जलालुद्दीन हक्क़ानी: अमरीका की नज़रों में हीरो से विलेन तक

    • Author, आदर्श राठौर
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

पाकिस्तान के साथ लगती सीमा पर है अफ़ग़ानिस्तान का ख़ूबसूरत पहाड़ी प्रांत- पक्तिया. छोटी-छोटी घाटियों वाले इसे क़बायली इलाक़े में ज़्यादातर पश्तून रहते हैं. सर्दियों में ये वादियां बर्फ़ की सफ़ेद चादर से ढक जाती हैं.

मगर ये प्रांत अपनी ख़ूबसूरती से ज़्यादा दुनिया के मोस्ट वॉन्टेड चरमपंथियों में शुमार रहे जलालुद्दीन हक्कानी की वजह से पहचाना जाता है, जिनका यहां जन्म हुआ था. जदरान क़बीले से संबंध रखने वाले जलालुद्दीन हक्कानी एक समय अमरीका और उसके सहयोगी देशों के लिए हीरो थे, मगर बाद में विलेन बन गए.

1979 में जब सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया, तब हक्क़ानी एक ऐसे मुजाहिदीन के तौर पर उभरे जिन्होंने सोवियत सेनाओं की नाक में दम कर दिया. अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए उस समय बड़ी खुशी से पाकिस्तानी सेना के जरिए जलालुद्दीन हक्कानी और उनके जैसे मुजाहिदीनों को आर्थिक और सामरिक मदद दे रही थी.

पाकिस्तान में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार सबाहत ज़कारिया बताती हैं कि सीआईए के लिए हक्कानी काफी महत्व रखते थे.

वह बताती हैं, "सोवियत हमले के समय जलालुद्दीन हक्कानी जाने-माने मुजाहिदीन नेता थे. उस समय उनकी अपनी अलग पहचान थी."

"ऐसे में सीआईए और आईएसआई ने मिलकर उन्हें फंड किया, मिलिट्री ट्रेनिंग दी और सोवियत स्ट्रैटिजी में उन्हें एक महत्वपूर्ण टूल समझा."

अमरीका की आंखों के तारे

सीआईए और आईएसआई की मदद से हक्कानी नेटवर्क अफ़ग़ानिस्तान में अनुभवी और दक्ष लड़ाकों का एक समूह बन गया था. मगर 1990 के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ का विघटन और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का उदय हुआ, अमरीका और उसके सहयोगियों ने हक्कानी से दूरी बनाना शुरू कर दिया.

मगर बावजूद इसके हक्कानी नेटवर्क का प्रभाव कम नहीं हुआ. कई बार जलालुद्दीन हक्कानी से मिल चुके पत्रकार अहमद राशिद बताते हैं कि उन्होंने फंड जुटाने के लिए और भी तरीके इजाद कर लिए थे.

वह बताते हैं, "वह कमाल के आदमी थे. मतलब जिस समय अफ़गान मुजाहिदीन सोवियत हमले के ख़िलाफ लड़ रहे थे तब वह अमरीकी राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन और सीआईए की आंखों के तारे थे. वह अपने आदमियों के बीच भी लोकप्रिय थे. उन्होंने खूब पैसा बनाया. ड्रग्स का ख़ूब कारोबार किया. ड्रग्स के जरिए अपनी गतिविधियों के लिए पैसा जुटाया. वह पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियों और सेना के भी करीब थे और उनके लिए कई काम किए.

तालिबान के साथ होकर भी अलग रहे

अफ़ग़ानिस्तान में जब एक तरफ़ तालिबान था और दूसरी तरफ अल कायदा, तब भी हक्कानी नेटवर्क का अपना अलग अस्तित्व रहा. यहां तक कि वह तालिबान की सरकार में मंत्री भी रहे मगर अपने संगठन को अलग बनाए रखा.

वरिष्ठ पत्रकार सबाहत ज़कारिया बताती हैं कि जलालुद्दीन हक्कानी तालिबान के साथ होकर भी उससे दूर रहे क्योंकि इसी में उनका फ़ायदा था. इसीलिए उन्होंने संगठन का तालिबान में विलय नहीं किया.

वह बताती हैं, "हक्क़ानी नेटवर्क दरअसल पहले से ही मौजूद था. वह एक फैमिली नेटवर्क है. उत्तरी वज़ीरीस्तान और जहां से वो मूलत: हैं, वहां पर ऑपरेट करते हैं. नौशेरा के जिस मदरसे से उन्होंने तालीम पाई थी, उसे मुजाहिदों का अड्डा समझा जाता है. तालिबान में मिलने का उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि उनके पास अपनी ताक़त थी. इसीलिए उन्होंने तालिबान सरकार में कैबिनेट मंत्रालय लिया था और सहयोग करते रहे थे."

9/11 के बाद बदले हालात

11 सितंबर, 2001... अमरीका के ट्विन टावर पर हुए हमले के लिए अमरीका ने अल कायदा को जिम्मेदार बताते हुए अफगानिस्तान में अभियान चलाने का एलान किया. इसी दौरान जलालुद्दीन हक्कानी तालिबान के शीर्ष नेता के तौर पर आख़िरी बार पाकिस्तान की आधिकारिक यात्रा पर आए मगर इस्लामाबाद से वह लापता हो गए.

कुछ महीनों बाद वह वज़ीरिस्तान में सामने आए. यहीं से अब उन्होंने कुछ समय पहले तक अपने सहयोगी रहे अमरीका के खिलाफ अभियान का एलान किया जो अब अफ़ग़ानिस्तान पर हमले कर रहा था.

वरिष्ठ पत्रकार अहमद राशिद बताते हैं कि हक्कानी का अल क़ायदा का साथ देने का फ़ैसला बहुत ग़लत था.

वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि ये उनके जीवन की सबसे बड़ी ग़लती थी. वह तालिबान सरकार में मंत्री थे मगर तालिबान का अपमान करते थे. फिर 9/11 हुआ और सीआईए ने उनसे किनारा कर लिया. फिर लादेन ने भी उनसे किनारा कर लिया था. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होंने अल क़ायदा में शामिल होने का फैसला किया था."

अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी अभियान ने अल कायदा, तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को एक-दूसरे के क़रीब लाकर रख दिया. इसी के साथ अफगानिस्तान में अमरीका के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी रहे हक्कानी मोस्ट वॉन्टेड चरमपंथी बन गए.

वज़ीरिस्तान में पनाह

अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का अमरीकी सेना की मदद करना हक्क़ानी का रास नहीं आया और उनके आपसी संबंधों में खटास आ गई. इसी दौरान हक्कानी नेटवर्क ने दक्षिण पूर्व अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें गहरी की और यहीं से अभियान चलाया.

अमरीका ने कई आत्मघाती हमलों और अपहरणों के लिए हक्कानी को ज़िम्मेदार बताया. जब अमरीका ने यहां ड्रोन और हवाई हमले किए तो तालिबान और हक्कानी लड़ाकों ने भागकर पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान में पनाह ली और यहां से गतिविधियां चलाईं.

पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार सबाहत ज़कारिया बताती हैं, "हक्कानी नेटवर्क का पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान इलाके में बेस था. वे अफ़ग़ानिस्तान में जाकर भी ऑपरेट करते रहे हैं. इसे सॉफ़्ट बॉर्डर कहा जा सकता है और यहां से इधर-उधर आ जाकर ऑपरेशन चलाना संभव है और उस समय ज़्यादा संभव था."

"हक्क़ानी पावर ब्रोकर थे, माफ़िया की तरह. अल क़ायदा और ओसामा के साथ उनके अलग रिश्ते थे और तालिबान के साथ अलग थे. पाकिस्तान और अफगानिस्तान में उनका काफी प्रभाव था."

पाकिस्तान के साथ रिश्ते

हक्कानी नेटवर्क ने अपनी सुविधा के हिसाब से रिश्ते बनाए और तोड़े भी. तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ भी इसकी क़रीबी रही. अमरीका की कार्रवाई के बाद अफगानिस्तान से भागे लड़ाकों ने वज़ीरिस्तान की ओर आना शुरू किया. यहां उनका इतना प्रभाव हो गया कि उनके साथ संघर्ष में पाकिस्तान के 700 जवानों की मौत हो गई. इसके बाद हालात ऐसे हो गए 2006 तक पाकिस्तानी अधिकारी वज़ीरिस्तान में क़दम तक नहीं रख सकते थे. इससे हक्क़ानी और अन्य चरमपंथी समूहों को यहां पर और मज़बूत होने में मदद मिली.

मगर पाकिस्तान पर हक्कानी के खिलाफ़ नरम रवैया रखने के आरोप लगते रहे हैं, हालांकि पाकिस्तान इनसे इनकार करता है. 2011 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने भी पाकिस्तानी एजेंसियों के चरमपंथियों से रिश्ते होने की बात कही थी.

उन्होंने कहा था, "इसमें कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसियों के ऐसे लोगों से रिश्ते हैं जो हमारे लिए समस्या हैं. मैंने सार्वजनिक तौर पर भी यह कहा है और पाकिस्तानी अधिकारियों से भी. उन्हें लगता है कि स्वतंत्र अफगानिस्तान उनकी सुरक्षा के लिए खतरा होगा क्योंकि वह भारत के क़रीब आ सकता है जिसे वो अपना दुश्मन समझता है."

अमरीका ने साल 2012 में ही हक्कानी नेटवर्क को प्रतिबंधित कर दिया था मगर पाकिस्तान ने 2014 में पेशावर में स्कूल पर हुए चरमपंथी हमले के बाद 2015 में लाए गए नैशनल ऐक्शन प्लान के तहत इस पर बैन लगाया.

मगर हाल ही में फिर अमरीका ने यह कहते हुए पाकिस्तान को चरमपंथी समूहों के खिलाफ लड़ने के लिए दी जाने वाली मदद रोक दी कि वह इस दिशा में सही से काम नहीं कर रहा.

अफ़गानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू बताते हैं, "जो अमरीका कहता है वो सही है. पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क और तालिबान का इस्तेमाल करता रहा है. हक्कानी उसका इंस्ट्रूमेंट है. हक्कानी नेटवर्क ने भारत के दूतावास पर दो बार हमला किया था. यह कहना ग़लत है कि हक्कानी नेटवर्क और तालिबान पाकिस्तान के इशारों पर नहीं चलते हैं."

एक समय सोवियत संघ के आक्रमण के ख़िलाफ़ अफ़ग़ान संघर्ष के प्रतीक के तौर पर पहचाने जाने वाले जलालुद्दीन हक्कानी का अफ़ग़ानिस्तान में एक दशक के ख़ून ख़राबे को लेकर भी ज़िक्र होता है. मगर जानकार कहते हैं कि उनकी मौत का हक्कानी नेटवर्क पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि कई साल पहले ही वह अपने बेटे सिराजुद्दीन को जिम्मेदारी सौंप चुके थे.

आज सिराजुद्दीन अफ़गान तालिबान के शीर्ष नेताओं में से एक हैं और अफ़गान सरकार, अमरीका के सहयोगियों और भारत का मानना है कि वे अभी भी अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता के लिए ख़तरा बने हुए हैं.

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