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पाकिस्तान, सऊदी अरब और चीन के बीच ईरान का खेल?
- Author, अनंत प्रकाश
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
पाकिस्तान सरकार ने हाल ही में चीन के साथ साल 2013 में हुए तकरीबन 50 अरब डॉलर के आर्थिक समझौते सीपीईसी में सऊदी अरब को शामिल करने की घोषणा की थी.
इस मसले पर इमरान सरकार को विपक्षी दलों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा था.
लेकिन अब पाक सरकार ने अपने इस फ़ैसले पर यू-टर्न लेते हुए स्पष्टीकरण दिया है कि सीपीईसी द्विपक्षीय समझौता ही रहेगा. हालांकि, तीन पक्षों वाले समझौते में सऊदी अरब के शामिल होने की संभावना जताई गई है.
इस मामले में अहम बात ये है कि ये फ़ैसला इमरान ख़ान की हालिया सऊदी अरब यात्रा के बाद लिया गया था. इसके बाद सऊदी अरब की ओर से एक डेलिगेशन बीते रविवार पाकिस्तान भी पहुंचा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि सऊदी अरब को इस समझौते में शामिल करने की घोषणा करने के बाद पाकिस्तान को आख़िर क्यों अपने फ़ैसले से पलटना पड़ा.
पाकिस्तान के 'यू-टर्न' की वजह?
पाकिस्तान के राजनीतिक हल्कों में भी इमरान सरकार के इस फ़ैसले को बेहद अचरज के साथ देखा जा रहा है.
पाकिस्तान के सूचना मंत्री फ़वाद चौधरी ने कैबिनेट मीटिंग के बाद कहा था कि चाइना पाकिस्तान इकॉनॉमिक कॉरिडर के तहत सऊदी अरब के साथ तीन रोड इंफ्रास्ट्रक्चर और एनर्जी प्रोजेक्ट्स के लिए समझौता किया गया है और सऊदी अरब को सीपीईसी में तीसरे पार्टनर के रूप में शामिल किया जा रहा है.
लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही है सरकार अपने फ़ैसले से पलट गई.
पाकिस्तान में मौजूद बीबीसी संवाददाता हारून रशीद इस मामले पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, "अभी इस मौके पर किसी को इमरान सरकार के इस फ़ैसले के लिए ज़िम्मेदार वजह की जानकारी नहीं है. हालांकि, ये माना जा रहा है कि संभवत: ईरान सरकार की ओर से किसी तरह का दबाव डाला गया हो क्योंकि सऊदी अरब सीपीईसी के तहत बलूचिस्तान से जुड़े क्षेत्रों में निवेश करना चाहता था जो कि ईरान की सीमा से लगते हुए इलाक़े हैं. ऐसे में ईरान कभी नहीं चाहेगा कि सऊदी अरब उसके इतना नज़दीक आकर बैठ जाए."
कहीं दूसरा 'यमन' बनने का डर तो नहीं?
कई विश्लेषक मानते हैं कि इस समय पाकिस्तान की हालत कुछ ऐसी है कि वह किसी प्रॉक्सी वॉर की रणभूमि बन सकता है जिस तरह अमरीका और सोवियत संघ के बीच संघर्ष में अफ़गानिस्तान को लगभग तीन दशकों तक हिंसा का सामना करना पड़ा.
रशीद बताते हैं, "पाकिस्तान पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि वह सऊदी अरब और ईरान के बीच प्रॉक्सी वॉर वाला देश बना हुआ है. पाकिस्तान सरकार प्रॉक्सी वॉर से जुड़े ख़तरे से परिचित है. ऐसे में वह हमेशा ये कहती रहती है कि वो ईरान और सऊदी अरब को एक नज़र से देखती है. ऐसे में ये संभव है कि इससे बचने के लिए सरकार ने यू-टर्न लिया हो."
अगर प्रॉक्सी वॉर की बात करें तो ईरान और सऊदी अरब यमन में एक लंबे समय से जारी छद्म युद्ध में फंसे हुए हैं.
इसके अलावा इराक़ में भी दोनों देशों के बीच परोक्ष रूप से संघर्ष चल रहा है.
वहीं, अगर पाकिस्तान सरकार के यू-टर्न से सऊदी अरब पर पड़ने वाले प्रभाव की बात करें तो इससे सऊदी अरब पर किसी तरह का प्रभाव पड़ता हुआ नहीं दिखता है.
रशीद कहते हैं, "इससे सऊदी अरब को तो कोई नुकसान नहीं होगा क्योंकि वह कुछ परियोजनाओं पर निवेश करना चाहता था और वह वैसी परियोजनाओं में आगे भी निवेश करेगा. लेकिन ये संभव है कि इस निवेश को आगे जाकर सीपीईसी से जोड़ दिया जाए."
'सऊदी अरब' के लिए कितनी अहम थी सीपीईसी?
चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना सीपीईसी में सऊदी अरब के शामिल होने की ख़बर दक्षिण-पूर्व एशिया में बदलते भू-राजनीतिक आयामों को दिखाती है.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार क़मर आगा बताते हैं, "ये कोई अचानक से होने वाली घटना नहीं है. सऊदी अरब काफ़ी समय से अपने अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों में परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहा है. इसी कोशिश में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को चीन की ओर जाने के लिए आगे बढ़ाया. नवाज़ शरीफ़ ने इसमें अहम भूमिका अदा की क्योंकि वह शाही परिवार के काफ़ी करीबी माने जाते हैं.
"लेकिन अब सऊदी अरब सक्रिय रूप से चीन के साथ जुड़ता हुआ दिख रहा है. पाकिस्तान में सऊदी अरब के पहुंचने की एक वजह ये भी है कि सऊदी अरब पाकिस्तान में ईरान के प्रभाव को नियंत्रित करना चाहता है और वह चीन के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करना चाहता है."
"किंग अब्दुल्ला के समय से सऊदी अरब एक नया गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है. साल 2008 की मंदी के बाद से सऊदी अरब और पाकिस्तान ने एक रणनीतिक फ़ैसला किया था. इस फ़ैसले में ये माना गया कि अमरीका अब एक डूबता हुआ जहाज़ है और अब किसी दूसरे साझेदार की ओर देखना चाहिए."
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'चीन के लिए 'सीपीईसी' का महत्व क्या है'
चीन ने साल 2013 में पाकिस्तान के साथ एक आर्थिक गलियारे का निर्माण करने की परियोजना पर हामी भरी थी.
तकरीबन 50 अरब डॉलर वाली इस परियोजना का उद्देश्य ये है कि चीन अपने देश से लेकर मध्य एशिया में अपना रेल-रोड नेटवर्क स्थापित करना चाहता है.
इसके साथ ही वह स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन आदि का निर्माण भी करेगा जहां पर सस्ते दामों वाले उत्पादों का निर्माण शुरू कर सकता है.
क़मर आगा बताते हैं, "चीन के लिए सीपीईसी अहम है क्योंकि चीन में छोटे-छोटे उत्पादों को बनाने की लागत बढ़ गई है. ऐसे में चीन की योजना ये है कि वह पाकिस्तान और उस जैसे दूसरे देशों में इन उत्पादों का निर्माण कराए और पूरी दुनिया में उनका वितरण करे क्योंकि पाकिस्तान और दूसरे एशियाई देशों में चीन की अपेक्षा मज़दूरी दर काफ़ी कम है और इसके साथ ही दूसरे देशों को ये उत्पाद पहुंचाने में भी चीन की लागत कम आएगी.'
बीते कुछ सालों में चीन की अर्थव्यवस्था ने अपनी उत्पादन शक्ति की वजह से ही एक अलग मुकाम हासिल किया है. इसके साथ ही वह अफ़्रीका और यूरोप तक अपनी पहुंच विकसित करना चाहता है.
इसके साथ ही सीपीईसी को अफ़गानिस्तान तक ले जाने पर सहमति बन चुकी है. चीन अफ़गानिस्तान में शांति स्थापित करने की कोशिशें करता हुआ भी दिख रहा है. अफ़गानिस्तान में शांति स्थापित होना चीन के लिए भी ज़रूरी है. क्योंकि चीन अपने पश्चिमी प्रांतों में, विशेषकर शिनजियांग में अशांति को अफ़गानिस्तान में फैले चरमपंथ नेटवर्क से जोड़कर देखता है.
इसके अलावा चीन और पाकिस्तान की नज़र में अफ़गानिस्तान की ख़निज संपदा भी है.
क़मर आग़ा बताते हैं, "अब तो अफ़गानिस्तान भी सीपीईसी का हिस्सा बनने जा रहा है. पाकिस्तान और चीन की नज़र अफ़गानिस्तान के तीन ट्रिलियन टन के ख़निज़ भंडार पर भी है. पाकिस्तान अकेले अपने दम पर इन संसाधनों का दोहन नहीं कर सकता है, ऐसे में वह चीन को अपने साथ मिला रहा है और ऐसा लगता है कि सऊदी अरब और यूएई भी इसमें शामिल हो रहे हैं."
चीन के पास वर्तमान में अफ़गानिस्तान में 3 अरब डॉलर का तांबा खनन का प्रोजेक्ट मिला हुआ है. लेकिन अस्थिरता की वजह से ये परियोजना अब तक शुरू नहीं हो सकी है.
इसके अलावा ये परियोजना आगे चलकर चीन को मध्य पूर्व और अफ़्रीका तक सीधी पहुंच प्रदान करेगी.
तमाम अफ़्रीकी देशों में कई चीनी कंपनियां आधारभूत ढांचे के निर्माण में लगी हुई हैं. ऐसे में इन क्षेत्रों तक भी चीन की पहुंच आसान हो जाएगी.
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