क्या दुनिया परमाणु जंग के ख़तरे की ओर बढ़ रही है?

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- Author, जोनाथन मार्कस
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
साल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने से ठीक पहले जब अमरीका ने जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया तो इस एक घटना ने दुनिया की राजनीति में सब कुछ बदल दिया.
ये एक नये युग की शुरुआत थी.
एक ऐसा युग जब दुनिया ने पारंपरिक युद्ध की जगह एक विध्वंसकारी युद्ध के साये में जीना शुरू कर दिया.
अमरीकी सरकार के इस कदम के बाद रूस ने भी परमाणु हथियारों का विकास करना शुरू कर दिया.
इसके बाद कई सालों तक अमरीका और रूस में परमाणु हथियारों की एक ऐसी होड़ लगी रही जिसमें दोनों देश एक दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश में लगे हुए थे.
इसी बीच दुनिया ने क्यूबा मिसाइल संकट भी देखा जब अमरीका और सोवियत संघ के बीच परमाणु युद्ध शुरू होने जैसी स्थिति बन गई थी.
इस दौर में हमले की चेतावनी मिलते ही आपको और आपके परिवार को तत्काल किसी जगह छिपना होता था.

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लेकिन आख़िरकार सोवियत संघ और अमरीका इस तरह के संघर्ष से बचने के लिए कुछ नियम और शर्तें मानने के लिए तैयार हो गए.
इसके बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन और सोवियत संघ के नेता मिखाइल गोर्वाचोव ने साल 1987 में इंटरमीडिएट रेंज न्युक्लियर फोर्सेज़ ट्रीटी पर हस्ताक्षर किए.
ये एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि एक लंबे अरसे तक अमरीका और रूस के बीच शीत युद्ध चलने के बाद दुनिया के ये दो सबसे शक्तिशाली देश इस मुद्दे पर एक समझौता कर पाए थे.
इस संधि ने प्रतिबंधित परमाणु हथियारों और ग़ैर-परमाणु मिसाइलों की लॉन्चिंग को रोकने की दिशा में काम किया.


लेकिन ट्रंप को ये संधि पसंद नहीं

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अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने हाल ही में ऐलान किया है कि वह अपने देश को इस संधि से बाहर निकाल रहे हैं.
डोनल्ड ट्रंप कहते हैं, "दुर्भाग्य के साथ ये कहना पड़ रहा है कि रूस ने इस संधि का सम्मान नहीं किया है. ऐसे में हम इस संधि को तोड़ने जा रहे हैं. हम इस संधि से बाहर निकल रहे हैं."
अमरीकी सरकार के इस कदम के बाद सवाल उठता है कि क्या हमें एक परमाणु युद्ध की आशंका से डरना चाहिए या दुनिया को ऐसी संधियों की ज़रूरत है.
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें ये समझना होगा कि अमरीका और सोवियत संघ के बीच जो संधि हुई थी उसका हमारी दुनिया पर क्या असर पड़ा.
आईएनएफ़ संधि का प्रभाव?
साल 1987 में अस्तित्व में आने वाली इस संधि की वजह से मिसाइलों की एक बड़ी संख्या को नष्ट कर दिया गया जिन्हें युद्ध की स्थिति में तैनात किया जा सकता था.

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इसके साथ ही इसने कई तरह के हथियारों पर प्रतिबंध लगा दिए. जमीन से लॉन्च की सकने वाली पांच सौ से पचपन सौ किलोमीटर की रेंज वाली मिसाइलों को बैन कर दिया गया.
लेकिन अमरीकी सरकार का मानना है कि रूस ने इसकैंडर जैसी एक ऐसी मिसाइल बना ली है जो पांच सौ किलोमीटर से भी ज़्यादा की रेंज में हमला कर सकती है जो कि इस संधि का उल्लंघन है.
रूस का कहना है कि उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया है. लेकिन अमरीका और उसके सहयोगी संगठन नेटो के सदस्य देश अपने दावे पर अडिग हैं.
अब आगे क्या होगा?

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अगर अमरीका और रूस के रिश्तों की बात करें तो दोनों के बीच परमाणु संघर्ष का अपना इतिहास रहा है. लेकिन अब सवाल सिर्फ रूस का ही नहीं है.
चीन इस संधि का हिस्सा नहीं है और उसने ऐसे कई हथियारों को तैनात कर रखा है.
अमरीका और उसके सहयोगी देश जापान-दक्षिण कोरिया इस वजह से असुरक्षित महसूस करते हैं.
अब अगर अमरीका इस संधि से बाहर होता है तो वह इंटरमीडिएट रेंज की जमीन से लॉन्च की जा सकने वाली नई मिसाइलें बना सकता है.
ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि इससे हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए बनाई गई सभी व्यवस्थाएं चरमरा सकती हैं.
लंबी दूरी तक परमाणु हथियारों को ले जाने वाली मिसाइलों पर 'स्टार्ट' संधि के तहत प्रतिबंध लगा हुआ है.
लेकिन ये संधि भी 2021 में ख़त्म होने जा रही है.
रूस और अमरीका इस संधि को आगे बढ़ाने के लिए आपसी सहमति बना सकते हैं.
लेकिन अगर दोनों देशों के बीच अविश्वास की भावना बढ़ती गई और ये संधि भी ख़त्म हो गई तो साल 1972 के बाद पहली बार ऐसा होगा जब अमरीका और रूस के लंबी दूरी वाले परमाणु हथियारों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं रहेगा.

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