पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों को मुख्यधारा में लाना कितना संभव

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- Author, इमाद ख़ालिक़
- पदनाम, बीबीसी उर्दू संवाददाता
बुधवार को पाकिस्तान की बड़ी राजनीतिक पार्टी पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने क़ौमी असेम्बली में अपना विचार पेश करते हुए जहां पाकिस्तान और भारत के बीच तनाव पर बात की, वहीं उन्होंने सरकार की आलोचना करते हुए चरमपंथी संगठनों को मुख्यधारा में शामिल करने की पॉलिसी को अस्वीकार किया.
क़ौमी असेम्बली में की गई अपनी जज़्बाती तक़रीर (भाषण) में उन्होंने सवाल उठाया कि 'ये कैसे मुमकिन है कि चुने गए प्रधानमंत्री को फांसी पर चढ़ाया जा सकता है, लेकिन चरमपंथी तत्वों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती?'
उनका कहना था कि जब साल 2014 में पेशावर के सैनिक स्कूल पर हमले के बाद इस संसद ने सर्वसम्मति से नफ़रत भरे भाषण और उग्रवाद के ख़िलाफ़ लड़ने और उसका ख़ात्मा करने का मानक सिद्धांत अपनाया था तो रियासत इन चरमपंथी तत्वों को मुख्यधारा में शामिल करने का ख्याल कहां से ले आई?
नेशनल एक्शन प्लान से संबंधित बात करते हुए उन्होंने पूछा कि राजनीतिक सरकार अब तक इसे पूरी तरह लागू नहीं कर पाई, इसके कारण क्या हैं.

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चरमपंथियों को मुख्यधारा में लाने से क्या मुराद है?
चरमपंथी संगठनों को मुख्यधारा में लाने से मुराद उनको निहत्था करना, उन्हें अहिंसा के रास्ते पर लाना, इन संगठनों का राजनीतिक प्रशिक्षण करना, उनको आर्थिक अवसर प्रदान करना, और इन संगठनों से जुड़े लोगों को वोकेशनल ट्रेनिंग के ज़रिए हुनर देने के साथ-साथ समाज में बराबरी का स्थान दिलवाना होता है.
हालांकि विश्लेषकों और विशेषज्ञों के मुताबिक़ पाकिस्तान में ऐसी जमातों को मुख्यधारा में शामिल करने का मतलब बुनियादी तौर पर राजनीतिक अवसर उपलब्ध करना है ताकि ये चरमपंथ को छोड़ दें. मगर मुख्यधारा में शामिल करने के अन्य कामों पर रियासत ने संजीदगी से अब तक काम नहीं किया है.

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मुख्यधारा में लाने का ख्याल कब और कहां से आया?
काउंटर टेररिज़्म के प्रोफ़ेसर डॉक्टर खुर्रम इक़बाल इस बारे में कहते हैं कि इस संबंध में हमें सबसे पहले ये समझना होगा कि पाकिस्तान में मौजूद चरमपंथी संगठनों को मुख्यधारा में किसी की तरफ़ से लाया गया या ये खुद आए हैं.
अगर हम प्रतिबंधित जमात-उद-दावा की बात करें तो इस पर दो राय पाई जाती हैं.
एक- इनको मुख्यधारा में पाकिस्तान की मिलिट्री एस्टैबलिशमेंट लाई है.
दूसरा- ये कि साल 2001 के बाद देश में, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय हालात ऐसे बन गए थे जिन्होंने इस जमात को मजबूर किया कि चरमपंथ का रास्ता छोड़कर राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल हो जाए.
ये इस प्रतिबंधित जमात के लिए अस्तित्व की एक रणनीति भी थी.
राजनीतिक और रक्षा विश्लेषक इम्तियाज़ गुल ने बीबीसी से कहा कि सशस्त्र चरमपंथी जमातें जो भारत प्रशासित कश्मीर या अफ़ग़ानिस्तान में अपनी कार्रवाईयां करती रही हैं, उनको मुख्यधारा में लाने का ख्याल साल 2008 में पाकिस्तान की मिलिट्री एस्टैबलिशमेंट की तरफ़ से आया था, जिसका मक़सद उनको निहत्था करना और चरमपंथ को समाप्त करना था.
इम्तियाज़ गुल का कहना था कि इन जमातों को मुख्यधारा में लाने की अवधारणा के पीछे ये मानना था कि अगर रियासत ने बड़ी संख्या में मौजूद इन लोगों को नज़रअंदाज़ कर दिया तो समाज में और बिगाड़ पैदा हो सकता है.
साल 2016 में एक बार फिर इन जमातों को मुख्यधारा में लाने पर ज़ोर दिया गया, जिसका मक़सद ये था कि पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक दलों में इन चरमपंथ संगठनों को जगह दी जाए जिससे वो अपने चरमपंथी रवैये को छोड़ दें और नरम भी बन जाएं. और इसका तीसरा मक़सद उनको सामाजिक स्तर पर बेहतर अंदाज़ से स्वीकृति दिलाने का भी था.

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मुख्यधारा में कैसे लाया जाए?
डॉक्टर खुर्रम इक़बाल का कहना है कि अगर पाकिस्तान में किसी भी चरमपंथी संगठन को मुख्यधारा में शामिल करना है तो ये सिर्फ़ उस संगठन की सियासी जमात रजिस्टर करवाने से नहीं होगा.
उनका कहना है कि किसी भी चरमपंथी संगठन को मुख्यधारा में लाना एक पूरी प्रक्रिया है. इसकी कुछ शर्तें हैं, जैसे कि इस संगठन को पहले लोकतंत्र को मानना होगा. अहिंसा को अपनाना होगा और ये सब इस संगठन में अंदरूनी सहमति के साथ-साथ राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय हिमायत के साथ मुमकिन है.
उनका कहना था कि अगर जमात उद दावा जैसी जमात को मुख्यधारा में लाना था तो इस पर सबसे पहले संसद में सबको सहमत करते. दूसरा उन देशों को अपने भरोसे में लेते जो इससे प्रभावित हुए, जिनमें भारत और अमरीका शामिल हैं.
इम्तियाज़ गुल कहते हैं कि किसी भी चरमपंथी संगठन को मुख्यधारा में लाने के बहुत से तरीक़े हैं. जैसा कि ब्रिटेन में आइरिश रिपब्लिकन आर्मी के राजनीतिक फ्रंट 'शन फैन' के साथ बातचीत के ज़रिए उनको मुख्याधारा में लाया गया.
उन्होंने आगे कहा कि पाकिस्तान के अपने अलग हालात हैं, लेकिन 'शन फैन' की तर्ज पर यहां भी ऐसा काम किया जा सकता है. याद रहे पाकिस्तान में इन चरमपंथी संगठनों से जुड़े लोगों को न तो क़त्ल किया जा सकता है और न ही जेलों में डाला जा सकता है.

क्या पाकिस्तान रियासत कामयाब रही?
डॉक्टर खुर्रम इक़बाल ने कहा कि वो समझते हैं कि पाकिस्तानी रियासत में चरमपंथियों को मुख्यधारा में लाने में कामयाबी नहीं मिली. इसका बुनियादी कारण ग़लत तरीक़ा अपनाना है. अगर दुनिया में चरमपंथियों के इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो कई चरमपंथी संगठनों को मुख्याधारा में लाया गया. जिनमें 'आइरिश रिपब्लिकन आर्मी' और भारत के पंजाब में 'ख़ालसा तहरीक' और अफ़ग़ानिस्तान में 'हिज्ब-ए-इस्लामी' की मिसालें मौजूद हैं.
राजनीतिक विश्लेषक मुशर्रफ़ ज़ैदी ने बीबीसी से कहा कि पाकिस्तान की क्षमता पर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सवाल उठाए जाते हैं. चरमपंथियों को मुख्यधारा में लाने के लिए जो रियासती सलाहियत दरकार होती है, बदक़िस्मती से पाकिस्तान के पास वो सलाहियत नहीं है.
उनका कहना था कि पाकिस्तान में रणनीति का अभाव है और जल्दबाज़ी में फ़ैसले करती है. इसीलिए पिछले चुनाव में एक जमाअत को राजनीतिक तौर पर मुख्यधारा में लाने की जो कोशिश की गई वो बुरी तरह से नाकाम हुई.
जबकि इम्तियाज़ गुल का कहना था कि पाकिस्तान में चरमपंथ का संबंध धार्मिक विचारों के साथ होता है जिसमें कुछ तत्व अपनी ताक़त के ज़रिए अपने विचार दूसरों पर थोप देना चाहते हैं. और पाकिस्तान में अब तक कोई मुख्यधारा में शामिल नहीं हुआ.
उन्होंने भी हालिया चुनाव में तहरीक लब्बैक को मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश को नाकाम क़रार दिया.
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