीन लाख करोड़ का लोन देंगे लेकिन वो लोन तो आप तब देंगे न जब उत्पादन शुरू करेंगे. या आने वाले दिनों में जब इस वर्ग को मोरेटोरियम मिल जाएगा.

लेकिन फ़िलहाल तो कुछ हाथ में आता हुआ नहीं दिख रहा है. इसमें एक ख़ास बात ये भी है कि ये लोन आदि बजट से नहीं दिया जा रहा है. बल्कि बैंकों की ओर से आ रहा है.

ऐसे में फ़िलहाल ऐसा दिख रहा है कि सरकार को जो करना चाहिए था वह वो सब कुछ नहीं कर रही है.

इन सारी घोषणाओं से आम जनता को निदान मिलता हुआ नहीं दिख रहा है. लॉकडाउन की वजह से टैक्स- जीडीपी अनुपात 16 फ़ीसदी से कम होकर 8 फ़ीसदी रह जाएगा. इससे इससे टैक्स कलेक्शन में 22 लाख करोड़ की कमी आएगी. ऐसे में बजट को दोबारा से तैयार जाने की ज़रूरत थी.

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राहत पैकेज़ की ज़रूरत

बजट को दोबारा गढ़ा जाता तो पता लगता कि संसाधन कहां हैं और कितना खर्च कर सकते हैं. राहत पैकेज़ कैसे तैयार कर सकते हैं. लेकिन ये सब करने की जगह हम क़ायदे-क़ानूनों को बदलने में ऊर्जा खर्च कर रहे हैं. लैंड-रिफॉर्म, लेबर रिफॉर्म आदि पर चर्चा कर रहे हैं.

फिलहाल तो निवेश हो नहीं रहा है. और डिमांड भी नहीं है. ऐसे में इससे क्या हासिल होगा? और फिलहाल भारत और विश्व की अर्थव्यवस्थाएं जिस हालत में हैं, उससे उबरने में कई साल लगेंगे.

सरकार की ओर से जीएसटी कलेक्शन पर लगातार सवालों के बाद भी कोई जवाब नहीं मिले.

मध्य वर्ग के लिए क्या?

सरकार ने टीडीएस की दर को मार्च तक के लिए कम करने का ऐलान किया है. लेकिन ऐसा सिर्फ मार्च तक होगा. इसके बाद आपने जिस दर से अभी टीडीएस देना था उसे मिलाकर मिलाकर मार्च में देना होगा.

ऐसे में ये माफ़ नहीं हो रहा है. बल्कि आपको उतना ही भरना होगा. बस थोड़े समय बाद. लेकिन मेरा मानना है कि ये राहत उस वर्ग को दी गई है जो संगठित क्षेत्रों में काम करते हैं.

लॉकडाउन के दौर में इस वर्ग का खर्च कम हो गया है. फिलहाल सरकार को बेरोज़गार होने वाले लोगों के लिए कुछ करने की ज़रूरत थी. लेकिन सरकार ने ये राहत उस वर्ग को दी है जो अपने आप खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम है.

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ग़रीबों को क्या मिलेगा?

प्रवासी मज़दूरों की एक बड़ी संख्या ने इस संकट के दौर में गाँवों में शरण लेने की कोशिश की है. ये कोशिश लगातार जारी भी है. ये वो लोग हैं जो माइक्रो यूनिट्स में काम करते हैं. अगर ये इकाइयां सक्रिय होतीं तो शायद इन लोगों तक कुछ पैसा पहुंच पाता.

लेकिन लॉकडाउन के चलते ये लोग पलायन को मजबूर हो गए. और पलायन की वजह से इन लोगों की आमदनी शून्य हो गई है. ऐसे में एक बड़ी आबादी अचानक से ग़रीबी रेखा के नीचे आ गई है.

घर से बाहर निकलकर देखिए...सड़कों पर गलियों में आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जो अपने बच्चों को कमर पर रखे, पोटलियां बांधे हुए भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर की यात्राएं कर रहे हैं.

सरकार कह रही है कि इस वर्ग के लिए 27 मार्च को 1.7 लाख के पैकेज़ का ऐलान किया था लेकिन वह तो ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान था.

सामाजिक अशांति की आशंका

इस वर्ग के लिए कुछ किया जाना चाहिए था जिसकी आमदनी चली गई और जिनके पास कोई जमा-पूंजी भी नहीं है. इस समय इस वर्ग को संरक्षण मिलना चाहिए जिसने मजबूरी में गाँवों की ओर पलायन किया है.

एक पैकेज़ इस वर्ग के लिए होना चाहिए जिसमें इन कामगारों के गुजर-बसर, काम-धंधे और खान-पानी आदि का ध्यान रखा जाए. क्योंकि ऐसा नहीं होने पर सामाजिक अशांति का जन्म होगा. अगर इस वर्ग को खाना-पीना नहीं मिलेगा तो दाने-दाने के लिए तनाव पैदा हो सकता है. . सूरत से लेकर दूसरी जगहों पर इस तरह की घटनाएं दिखना भी शुरू हो चुकी हैं.

(प्रोफ़ेसर अरुण कुमार आम आदमी पार्टी के आर्थिक मामलों की समिति के प्रमुख रह चुके हैं.)

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