चीन और भारत का अखाड़ा तो नहीं बन जाएगा मालदीव?

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- Author, आदर्श राठौर
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
हिंद महासागर में श्रीलंका के पास 1200 से ज़्यादा छोटे-छोटे द्वीपों वाले देश मालदीव में हाल ही में चुनाव हुए हैं.
माना जा रहा था कि इन चुनावों में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की जीत होगी, जिन्होंने इस साल फ़रवरी में देश में आपातकाल लगा दिया था. मगर चुनावों के नतीजे चौंकाने वाले रहे. विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने अब्दुल्ला यामीन को हरा दिया.
अब्दुल्ला यामीन के एक बार फिर जीतने की उम्मीद इसलिए जताई जा रही थी क्योंकि कुछ पर्यवेक्षकों का मानना था कि चुनावों के नतीजे उनके पक्ष में करने के लिए गड़बड़ की जा सकती है. विपक्षी पार्टियां भी इसी बात की आशंका जता रही थीं. मगर नतीजे शायद उनकी भी उम्मीदों से ठीक विपरीत रहे.


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लेकिन अब्दुल्ला यामीन की हार को दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ेसर और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार एसडी मुनि अप्रत्याशित नहीं मानते.
इसकी वजह बताते हुए वह कहते हैं, "मुझे ये हार इसलिए अप्रत्याशित नहीं लगती क्योंकि विपक्ष एकजुट हो गया था. यामीन ने विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया था, इंस्टिट्यूशंस को बिगाड़ने की कोशिश की थी. इससे आम जनता ख़ुश नहीं थी. बस इस बात का डर था कि यामीन चुनावों को साफ़-सुथरा नहीं होने देंगे. लेकिन ये चुनाव फ़्री एंड फ़ेयर हुए और नतीजा यह रहा कि यामीन हार गए. इसके लिए सुरक्षा बलों और चुनाव आयोग को श्रेय देना चाहिए."

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फ़रवरी में जब अब्दुल्ला यामीन ने आपातकाल लगाने के बाद चुनाव करवाने का वादा किया था, उस समय बीबीसी से बातचीत में प्रोफ़ेसर एसडी मुनि ने कहा था कि 'चुनावों की क़ामयाबी तभी मानी जाएगी जब ये स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे और यह बात अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के रुख़ के साथ-साथ मालदीव की सेना और पुलिस पर भी निर्भर करती है."
'ऐतिहासिक चुनाव परिणाम'
इस चुनाव में जीत हासिल करने वाले इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को लोग प्यार से इबू कहते हैं. वह मालदीव के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से हैं और कई सालों से लोकतांत्रिक सुधारों की वकालत कर रहे हैं.

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इस बार उन्हें निर्वासन में रह रहे पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडी), जुमहूरी पार्टी और अदालत पार्टी ने संयुक्त रूप से उम्मीदवार बनाया था. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के चीनी अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं कि यह चुनाव ऐतिहासिक है.
वह कहते हैं, "ये बहुत महत्वपूर्ण परिणाम है. कोई नहीं जानता था कि संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार जीतेगा. इस मामले में यह चुनाव ऐतिहासिक है मगर देखना यह होगा कि इसका परिणाम क्या निकलेगा और क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था गहरी हो पाएगी."
यामीन ने सत्ता में रहने के लिए ऐसे क़दम उठाए थे जिनकी पूरी दुनिया में आलोचना हुई थी. इसमें विपक्षी नेताओं से लेकर जजों तक को गिरफ़्तार कर लिया गया था और फिर आपातकाल लगा दिया था. मगर विपक्षी नेताओं की एकजुटता यामीन पर भारी पड़ी.
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यामीन की हार में उनके सौतेले भाई और 30 साल तक मालदीव के राष्ट्रपति रहे मोमून अब्दुल गयूम का भी हाथ भी माना जा रहा है. गयूम के बारे में यह भी कहा जाता है कि साल 2013 में यामीन को सत्ता में पहुंचाने में भी उन्होंने मदद की थी.
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि कहते हैं, "यामीन ने सौतेले भाई गयूम को जेल में डाल दिया था. पूरा परिवार इस कोशिश में लगा हुआ था कि यामीन जीत न पाएं. गयूम खुलकर यामीन को हराने के लिए विपक्ष के साथ आए और ऐसा हुआ भी."
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क्या लोकतंत्र मज़बूत होगा?
अब, जबकि मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ है, यामीन के विपक्ष में रहे नेताओं ने राहत की सांस ली है. राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने वाले मोहम्मद सोलिह का मुख्य मुद्दा यही था कि जेल में डाले गए विपक्षी नेताओं को छोड़ा जाएगा और उन पर लगाई गई सख्तियों को हटाया जाएगा. लेकिन सवाल ये उठता है कि राष्ट्रपति बदल जाने से क्या देश की व्यवस्था भी बदल जाएगी?
यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता का लंबा इतिहास रहा है. 1965 में आज़ादी मिलने के बाद यहां तख़्तापलट का इतिहास रहा है. मोमून अब्दुल गयूम यहां 1978 से लेकर 2008 तक राष्ट्रपति रहे और तीन बार उनके तख्तापलट की भी कोशिश हुई, जिनमें से एक को तो भारत ने अपने सैनिक भेजकर नाकाम किया था.
2008 में यहां नया संविधान बना था और पहली बार राष्ट्रपति के लिए प्रत्यक्ष चुनाव हुए. इस चुनाव में पत्रकार से नेता बने मोहम्मद नशीद की जीत हुई और गयूम सत्ता से बाहर हो गए. मगर 2012 में पुलिस और सेना के एक धड़े में विद्रोह हो गया और दबाव में नशीद को इस्तीफा देना पड़ा.
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इसके बाद 2013 में चुनाव हुए तो पहले दौर में नशीद को ज्यादा वोट मिले मगर अदालत ने उन्हें अवैध घोषित कर दिया और गयूम के सौतेले भाई अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद नशीद पर कई मुकदमे चलाए गए और सज़ा भी सुनाई गई. जेल से वह मेडिकल ट्रिप के बहाने बाहर निकले और तभी से निर्वासित जीवन जी रहे हैं.
तो क्या इन चुनावों के नतीजे आने के बाद यहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी होने की उम्मीद की जा सकती है? प्रोफ़ेसर एसडी मुनि कहते हैं कि इसमें अभी समय लगेगा.
"संविधान बदले या न बदले, संविधान सही से लागू होना चाहिए. अक्सर दस्तावेज़ों में ग़लत बात नहीं होती मगर उसे अच्छी भावना से लागू नहीं किया जाता और समस्या वहीं से पैदा आती है. वहां के संविधान में दिक्कत नहीं है, दिक्कत उसे लागू करने की है."
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बना रहेगा चीन का प्रभाव
मालदीव पिछले कुछ सालों में दक्षिण एशिया की दो बड़ी ताक़तों, भारत और चीन की प्रतिद्वंद्विता के रणक्षेत्र के तौर पर भी उभरा है. साथ ही इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए पश्चिमी देश भी मालदीव में दिलचस्पी रखते रहे हैं.
30 सालों तक मालदीव के राष्ट्रपति रहे मोमूम अब्दुल गयूम को भारत का क़रीबी माना जाता था और एक बार उनके तख़्तापलट की कोशिश को नाकाम करने के लिए भारत ने अपनी सेना भी भेजी थी. उनके बाद राष्ट्रपति बने मोहम्मद नशीद अमरीका और ब्रिटेन से क़रीबी रखने के पक्षधर थे मगर उनके बाद सत्ता में आए अब्दुल्ला यामीन ने भारत और पश्चिमी देशों से दूरी बनाकर चीन से क़रीबी बढ़ा ली थी.

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इस बार के चुनावों में अब्दुल्ला यामीन को चीन समर्थित उम्मीदवार कहा जा रहा था जबकि उन्हें हराने वाले इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को वेस्ट और भारत समर्थित उम्मीदवार माना जा रहा था. स्पष्ट है कि मालदीव वैश्विक कूटनीति का भी अखाड़ा बना हुआ था. प्रोफ़ेसर श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं आगे भी अन्य देशों की रुचि चीन में बनी रह सकती है.
प्रोफ़ेसर कोंडापल्ली कहते हैं, "चीन की बात करें तो पिछले पांच साल में वह मालदीव में बहुत निवेश कर चुका है. यहां उसने विदेश मंत्रालय की नई इमारत बनाई है, नया एयरपोर्ट बनाने में निवेश किया है. पहले इस एयरपोर्ट को भारतीय कंपनी जीएमआर बनाना चाहती थी मगर अब चीन की सरकारी कंपनी इसे बना रही है. वह मालदीव में द्वीप भी खरीदना चाहता है, जैसे उसने साउथ चाइना सी में कृत्रिम द्वीप बनाए हैं. यह देखना होगा कि आगे वह ऐसा कर पाता है या नहीं."

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"यूरोपीय यूनियन और अमरीका समेत अन्य देशों ने पिछले दो सालों में मालदीव पर काफ़ी दबाव डाला है. अब ऐसा लगता तो है कि यहां पर लोकतांत्रिक व्यवस्था बहार होगी मगर नई सरकार को भी फ़ाइनैंस चाहिए होगा. तो चीन का प्रभाव मालदीव पर बना रहेगा."
भारत और चीन की प्रतिद्वंद्विता
पिछले कुछ सालों में यह साफ़ देखा गया कि एक समय भारत का क़रीबी रहा मालदीव उसके प्रतिद्वंद्वी चीन के बेहद क़रीब आ गया है. लेकिन क्या अब्दुल्ला यामीन के हारने और भारत से कथित तौर पर सहानुभूति रखने वाले इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के सत्ता में आने से फिर से मालदीव चीन से दूरी बनाकर भारत के क़रीब आ पाएगा? प्रोफ़ेसर एसडी मुनि मानते हैं कि ऐसा तुरंत संभव नहीं नज़र आता.
"चीन का मालदीव में भारी निवेश है. सरकार बदलने से चीन अपनी रुचि नहीं छोड़ देगा. दूसरी बात यह है कि श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान आदि को लेकर जो पुराने अनुभव हैं, वे बताते हैं कि चीन को आसानी से हटाया नहीं जा सकता. ऐसे में यह समझना कि सरकार बदलने से मालदीव पर चीन का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा, ग़लतफ़हमी है."
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तो कहीं ऐसा तो नहीं कि यामीन के सत्ता से हटने के बाद पश्चिमी ताकतों व भारत और चीन के बीच मालदीव को अपने प्रभाव में लेने की होड़ मच जाएगी? प्रोफ़ेसर श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं कि इस मामले में चीन का रवैया व्यावहारिक रहेगा और जहां तक भारत की बात है, मालदीव से उसकी भौगोलिक निकटता उसके पक्ष में जाती है.
"इस मामले में चीन का रवैया व्यावहारिक होगा. आप इमरान ख़ान को देखें, महातिर मोहम्मद को देखें, नेपाल में ओली को देखें या फिर श्रीलंका में सिरिसेना को देखें. तो जो भी नया नेता लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर आता है, उन्हें अप्रोच किया जाता है और इसमें कुछ प्रबंधन भी होता है. ऐसे में यह देखना होगा कि दो महीने बाद नई सरकार का भारत और चीन को लेकर क्या रवैया रहेगा."
भारत को मिलेगा नज़दीकी का फ़ायदा
प्रोफ़ेसर श्रीकांत यह भी बताते हैं कि भारत और मालदीव के भौगोलिक रूप से नज़दीक होने का फ़़ायदा मिलेगा.

वह उदाहरण देते हुए बताते हैं, "तीन-चार साल पहले माले में वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट ख़राब हुआ था तो लोगों को पीने के लिए साफ़ पानी नहीं मिल रहा था. तब भारत ने तुरंत वहां पीने का पानी भेजा था जबकि चीन को ऐसा करने में देर हो गई थी. इसमें जियोग्राफ़ी का भी एक बड़ा फ़ैक्टर है. मालदीव से भारत नज़दीक है और चीन दूर. लगभग छह-सात हज़ार किलोमीटर दूर. ऐसे में चीन की प्रतिक्रिया उसी तरह से व्यावहारिक होगी जैसी अन्य देशों को लेकर रही थी. इसलिए इस मुद्दे पर भारत और चीन में कोई दिक्कत नहीं होगी."
हालांकि प्रोफ़ेसर श्रीकांत कोंडापल्ली यह भी मानते हैं कि नए नेता का रुख़ भारत के प्रति राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की तुलना में ज्यादा सकारात्मक रह सकता है.
वह बताते हैं, "पिछले दो-तीन सालों में कई दिक्कतें हुईं. जजों पर प्रतिबंध लगाए गए, भारतीय उच्चायुक्त को रोका गया, एक हेलिकॉप्टर वापस भारत भेजा गया, गयूम और उनके बेटे को नज़रबंदी जैसी स्थिति में रखा गया, वैसा अब नहीं होगा. पिछले नेता ने भारत विरोधी रुख़ अपनाया था मगर नए नेता का रवैया प्रो इंडिया रहेगा और वह फ़्रीडम ऑफ प्रेस भी लागू करेंगे ऐसा लगता है. मगर मालदीव को निवेश और विकास चाहिए. ऊपर से कर्ज भी है मालदीव पर. तो आर्थिक क्षेत्र में चीन का निवेश रहेगा."
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'अभी भी हो सकती है उठापटक'
मालदीव में चुनाव घोषित होने से लेकर नए नेता को सत्ता में आने में वहां की व्यवस्था के हिसाब से दो महीने तक का समय लग सकता है. ऐसे में प्रोफ़ेसर एसडी मुनि और प्रोफ़ेसर श्रीकांत कोंडापल्ली का मानना है कि इस दौरान वहां उठापटक हो सकती है.
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि का तो मानना है कि चीन और उनके क़रीबी अब्दुल्ला यामीन सत्ता हस्तांतरण के दौरान होने वाले किसी तरह के विवाद का फ़ायदा भी उठा सकते हैं.
वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि यहां सत्ता हस्तांतरण आसान नहीं होगा. क्योंकि विपक्ष एक ही मुद्दे पर साथ आया था कि हमें मिलकर अब्दुल्ला यामीन को हटाना है. अब उनके सामने मुद्दा है कि सत्ता को कैसे साझा करना है. जब तक ये मामला तय नहीं होगा, हो सकता है कि चीन और यामीन इसका लाभ उठाने की कोशिश करें."

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बहरहाल, अब्दुल्ला यामीन ने हार स्वीकार ली है और इब्राहिम मोहम्मद सोलिह अपने समर्थकों के साथ जश्न मना रहे हैं. पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था वाले एशिया के इस सबसे छोटे देश के सामने विदेशी कर्ज़, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और धार्मिक कट्टरपंथ जैसी कई चुनौतियां खड़ी हैं. इन चुनौतियों से वह तभी निपट पाएगा जब यहां राजनीतिक स्थिरता आएगी. मगर राष्ट्रपति चुनाव जीतने वाले इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को उम्मीद है कि उनके देश में नए युग की शुरुआत हुई है.
जीत तय होने के बाद दिए गए अपने भाषण में सोलिह ने जनता को इन शब्दों से आश्वस्त किया-
"ये ऐतिहासिक अवसर है... हममें से कई लोगों के लिए ये बड़ी कठिन यात्रा रही है. ऐसी यात्रा जो जेल या निर्वासन से होकर गुज़री है. ये एक ऐसी यात्रा रही है, जिसमें हमने लोकतांत्रिक संस्थाओं का राजनीतीकरण और दमन देखा है. ये एक ऐसी यात्रा रही है, जो बैलट बॉक्स पर आकर ख़त्म हुई है. अब नेतृत्व जनता के हाथ में होगा."



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