कोरोना वायरस महिलाओं और पुरुषों में भेद क्यों करता है

    • Author, मार्था हेनरिक्स
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

कोविड-19 की महामारी ने ब्रिटेन के शाही घराने से लेकर भारत में ठेले पर सब्ज़ी बेचने वाले तक को अपना शिकार बनाया है. जिस पर भी इसका दांव चला उसी को लपेटे में ले लिया. लोग कहते हैं कि कोरोना वायरस किसी की जाति, धर्म या लिंग देखकर थोड़ी वार करता है. लेकिन, अब तक के आंकड़े इस दावे को ग़लत ठहरा रहे हैं. नया कोरोना वायरस अपना शिकार बनाने में भेदभाव कर रहा है. कोविड-19 की महामारी मर्दों और औरतों पर अलग-अलग तरह से प्रभाव डाल रही है. इस वायरस का पुरुषों और महिलाओं की सेहत ही नहीं, बल्कि माली हालत पर भी अलग अलग असर दिख रहा है.

कोविड-19 की मृत्यु दर देखकर ही अंदाज़ा हो जाएगा कि ये वायरस लिंग भेद कर रहा है. मिसाल के लिए अमेरिका में कोविड-19 से मरने वाली महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या दो गुना है. इसी तरह पूरे पश्चिमी यूरोप में कोविड-19 से मरने वाले 69 फ़ीसद सिर्फ़ पुरुष हैं. चीन या कोरोना का प्रकोप झेलने वाले अन्य किसी देश में भी यही स्थिति है.

कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या का ब्यौरा रखने वाली रिसर्चरों की टीम इसकी वजह तलाशने में जुटे ही. हालांकि अभी तक कोई सटीक कारण सामने नहीं आ सका है.

ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर फ़िलिप गोल्डर कहते हैं कि महिलाओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की तुलना में बेहतर होती है. किसी भी वायरस को सक्रिय होने के लिए खासतौर से कोरोना वायरस के लिए जिस प्रोटीन की आवश्यकता होती है वो 'एक्स क्रोमोसोम' में होता है. महिलाओं में 'एक्स क्रोमोसोम' दो होते हैं, जबकि पुरुषों में एक होता है. इसीलिए महिलाओं में किसी भी वायरस का प्रकोप झेलने की क्षमता ज़्यादा होती है.

वायरस के पुरुषों को ज़्यादा शिकार बनाने की एक वजह, ज़िंदगी जीने का सलीक़ा हो सकती है. मतलब ये कि जो लोग गुटखा, तम्बाकू या सिगरेट का सेवन करते हैं उनमें किसी भी बीमारी के पनपने की संभावना ज़्यादा होती है. सिगरेट पीने वालों के लिए तो किसी भी तरह के संक्रमण का शिकार होना बहुत ही आसान है. महिलाओं की तुलना में पुरुष सिगरेट ज़्यादा पीते हैं. चीन में 50 फ़ीसद मर्द सिगरेट पीते हैं. जबकि ऐसा करने वाली महिलाएं केवल पांच प्रतिशत हैं. फ़िलहाल महामारी के दौर में इस दावे के पक्ष में कोई सबूत नहीं है. लिहाज़ा इस दावे पर अभी मुहर नहीं लगाई जा सकती.

लॉकडाउन की वजह से लगभग सभी तरह की आर्थिक गतिविधों पर ब्रेक लग गया है. बड़े पैमाने पर लोगों के रोज़गार छिन रहे हैं. पूरी दुनिया में मंदी का दौर शुरु होने वाला है. लेकिन मंदी का ये दौर अन्य दौर की मंदी से अलग होगा. क्योंकि, इस मंदी की मार सबसे ज़्यादा महिलाओं पर पड़ने वाली है.

अमरीका में केवल मार्च महीने में क़रीब दस लाख चालीस हज़ार लोग बेरोज़गार हुए हैं. 1975 के बाद अमरीका में बेरोज़गारी का ये सबसे बड़ा आंकड़ा है. इसमें पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की नौकरियां ज़्यादा गई हैं.

इसकी एक वजह ये भी है कि मर्द ज़्यादातर ऐसे पेशे से जुड़े होते हैं जो आर्थिक चक्र चलाने में मदद करते हैं. जैसे मैन्यूफ़ैक्चरिंग या कंस्ट्रक्शन कंपनी. जबकि महिलाएं ज़्यादातर ऐसे पेशों से जुड़ी होती हैं जो आर्थिक चक्र सही चलने पर ही काम कर सकती हैं. जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं, रेस्टोरेंट, बार आदि. लॉकडाउन के समय में फ़िलहाल ये सभी बंद हैं. लॉकडाउन के बाद भी जब ये सब सेवाएं बहाल होंगी तो ज़रुरी नहीं कि होटलों, बार और पब में शामें पहले की तरह गुलज़ार होंगी. पैसे की तंगी से सामना तो हर इंसान को होगा. इसका सीधा असर यहां काम करने वाली महिलाओं पर पड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ट्रैवल एंड टूरिज़्म इंडस्ट्री में भी बड़े पैमाने पर महिलाएं ही काम करती हैं. अब जबकि यात्रा पर अनिश्चित काल के लिए पाबंदी है. तो, ज़ाहिर है इस व्यवसाय से जुड़े सभी लोगों को इसका ख़ामयाज़ा भुगतना होगा.

पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आर्थिक स्थिति ख़राब होने की एक और वजह ये है कि पुरुषों के मुक़ाबले उन्हें वेतन कम मिलता है. 'द वर्ल्ड वी वॉन्ट' की सह-संस्थापक नताशा मुधर कहती हैं कि समान पद पर समान काम करने वाली महिला को दुनिया भर में पुरुष कर्मचारियों के मुक़ाबले कम पैसा दिया जाता है. अमरीका में एक महिला को पुरुष की तुलना में 85 फ़ीसद ही सैलरी मिलती है. ऑस्ट्रेलिया में ये अनुपात 86 प्रतिशत और भारत में महिलाओं को पुरुषें की तनख़्वाह का 75 परसेंट ही मिलता है. जहां रंग की बुनियाद पर भेद किया जाता है, उन देशों का तो और भी बुरा हाल है. मिसाल के लिए अमरीका में श्वेत अमरीकी महिला की तुलना में अश्वेत अमरीकी महिला कर्मचारियों को 27 फ़ीसद कम वेतन दिया जाता है.

जो मर्द या औरत अकेले बच्चे की परवरिश कर रहे हैं, उनके लिए तो हालात और भी ज़्यादा ख़राब होने वाले हैं. अमरीका में ऐसे लोगों की संख्या दो करोड़ है. इसमें तीन चौथाई आबादी महिलाओं की है. ऐसे में अगर महिलाओं को किसी ऐसे सेक्टर में नौकरी मिल भी जाए जहां उन्हें गुज़ारे भर का पैसा मिल सकता है तो भी वो घर पर बच्चे की देखभाल के लिए किसी नर्स को रखने की स्थिति में नहीं होंगी. मतलब जबत क डे-केयर नहीं खुल जाते तब तक तो वो नौकरी कर ही नहीं पाएंगी.

लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पॉलिटिकल साइंस की प्रोफ़ेसर क्लेयर वेन्हम कहती हैं कि सभी महामारियों के दौरान पुरुषों और मर्दों के बीच का भेदभाव उजागर होता है. महिलाएं ही ज़्यादा परेशानी झेलती हैं. लेकिन अफ़सोस की बात है कि नीति निर्माता कभी इस ओर ध्यान ही नहीं देते. प्रोफ़ेसर क्लेयर वेन्हम और उनके साथियों ने ज़ीका और इबोला महामारी के लिंग अनुसार प्रभाव पर रिसर्च की थी. और अब इसी तरह कोविड-19 के प्रभावों पर भी काम कर रही हैं. वो कहती हैं कि इबोला महामारी के दौरान मातृत्व मृत्यु दर में अचानक इज़ाफ़ा हुआ था. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कहा था कि महामारी के दौरान गर्भवती महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाएं जारी रहनी चाहिए. लेकिन, महिलाओं को गर्भनिरोधक चुनने तक का विकल्प नहीं मिल पाता. क्योंकि ये ज़रुरी सामान का हिस्सा नहीं समझे जाते हैं. परिवार नियोजन की संस्था मैरी स्टोप्स का कहना है कि कोविड-19 महामारी के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 90 लाख 50 हज़ार महिलाएं और लड़कियां गर्भनिरोधक और गर्भपात की सेवा से वंचित रहेंगी.

महामारी के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में भी अक्सर इज़ाफ़ा हो जाता है. फ़्रांस में लॉकडाउन के पहले ही सप्ताह में घरेलू हिंसा के मामलों में एक तिहाई इज़ाफ़ा दर्ज किया गया. ऑस्ट्रेलिया में 75 फ़ीसद मामले बढ़े हैं. जबकि लेबनान में घरेलू हिंसा की घटनाएं दोगुनी हो गई है. घरेलू हिंसा का शिकार मर्द, औरत दोनों होते हैं लेकिन महिलाओं की संख्या कहीं ज़्यादा होती है. अमरीका में ऐसी महिलाओं की संख्या लगभग दोगुनी है. और 14 गुना संख्या ऐसी लड़कियों की है जिनका अपने ही किसी क़रीबी द्वारा बलात्कार किया जाता है.

बुज़ुर्गों के लिए भी हालात बेहतर नहीं हैं. बुज़ुर्ग पुरुषों में संक्रमित होने की संभावना ज़्यादा है. वहीं बज़ुर्ग महिलाओं में संक्रमित होने पर ठीक होने की भी संभावना ज़्यादा है. लेकिन सेहत पर इसका असर लंबे समय तक रहेगा.

आर्थिक स्तर पर इस महामारी का सबसे ज़्यादा असर झेलने वालों के लिए सरकार अगर चाहे तो अभी से ठोस क़दम उठा सकती है. जैसे ही महामारी का प्रकोप ख़त्म होगा और ज़िंदगी सामान्य ढंग से शुरु होगी तो ऐसे लोगों को तुरंत कोई काम मिल जाना चाहिए. जो महिलाएं या पुरुष अकेले बच्चे की परवरिश कर रहे हैं उनके बच्चों की देखरेख और सुरक्षा के लिए क्या तैयारी है.

फ़िलहाल बहुत सी कंपनियां वर्क फ़्रोम होम के फ़ॉर्मूले पर काम कर रही हैं. टेलीकॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिए तमाम तरह की मीटिंग निपटाई जा रही हैं. अमरीका में अकेले मार्च महीने में टेली कॉन्फ़्रेंसिंग में 200 फ़ीसद का इज़ाफ़ा दर्ज किया गया है. माहौल ठीक होने के बाद भी अकेले मां या पिता के लिए इस सेवा को बहाल रखा जा सकता है ताकि घर और परिवार दोनों की ज़िम्मेदारी निभाई जा सके. महिलाओं को इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा होगा. अमरीका में बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी 60 फ़ीसद महिलाएं ही उठाती हैं. अगर पत्नी डॉक्टर है और पति ऑफ़िस जॉब में है तो पति वर्क फ़्रोम होम कर सकते हैं और घर पर बच्चे को भी संभाल सकते हैं.

बहरहाल अभी सारी दुनिया के लिए मुश्किल घड़ी है. ये भी एक एक दौर है, गुज़र जाएगा. और हम सभी को सोच-समझकर, संयम रखकर ही इस मुश्किल को हल करना है. लेकिन ये कहना सही नहीं है कि वायरस किसी तरह का भेदभाव कर रहा है. दरअसल हमारे समाज का ताना बाना ही कुछ इस तरह बुना गया है कि उसमें महिलाएं ही हर परेशानी का सबसे ज़्यादा सामना करती हैं.

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