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कोरोना के बाद की दुनिया में राष्ट्रवाद, निगरानी और तानाशाही बढ़ेगी
अंतरराष्ट्रीय स्तर के नामी-गिरामी विचारकों का कहना है कि कोरोना के बाद दुनिया का नेतृत्व अब अमरीका नहीं, चीन करेगा. कुछ का कहना है कि चीन का नेतृत्व कमज़ोर होगा. कई लोग कह रहे हैं कि इस महामारी से वैश्वीकरण का अंत हो जाएगा.
कई लोग उम्मीद कर रहे हैं कि विश्व भर में नए तरह का सहयोग उभर सकता है. दूसरी तरफ़, यह भी कहा जा रहा है कि दुनिया भर में आक्रामक राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलेगा और मुक्त व्यापार भी कठिन हो जाएगा. मनमाने तरीके से शासन करने वाले नेता कोरोना का फ़ायदा उठाकर ख़ुद को और मज़बूत करेंगे और उनकी निरंकुशता बढ़ेगी, जबकि जनता पर तरह-तरह की पाबंदियाँ और निगरानियाँ थोपी जाएँगी.
कोरोना के बाद की दुनिया के बारे में जानिए क्या सोचते हैं अग्रणी विचारक, अर्थशास्त्री और दार्शनिक. संकलन- रजनीश कुमार
श्लोमो बेन-एमी
इसराइल के पूर्व विदेश मंत्री और टोलेडो इंटरनेशनल सेंटर फॉर पीस के उपाध्यक्ष श्लोमो बेन-एमी ने 'स्कार्स ऑफ वार' और 'वुंड ऑफ पीस: द इसराइल-अरब ट्रैजिडी' नाम की दो किताबें भी लिखी हैं.
वे कहते हैं, "लोगों और सामानों की आवाजाही इस दुनिया में हमेशा से रही है. महामारियों की भी मानव सभ्यता में अनिवार्य मौजूदगी रही है. इतिहास में देखा गया है कि हर त्रासदी और महामारी के बाद पुरानी मान्यताएं टूटती हैं और नई चीज़ें सामने आती हैं. पूरी की पूरी व्यवस्था शिफ़्ट हो जाती है."
श्लोमो ने लिखा है, "चाहे कोई महामारी का पहले से अंदाज़ा हो ना हो, ऐसी हालत में सरकार की तैयारी की पोल खुल जाती है. महामारी आने पर सरकारें अक्सर हालात संभालने में नाकाम रहती हैं. ऐसा पहले की महामारियों में भी था और कोरोना वायरस की इस महामारी में भी है".
44 साल की उम्र में साहित्य का नोबेल सम्मान जीतने वाले फ़्रेंच-अल्जीरियन लेखक अल्बेर कामू ने इन प्रवृत्तियों का उल्लेख अपने उपन्यास 'द प्लेग' में बख़ूबी किया है. चीन की सरकार ने शुरू में कोरोना वायरस के संक्रमण से जुड़ी सूचनाओं को दबाने की कोशिश की. अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने भी शुरू में इसकी उपेक्षा की. उन्होंने इसके ख़तरों को कमतर आंका. ट्रंप ने कोविड-19 को सीजनल फ्लू कहा था. इसी तरह कामू के उपन्यास 'द प्लेग' में एक अधिकारी प्लेग को विशेष तरह का बुखार कहता है.
इसराइल के पूर्व विदेश मंत्री का मानना है कि नेताओं में दूरदर्शिता नहीं होने के कारण महामारी आने के बाद लोगों के पास बचने के लिए बहुत विकल्प नहीं रहते. मजबूरी में सोशल डिस्टेंसिंग को एकमात्र उपाय के तौर पर पेश किया जाता है.
श्लोमो कई मिसालें देकर बताते हैं वैक्सीन की ग़ैर-मौजूदगी में तरह-तरह की अफ़वाहें फैलती हैं, कोई ब्लीच पीने की सलाह देता है तो कोई लहसुन खाने की अफ़वाह फैलाता है, कोई कहता है कि मुसलमानों को कोरोना नहीं हो सकता, यहाँ तक कि अमरीका के राष्ट्रपति भी तरह-तरह के इलाजों की कल्पना कर रहे हैं. श्लोमो का कहना है कि यह पैर्टन हर महामारी के समय देखने को मिलता है.
इसराइल के पूर्व विदेश मंत्री याद दिलाते हैं कि कोरोना वायरस से जो अभी आर्थिक संकट खड़ा हुआ है वो पहले की महामारियों में भी था. दूसरी सदी में आए एंतोनाइन प्लेग ने रोमन साम्राज्य के इतिहास में सबसे भयावह आर्थिक संकट खड़ा कर दिया था. 541-542 ईस्वी में आया जस्टिनियन प्लेग रुक-रुक कर दो सदियों तक आतंक फैलाता रहा और इसने भी बेज़नटाइन साम्राज्य को आर्थिक रूप से तबाह कर दिया.
श्लोमो का कहना है कि महामारी से न केवल अर्थव्यवस्था तबाह होती है बल्कि समाज में विषमता की खाई भी और गहरी होती है. यथास्थिति को लेकर अविश्वास बढ़ता है. रोग भले अमीर और ग़रीब के बीच भेदभाव न करे लेकिन ग़रीब जिन हालत में रह रहे होते हैं उस वजह से वो ज़्यादा आसान शिकार बनते हैं, और जो बच जाते हैं उनका जीवन और मुश्किल हो जाता है.
श्लोमो याद दिलाते हैं कि महामारी के समय साज़िश की बातों का फैलना भी एक तय पैटर्न है. जब एंतोनियन प्लेग आया तो रोम के शासक ने इसके लिए ईसाइयों को ज़िम्मेदार ठहराया. ईसाइयों के दबदबे वाले यूरोप में 14वीं सदी में जब ब्लैकडेथ महामारी आई तो इसका दोष यहूदियों पर मढ़ा गया. आज जब कोरोना वायरस की महामारी की चपेट में पूरी दुनिया है तो कई तरह की साज़िशों की कहानियां चल रही हैं. इनमें 5जी तकनीक, अमरीकी सेना, चीनी सेना और यहूदियों तक को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है.
महामारियों के जाने के बाद कितने बदलाव आते हैं, उनके बारे में श्लोमो कई दिलचस्प मिसालें देते हैं. मसलन, एंतोनाइन और जस्टिनियन प्लेग फैलने के बाद पूरे यूरोप में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ था. वहीं ब्लैक डेथ महामारी के बाद लोगों की रुचि धर्म में कम हुई थी और वे दुनिया को मानवता के नज़रिए से ज़्यादा देखने लगे थे. यही तब्दीलियां यूरोप में आगे चलकर पुनर्जागरण की वाहक बनीं. स्पैनिश फ्लू के बाद बड़े पैमाने पर मज़दूर आंदोलन शुरू हुए और साम्राज्यवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर उतरे. भारत में महामारी से लाखों लोग मारे गए तो इसके भारत में आज़ादी के आंदोलन को हवा मिली.
श्लोमो बेन-एमी आगाह करते हैं, "दो विश्व युद्धों से ये बात साबित हो गई थी कि संकीर्ण राष्ट्रवाद के साथ दुनिया में शांति और स्थिरता नहीं रह सकती. इस महामारी ने संकेत दे दिए हैं कि नेशन-स्टेट और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के बीच तत्काल एक नए संतुलन की ज़रूरत है. इसके बिना कोराना वायरस की महामारी और भी भयावह रूप लेगी"
युवाल नोआ हरारी, इतिहासकार और दर्शनशास्त्री
'सेपियंस' जैसी नामी किताब के लेखक हरारी आशंका ज़ाहिर करते हैं कि कोरोना की वजह से सर्विलेंस राज की शुरूआत होगी.
उन्होंने फाइनेंशियल टाइम्स में एक चर्चित लेख में लिखा, "सरकारें और बड़ी कंपनियां लोगों को ट्रैक, मॉनिटर और मैनिप्युलेट करने के लिए अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती रही हैं. लेकिन अगर हम सचेत नहीं हुए तो यह महामारी सरकारी निगरानी के मामले में एक मील का पत्थर साबित होगी. उन देशों में ऐसी व्यापक निगरानी व्यवस्था को लागू करना आसान हो जाएगा जो अब तक इससे इनकार करते रहे हैं. यही नहीं, यह 'ओवर द स्किन' निगरानी की जगह 'अंडर द स्किन' निगरानी में बदल जाएगा".
हरारी कहते हैं, "अब तक तो यह होता है कि जब आपकी ऊँगली स्मार्टफ़ोन से एक लिंक पर क्लिक करती है तो सरकार जानना चाहती है कि आप क्या देख-पढ़ रहे हैं लेकिन कोरोना वायरस के बाद अब इंटरनेट का फ़ोकस बदल जाएगा. अब सरकार आपकी ऊँगली का तापमान और चमड़ी के नीचे का ब्लड प्रेशर भी जानने लगेगी".
सर्विलेंस के ज़ाहिरा तौर पर कई फ़ायदे दिखते हैं. हरारी लिखते हैं, "मान लीजिए कि कोई सरकार अपने नागरिकों से कहे कि सभी लोगों को एक बायोमेट्रिक ब्रेसलेट पहनना अनिवार्य होगा जो शरीर का तापमान और दिल की धड़कन को 24 घंटे मॉनिटर करता रहेगा. ब्रेसलेट से मिलने वाला डेटा सरकारी एल्गोरिद्म में जाता रहेगा और उसका विश्लेषण होता रहेगा. आपको पता लगे कि आप बीमार हैं, इससे पहले सरकार को मालूम होगा कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है. सिस्टम को यह भी पता होगा कि आप कहाँ-कहाँ गए, किस-किस से मिले, इस तरह संक्रमण की चेन को छोटा किया जा सकेगा, या कई बार तोड़ा जा सकेगा. इस तरह का सिस्टम किसी संक्रमण को कुछ ही दिनों में खत्म कर सकता है, सुनने में बहुत अच्छा लगता है, है न?"
इसके बाद हरारी ख़तरों की बात करते हैं. वे लिखते हैं, "यह याद रखना चाहिए कि गुस्सा, खुशी, बोरियत और प्रेम एक जैविक प्रक्रियाएं हैं, ठीक बुख़ार और खांसी की तरह. जो टेक्नोलॉजी खांसी का पता लगा सकती है, वही हँसी का भी. अगर सरकारों और बड़ी कंपनियों को बड़े पैमाने पर हमारा डेटा जुटाने की आज़ादी मिल जाएगी तो वे हमारे बारे में हमसे बेहतर जानने लगेंगे. वे हमारी भावनाओं का अंदाज़ा पहले ही लगा पाएंगे, यही नहीं, वे हमारी भावनाओं से खिलवाड़ भी कर पाएंगे, वे हमें जो चाहें बेच पाएंगे--चाहे वह एक उत्पाद हो या कोई नेता. बायोमेट्रिक डेटा हार्वेस्टिंग के बाद कैम्ब्रिज एनालिटिका पाषाण युग की टेक्नोलॉजी लगने लगेगी".
हरारी कहते हैं, "कोरोना वायरस का फैलाव नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का बड़ा इम्तहान है. अगर हमने सही फ़ैसले नहीं किए तो हम अपनी सबसे कीमती आज़ादियाँ खो देंगे, हम ये मान लेंगे कि सरकारी निगरानी सेहत की रक्षा करने के लिए सही फ़ैसला है".
अमर्त्य सेन
अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने फ़ाइनेंशियल टाइम्स में लिखा है, "कोरोना वायरस के पहले से ही दुनिया में कम समस्या नहीं थी. दुनिया भर में विषमता चरम पर है. यह विषमता दुनिया के अलग-अलग देशों में भी है और देशों के भीतर भी है. विश्व के सबसे अमीर देश अमरीका में लाखों लोग मेडिकल सुविधा से वंचित हैं. लोकतंत्र विरोधी राजनीति ब्राज़ील से बोलिविया तक और पोलैंड से हंगरी तक में मज़बूत हुआ है".
सेन एक ज़रूरी सवाल पूछते हैं, क्या यह संभव है कि महामारी के साझे अनुभवों से पहले की समस्याओं के समाधान खोजने में मदद मिलेगी?
इसके जवाब में वे कहते हैं, "ज़ाहिर है, अगर साथ मिलकर इस महामारी से लड़ने और बाद में संभलने की कोशिश हुई तो कई अच्छी चीज़ें हासिल हो सकती हैं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया को मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है. लोगों ने इस बात को महसूस किया था कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग के बिना शांतिप्रिय और स्थिर दुनिया नहीं हो सकती है".
वे याद दिलाते हैं, "संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ़ और विश्व बैंक का जन्म दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही हुआ. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन को खाद्य संकट का सामना करना पड़ा था और कुपोषण विकराल समस्या बनकर सामने आया था. ब्रिटेन ने इस पर जीत हासिल की थी. ब्रिटेन ने खाद्य सामग्री में कमी के बावजूद बराबरी की हिस्सेदारी और सोशल सपोर्ट के ज़रिए खाद्य संकट का शानदार प्रबंधन किया था."
इसके बाद वे एक और ज़रूरी सवाल पूछते हैं, क्या वर्तमान संकट को देखते हुए कुछ ऐसी ही बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है?
अमर्त्य सेन इसके जवाब में लिखते हैं, "किसी भी संकट से निपटने के लिए हम क्या तरीक़ा अपनाते हैं ये उसी पर निर्भर करता है कि उससे क्या सबक़ हासिल करेंगे. यहां राजनीति सबसे अहम है और साथ में शासक और शासित के संबंध. युद्ध के सालों में भी ब्रिटिश नागरिकों के लिए भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी आई जबकि 1943 में बंगाल में आए भयावह अकाल में ब्रिटिश इंडिया में 30 लाख लोगों की मौत हुई और ब्रितानी हुकूमत ने इन मौतों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की".
सेन का मानना है कि समानता जैसी बातों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. अमरीका में काले लोग यानी अफ़्रीकी-अमेरीकी कोरोना वायरस के संक्रमण से ज़्यादा मर रहे हैं. शिकागो में अफ़्रीकी-अमरीकियों की आबादी महज़ एक तिहाई है लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण से मरने वालों में इनकी तादाद 70 फ़ीसदी है. जिन देशों में विषमता है वहां इस महामारी का ख़तरा ज़्यादा है. वो चाहे भारत हो या ब्राज़ील या हंगरी.
सेन कहते हैं, "भारत एक और समस्या से जूझ रहा है. लोकतंत्र के मायनों पर हमला किया जा रहा है और मीडिया की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसता जा रहा है".
स्टीफ़न एम वॉल्ट
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफ़ेसर वॉल्ट कहते हैं कि इस महामारी से सरकारें और मज़बूत होंगी और पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलेगा. सरकारें इससे निपटने के लिए आपातकाल के नियमों को लागू करेंगी और महामारी ख़त्म होने के बाद भी इन क़ानूनों का इस्तेमाल अपने फ़ायदे में जारी रखेंगी.
वॉल्ट एक और भविष्यवाणी करते हैं कि कोविड-19 के बाद दुनिया में बड़ी तब्दीली यह आएगी कि "पश्चिम की ताक़त पूरब शिफ़्ट करेगी. दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने इस महामारी का सामना बेहतरीन तरीक़े से किया है. चीन ने भी शुरुआती ग़लतियों के बाद ख़ुद को संभाल लिया. दूसरी तरफ़ यूरोप और अमरीका इस महमारी के सामने लाचार दिख रहे हैं. ऐसे में महामारी के बाद दुनिया का नेतृत्व पश्चिम से पूरब की तरफ़ जाएगा".
वॉल्ट कहते हैं कि वेस्टर्न ब्रैंड बुरी तरह से प्रभावित होगा. इस महामारी के बाद अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. अगर संक्षेप में कहें तो कोविड-19 के बाद की दुनिया कम खुली, कम संपन्न और कम आज़ादी वाली होगी.
रिचर्ड एन हास
काउंसिल ऑन फ़ॉरन रिलेशन के प्रमुख रिचर्ड एन हास ने फॉरन पॉलिसी मैगज़ीन में लिखा है कि कोविड -19 से पहले ही अमरीकी मॉडल फेल चुका था. उनका कहना है कि अमरीकी मॉडल की नाकामी 2008 की मंदी में भी दिखी थी और इस महामारी भी साफ़ दिख रही है.
वो कहते हैं, "कोविड-19 की महामारी एक देश से शुरू हुई और दुनिया भर में तेज़ी से फैल गई. ज़ाहिर है, वैश्वीकरण एक सच्चाई है, न कि पसंद. दरअसल, इस महामारी ने ग़रीब-अमीर, पश्चिम-पूरब से लेकर खुले और बंद सभी देशों की पोल खोल दी. जब दुनिया की दो बड़ी ताक़तों अमरीका और चीन को वैश्विक चुनौतियों का मिलकर सामना करना चाहिए था तब दोनों देशों के बीच संबंध ऐतिहासिक रूप से ख़राब हैं".
रिचर्ड कहते हैं, "इस महामारी के बाद हालात और बिगड़ेंगे. दोनों देशों के भीतर लोगों के मन में कोरोना वायरस को लेकर कई कहानियां हैं. अमरीका में ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि कोरोना चीन ने जान-बूझकर फैलाया. चीन अब अपने मॉडल को बेचने में लगा है कि कैसै उसने कोरोना वायरस को नियंत्रित किया. दूसरी तरफ़ अमरीका बाकी दुनिया से खुद को काटने में लगा है".
फ्रेडरिका मोगेरिनी
यूरोपीय यूनियन में विदेशी मामलों और सुरक्षा नीति की प्रतिनिधि रहीं फ्रेडरिका मोगेरिनी ने प्रोजेटक्ट सिंडिकेट में लिखा है कि इस महामारी ने कुछ स्पष्ट संदेश दिए हैं.
वो कहती हैं, "चीन के वुहान शहर में महामारी की शुरुआत हुई और अब पूरी दुनिया चपेट में है. मानो किसी एक महादेश में किसी को छींक आई और उसकी चपेट में बाक़ी दुनिया आ गई. महामारी जब आती है तो मुल्कों की सरहदें, लोगों की राष्ट्रीयता, नस्ल, लिंग और धर्म के कोई मायने नहीं रह जाते. हम सबके शरीर से वायरस एक तरह का ही व्यवहार करता है. इसका कोई मतलब नहीं है कि कौन क्या है".
वे कहती हैं, "दूसरी बात यह कि हमारे पड़ोसी की हालत कैसी है यह आपके भविष्य से संबंधित है. अगर हमारा पड़ोसी मुश्किल में है तो यह हमारी मुश्किल भी है. आज की दुनिया आपस में जुड़ी हुई है इसलिए किसी और की मुश्किल उसी तक सीमित नहीं रहेगी. सच तो यह है कि एकजुटता ही आज का नया स्वार्थ है. तीसरी बात यह कि वैश्विक समन्वय बहुत ही ज़रूरी है. हमें अंतरराष्ट्रीय संगठनों में निवेश बढ़ाने की ज़रूरत है. हम चम्मच से समंदर ख़ाली नहीं कर सकते, सबको साथ आना होगा."
कोरी शेक्स
इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फोर स्ट्रैटिजिक स्टडीज की उपमहानिदेशक कोरी शेक्स का कहना है कि इस महामारी के बाद अमरीका दुनिया का नेतृत्व नहीं कर पाएगा. वो अपने देश के भीतर ही ठीक से महामारी को नहीं संभाल पा रहा है.
अमरीकी सरकार ने ख़ुद को अपने हितों तक सीमित कर लिया है. जब पूरी दुनिया मुश्किल में है तो अमरीका ख़ुद को भी नहीं संभाल पा रहा है. अब वैश्वीकरण अमरीका केंद्रित नहीं बल्कि चीन केंद्रित होगा. इसकी शुरुआत ट्रंप के आने के बाद हो गई थी जो अब और तेज़ होगी. अमरीकी आबादी का वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यापार से भरोसा उठ गया है.
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