श्रीलंका में गोटाभाया की जीत किसके लिए झटका

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श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में देश के पूर्व रक्षा मंत्री गोटाभाया राजपक्षे ने जीत हासिल की है.
इसी साल अप्रैल में हुए चरमपंथी हमलों के बाद हुए चुनावों में गोटाभाया को 52.25 फ़ीसदी वोट मिले. उनके प्रतिद्वंद्वी सजित प्रेमदासा थे जिन्होंने हार स्वीकार कर ली है.
गोटाभाया राजपक्षे श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के भाई हैं. महिंदा को चीन के क़रीबी माना जाता था ऐसे में क्या गोटाभाया के राष्ट्रपति बनने के बाद भी भारत को इस बात को लेकर चिंता करनी चाहिए?
ऐसे ही कुछ और सवालों को लेकर बीबीसी तमिल संवाददाता मुरलीधरन काशीविश्वनाथन ने वरिष्ठ पत्रकार और द हिंदू समूह संपादक एन. राम से बात की और पूछा कि चुनाव के नतीजों के अल्पसंख्यकों के लिए क्या मायने हैं और भारत-श्रीलंका के संबंधों पर इनका क्या असर पड़ सकता है.

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श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के भाई गोटाभाया राजपक्षे जीत गए हैं. चुनाव के नतीजों से क्या संदेश मिलता है?
वो बहुमत से जीते हैं. श्रीलंका में जीत के लिए 50 फ़ीसदी वोट काफ़ी होते हैं और राजपक्षे को इससे अधिक वोट मिले हैं. हमें यह स्वीकार करना होगा. भले ही श्रीलंका के उत्तर और पूर्व के लोगों ने सजित को वोट दिए मगर कुल मिलाकर गोटाभाया को पूरे श्रीलंका से वोट मिले.
महिंदा राजपक्षे का इस जीत में अच्छा योगदान रहा है. हमें देखना होगा कि इन नतीजों के बाद श्रीलंका में नया प्रशासन शुरू होता है या नहीं.
वहां पर राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों और संसद के बीच भी संघर्ष रहता है. इसलिए यह भी देखना होगा कि गोटाभाया राजपक्षे इस संघर्ष का सामना कैसे करते हैं.

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उत्तर और पूर्वी इलाक़े में रहने वाले अल्पसंख्यकों ने सजितप्रेमदासा को वोट दिए थे और चुनाव परिणाम उनके ख़िलाफ़ रहे हैं.
इसे स्वीकार किया जाना चाहिए. तमिल नेता पहले ही राजपक्षे खेमे से बात शुरू कर चुके हैं. मुख्य और महत्वपूर्ण सवाल है कि नए राष्ट्रपति सत्ता में साझेदारी को स्वीकार करेंगे या नहीं.
तमिलों की शिकायत है कि सत्ता में उन्हें हिस्सेदारी नहीं मिल रही. इतिहास पर नज़र डालें तो यह हिस्सेदारी मिलना मुश्किल है. मगर एक नया मौक़ा पैदा हुआ है. तमिलों को अपनी मांगें रखनी चाहिए और ज़रूरत हो तो प्रदर्शन भी करना चाहिए.
अब वह समय नहीं है जब एलटीटीई वहां मौजूद था. उस समय काफ़ी हिंसा होती थी. तमिलों को अब अहिंसक तरीक़े से प्रदर्शन करके अपने अवसर हासिल करने चाहिए.

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आपकी नज़र में राष्ट्रपति का उन लोगों के प्रति व्यवहार कैसा होगा जिनसे उन्हें वोट नहीं मिले?
चुनावों में जीत-हार सामान्य बात है. तमिल इस बात से निराश हो सकते हैं कि उन्होंने जिसका समर्थन किया, वो जीत नहीं सका. मगर उन्हें इसे स्वीकार करना होगा और नए राष्ट्रपति के सामने अपनी बातें रखनी होंगी.
श्रीलंका में राष्ट्रपति की शक्तियों का मुद्दा भी अहम है. अगर राष्ट्रपति के पास अधिक शक्तियां होती हैं तो वह लोकतंत्र के स्थापित नियमों का पालन नहीं करेगा. ऐसा अमरीका में होता है. मगर श्रीलंका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के कारण संसद के पास भी शक्तियां हैं. मुझे उम्मीद है कि गोटाभाया इसका सम्मान करते हुए आगे बढ़ेंगे.
महिंदा राजपक्षे भविष्य में प्रधानमंत्री बन सकते हैं. अभी वह विपक्ष के नेता हैं. हमें देखना होगा कि कैसे वह अपने पक्ष में लोगों को जोड़कर पीएम बनते हैं या फिर संसद को भंग करके चुनाव लड़ते हैं. अगर वह जीतकर प्रधानमंत्री बनते हैं तो देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार का नेतृत्व कौन करता है.

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इस नाकामी के बाद यूनाइटेड नेशनल पार्टी से संबंध रखने वाले प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे और श्रीलंका फ़्रीडम पार्टी की चंद्रिका कुमारतुंगा का राजनीतिक भविष्य क्या होगा?
श्रीलंका फ्रीडम पार्टी पूरी तरह कमज़ोर हो चुकी है. श्रीलंका में 'असल' फ्रीडम पार्टी है- श्रीलंका पोदुजन पेरामुना, जिसके नेता हैं महिंदा राजपक्षे. अगर ये पार्टियां जुड़ जाती हैं तो मज़बूत हो जाएंगी.
श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के नियम कहते हैं कि अध्यक्ष को विपक्ष का नेता बनना होगा. मैत्रीपाला सिरीसेना, जो अभी पार्टी के नेता हैं, उन्हें लगभग पार्टी से रिटायर होना पड़ेगा.
रानिल का अलग राजनीतिक स्तर है. अगर हम चुनाव के नतीजों को देखें तो लगता है कि लोगों का रुख़ सरकार के ख़िलाफ रही है. यही सोच पूरे देश की रही है मगर दक्षिण में ज़्यादा उभरकर आई है. संसदीय चुनावों के बाद अगर महिंदा की पार्टी जीतती है तो रानिल विपक्ष के नेता होंगे. मगर उनकी राजनीतिक यात्रा जारी रह सकती है.
पिछले कार्यकाल में नए संविधान को लिखने का काम शुरू हुआ था जो बीच में ही रुक गया था. अब क्या होगा?
मुझे नहीं लगता कि उस मामले में कुछ होगा. पिछली सरकार के दौरान ही इसे बीच में छोड़ दिया गया था. अब ये ऐसा ही रहेगा.

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हमेशा ये समझा जाता रहा कि महिंदा सरकार चीन के बहुत क़रीब रही थी. इस जीत के बाद अब भारत और श्रीलंका के रिश्तों का क्या होगा?
ये बहुत ही अतिशयोक्ति भरी सोच है कि श्रीलंका पूरी तरह चीन की तरफ़ है. ये सच नहीं है. गोटाभाया हमेशा से भारत के क़रीब रहे हैं. इसलिए भारत-श्रीलंका के रिश्ते उनके राष्ट्रपति बनने से प्रभावित नहीं होंगे. एक सामान्य रिश्ता बना रहेगा, मदद मिलती रहेगी.
राजीव गांधी की मृत्यु के बाद भारत लगातार श्रीलंकाई सरकार के क़रीब रहा है. नरसिम्हा राव के समय से ही यह नीति चल रही है और बदली नहीं है, भले ही प्रधानमंत्री कोई भी रहा हो. इसलिए गोटाभाया के राष्ट्रपति बदनलने के बाद चीज़ें नहीं बदलेंगी.
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