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क्या था शेख़ मुजीबुर रहमान की हत्या का सच?
- Author, रेहान फ़ज़ल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
सात मार्च 1971 के दिन ढाका का रेसकोर्स मैदान लोगों से खचाखच भरा था. वहाँ मौजूद लगभग दस लाख लोगों के हाथों में बांस के डंडे थे, पाकिस्तानी सैनिकों के संभावित हमले से बचने के लिए नहीं, बल्कि एक प्रतिरोध या अवज्ञा के प्रतीक के तौर पर.
आज़ादी के पक्ष में नारे रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. भीड़ का जायज़ा लेने के लिए पाकिस्तानी सेना का एक हेलिकॉप्टर ऊपर चक्कर लगा रहा था. सरकारी आदेश की अवहेलना करते हुए रेडियो पाकिस्तान का ढाका स्टेशन शेख़ मुजीब के उस भाषण को पूरे प्रांत में लाइव प्रसारित करने की अंतिम तैयारी कर रहा था.
हालांकि सेना ने भी उनकी इस कोशिश को विफल करने की पूरी तैयारी कर रखी थी. शेख़ मुजीब ने बोलना शुरू किया. वो भाषण नहीं एक ललकार थी पाकिस्तानी सैनिक शासन के ख़िलाफ़.
बाद में इसे उपमहाद्वीप में दिए गए सभी राजनीतिक भाषणों में सबसे ऊँचे पायदान पर रखा गया.
कुछ दिनों बाद समस्या का राजनीतिक हल ढ़ूँढ़ने के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति याहया ख़ाँ ढाका पहुँचे. फ़ौरन ही संकेत मिलने लगे थे कि याहया ख़ाँ सत्ता सौंपने की पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की माँग को अस्वीकार करने जा रहे थे.
23 मार्च को जब शेख़, याहया से बात करने प्रेसीडेंट हाउस गए तो उनकी कार में बांग्लादेश का झंडा लगा हुआ था, मानो वो आज़ाद बंगाली राज्य के नेता के पद पर आसीन हो चुके हों.
ऑपरेशन सर्चलाइट
25 मार्च की शाम होते-होते ये ख़बर फैलने लगी कि राष्ट्रपति याहया ख़ाँ अपने दल सहित वापस पाकिस्तान लौट गए हैं. रात साढ़े ग्यारह बजे लगा कि जैसे पूरे शहर पर पाकिस्तानी सेना ने हमला बोल दिया हो.
ऑपरेशन सर्चलाइट की शुरुआत हो चुकी थी. सैयद बदरुल अहसन अपनी किताब फ़्रॉम रेबेल टु फ़ाउंडिंग फ़ादर में लिखते हैं कि शेख़ की सबसे बड़ी बेटी हसीना ने उन्हें बताया कि जैसे ही गोलियों की आवाज़ सुनाई दी, शेख़ ने वायरलैस से संदेश भेज बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा कर दी.
शेख़ ने कहा, "मैं बांग्लादेश के लोगों का आह्वाहन करता हूँ कि वो जहाँ भी हों और जो भी उनके हाथ में हो, उससे पाकिस्तानी सेना का प्रतिरोध करें. आपकी लड़ाई जब तक जारी रहनी चाहिए जब तक पाकिस्तानी सेना के एक-एक सैनिक को बांग्लादेश की धरती से निष्कासित नहीं कर दिया जाता."
रात को क़रीब एक बजे पाकिस्तानी सेना का एक दल, 32 धनमंडी स्थित शेख़ मुजीब के घर पर पहुंचा जहाँ शेख़ मुजीब उनका इंतज़ार कर रहे थे. गेट पर पहुंचते ही सैनिकों ने ताबड़तोड़ गोलियाँ चलानी शुरू कर दी. शेख़ की सुरक्षा देख रहे एक स्थानीय सुरक्षा कर्मी को भी एक गोली लगी और उसकी तुरंत मौत हो गई.
सेना के एक अफ़सर ने लाउडस्पीकर पर चिल्ला कर कहा कि शेख़ नीचे आकर सेना के सामने आत्म समर्पण करें. शेख़ खुद नीचे चल कर आए जहाँ सेनिकों ने बंदूक़ों के बट से धक्का देते हुए उन्हें एक जीप में बैठाया और वहाँ से निकल गए.
शेख़ को गिरफ़्तार करने वाले अफ़सर ने वायरलेस पर संदेश दिया, "बिग बर्ड इन केज, स्मॉल बर्ड्स हैव फ़्लोन.'' (बड़ी चिड़िया पिंजड़े में हैं, छोटी चिड़िया उड़ गई हैं)
बदरुल अहसन लिखते हैं कि शेख़ को गिरफ़्तार करने वाले अफ़सर ने जनरल टिक्का खाँ से फ़ोन पर पूछा, "क्या वो चाहते हैं कि शेख़ मुजीब को उनके सामने पेश किया जाए."
जनरल ने ग़ुस्से में जवाब दिया था, "मैं उसका चेहरा नहीं देखना चाहता." शेख़ को तीन दिनों तक कैंटोनमेंट के आदमजी कॉलेज में रखा गया और फिर कड़ी सुरक्षा के बीच पाकिस्तान ले जाया गया.
मौत की सज़ा
पाकिस्तान में उन्हें मियांवाली जेल में एक कालकोठरी में रखा गया जहाँ उन्हें रेडियो टेलीविज़न तो दूर, अख़बार तक उपलब्ध नहीं कराया गया.
शेख़ क़रीब नौ महीने तक उस जेल में रहे. छह दिसंबर से भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़त्म होने तक यानी 16 दिसंबर के बीच एक सैनिक ट्राइब्यूनल ने उन्हें मौत की सज़ा सुना दी.
इस बीच पाकिस्तान की सत्ता ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के हाथ में आ गई. उन्होंने आदेश दिया कि मुजीब को मियांवाली जेल से निकाल कर रावलपिंडी के पास एक गेस्ट हाउस में ले जाया जाए.
कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा, बियॉन्ड द लाइन्स में लिखते हैं, "मुजीब ने मुझे बताया कि एक दिन अचानक भुट्टो उनसे मिलने गेस्ट हाउस आ गए. मुजीब ने उनसे पूछा, आप यहाँ कैसे? भुट्टो ने जवाब दिया, मैं पाकिस्तान का राष्ट्रपति हूँ. इस पर मुजीब हंसने लगे. बोले इस पद पर तो मेरा हक़ बनता है. भुट्टो सीधे मुद्दे पर आ गए. उन्होंने पेशकश की कि अगर शेख़ राज़ी हों तो विदेशी मामले, रक्षा और संचार विभाग को पाकिस्तान और बांग्लादेश मिल कर चलाएं."
कुलदीप नैयर ने बीबीसी को भी बताया, "शेख़ ने कहा कि इस समय मैं आपकी क़ैद में हूँ. अपने लोगों से सलाह मशविरा किए बग़ैर मेरे लिए कोई वचन देना संभव नहीं होगा."
बांग्लादेश के पूर्व विदेश मंत्री डॉक्टर कमाल हुसैन भी जो उस समय शेख़ के साथ पाकिस्तानी जेल में थे, वे इस बात की पुष्टि करते हैं.
वे बताते हैं, "भुट्टो आख़िरी समय तक पाकिस्तान के साथ कुछ न कुछ संबंध बनाए रखने के लिए दबाव डालते रहे. जिस दिन शेख़ को छोड़ा जाना था और वो लंदन के लिए उड़ान भरने वाले थे, भुट्टो ने कहा कि वो एक दिन और रुक जाएं क्योंकि अगले दिन ईरान के शाह आ रहे थे और वो उनसे मिलना चाहते थे. शेख़ समझ गए कि वो ईरान के शाह से उन पर दबाव डलवाना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि भुट्टो का प्रस्ताव उन्हें मंज़ूर नहीं है. अगर वो चाहें तो उन्हें दोबारा जेल भिजवा सकते हैं."
बांग्लादेश वापसी
सात जनवरी 1972 की रात, भुट्टो स्वयं मुजीब और कमाल हुसैन को छोड़ने रावलपिंडी के चकलाला हवाई अड्डे गए. उन्होंने बिना कोई शब्द कहे मुजीब को विदा किया और मुजीब भी बिना पीछे देखे तेज़ी से हवाई जहाज़ की सीढ़ियाँ चढ़ गए.
लंदन में दो दिन रुकने के बाद मुजीब नौ जनवरी की शाम ढाका के लिए रवाना हुए. रास्ते में वो कुछ घंटों के लिए नई दिल्ली में रुके.
डॉक्टर कमाल हुसैन याद करते हैं, "भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, उनका पूरा मंत्रिमंडल, सेना के तीनों अंगों के प्रमुख और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर राय, शेख़ के स्वागत में दिल्ली के हवाई अड्डे पर मौजूद थे. सबकी आँखे नम थीं. ऐसा लग रहा था कि किसी परिवार का पुनर्मिलन हो रहा हो."
सेना के कैंटोनमेंट के मैदान पर मुजीब ने एक जनसभा में बांग्लादेश के स्वाधीनता संग्राम में मदद करने के लिए भारत की जनता को धन्यवाद दिया. शेख़ ने अपना भाषण अंग्रेज़ी में शुरू किया. लेकिन तभी मंच पर मौजूद इंदिरा गांधी ने उनसे अनुरोध किया कि वो बांगला में भाषण दें.
दिल्ली में दो घंटे रुकने के बाद जब शेख़ ढ़ाका पहुंचे तो क़रीब दस लाख लोग उनके स्वागत में ढाका हवाई अड्डे पर मौजूद थे.
नौ महीने तक पाकिस्तानी जेल में रहने के बाद काफ़ी वज़न खो चुके शेख़ मुजीब ने अपने दाहिने हाथ से अपने बढ़े हुए बालों को पीछे किया और प्रधानमंत्री ताजउद्दीन अहमद ने आगे बढ़ कर अपने नेता को अपनी बाहों में भर लिया. दोनों की आँखों से आँसू बह निकले.
रेसकोर्स मैदान पर लाखों की भीड़ के सामने उन्होंने रबीन्द्रनाथ टैगोर को याद किया. महान कवि को उद्धृत करते हुए शेख़ ने कहा कि आपने एक बार शिकायत की थी कि बंगाल के लोग सिर्फ़ बंगाली ही बने रहे, अभी तक सच्चे इंसान नहीं बन पाए.
नाटकीय अंदाज़ में मुजीब ने कहा, "हे महान कवि वापस आओ और देखो किस तरह तुम्हारे बंगाली लोग उन विलक्षण इंसानों में तब्दील हो गएं हैं जिसकी कभी तुमने कल्पना की थी."
सीज़र की मौत
शेख़ मुजीब ने सत्ता संभाली और युद्ध से तहस-नहस बांग्लादेश के पुनर्निर्माण में लग गए. लेकिन हर परीकथा का एक दुखद अंत भी होता है. 1975 आते-आते चीज़ें उनके हाथ से निकलने लगीं.
भ्रष्टाचार बढ़ने लगा और भाई-भतीजावाद को शह मिलने लगी. लोगों में असंतोष के साथ-साथ सेना में भी असंतोष बढ़ने लगा.
15 अगस्त, 1975 की सुबह सेना के कुछ जूनियर अफ़सरों ने शेख़ के 32 धनमंडी स्थित आवास पर हमला बोल दिया. गोलियों की आवाज़ सुनते ही शेख़ ने सेनाध्यक्ष जनरल शफ़ीउल्लाह को फ़ोन मिलाया.
जनरल शफ़ीउल्लाह ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि मुजीब बहुत ग़ुस्से में थे. उन्होंने कहा, ''तुम्हारे सैनिकों ने मेरे घर पर हमला बोल दिया है. उन्हें वापस आने का आदेश दो. मैंने उनसे पूछा कि क्या आप अपने घर से निकल कर बाहर आ सकते हैं?''
यहाँ पर सैयद बदरुल अहसन सेनाध्यक्ष के रवैए पर सवाल उठाते हैं. बीबीसी से उन्होंने कहा, "आप कैसे अपने राष्ट्रपति से इस तरह की बात कह सकते हैं. क्या आप ये सोच रहे थे कि वो अपने घर की दीवार फलांग कर सड़क पर आ जाएंगे और वो भी उस समय जब उनके चारों तरफ़ गोलियाँ चल रही हों."
नीचे हो रही गोलीबारी को सुन शेख़ सीढ़ियों से नीचे आ रहे थे कि उनपर गोली चलाई गई. मुजीब मुँह के बल गिर पड़े और नीचे तक गिरते चले गए. उनका फ़ेवरेट पाइप अभी भी उनके हाथ में था. इसके बाद मौत का तांडव शुरू हुआ.
पहले बेगम मुजीब को गोली मारी गई. फिर बारी आई उनके दूसरे पुत्र जमाल की. उनकी दोनों बहुओं को भी नहीं बख़्शा गया. और यहाँ तक कि उनके सबसे छोटे बेटे 10 साल के रसेल मुजीब को भी मौत के घाट उतार दिया गया.
आंसू बहाने वाले नहीं थे
एक ज़माने में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख रहे सुभाष चक्रवर्ती ने बीबीसी को बताया कि भारत के बांग्लादेश में तत्कालीन उच्चायुक्त शमर सेन उनके दोस्त थे. उन्होंने उन्हें बताया कि उस दिन 32 घनमंडी में वास्तव में क्या हुआ था.
उन्होंने कहा, "जब ये लोग मुजीब के घर में घुसे तो वो बाहर आए. उन्हें लगा कि वो ग़लती से उनके घर में घुस आए हैं. उन्होंने चिल्ला कर कहा तुम चाहते क्या हो. उन्हें अंदाज़ा ही नहीं था कि वो लोग उन्हें मारने आए हैं. उन्हें मारा गया, बेरहम तरीक़े से और मारने के बाद उन्हें किसी के कंधे पर नहीं बल्कि घसीटते हुए घर से बाहर लाया गया और इंतज़ार करते हुए ट्रक में फेंक दिया गया."
16 अगस्त की सुबह सैनिकों ने सारे शवों को इकट्ठा किया और मुजीब को छोड़ कर सबको बेनानी क़ब्रिस्तान में एक बड़े गड्ढ़े में दफ़ना दिया. मुजीब के शव को हेलिकॉप्टर से उनके पैतृक गाँव टांगीपारा ले जाया गया.
सैनिकों ने उनके गाँव को घेर लिया ताकि लोग उनकी नमाज़े जनाज़ा में शरीक न हो पाएं. सैनिक ज़ोर दे रहे थे कि शव को जितनी जल्दी हो सके दफ़नाया जाए. लेकिन गाँव का एक मौलाना इस बात पर अड़ गया कि शव को बिना नहलाए दफ़नाया नहीं जा सकता.
बदरुल अहसन लिखते हैं कि गाँव में नहलाने के लिए कोई साबुन उपलब्ध नहीं था. अंतत: उन्हें कपड़ा धोने वाले खुरदरे साबुन से नहलाया गया और उनके पिता की क़ब्र के बग़ल में दफ़ना दिया गया.
उस शाम बारिश शुरू हुई तो उसने रुकने का नाम नहीं लिया. गाँव के बड़े बूढ़ों को कहते सुना गया, ''उनको जिस नृशंसता से मारा गया, शायद प्रकृति भी उसे बर्दाश्त नहीं कर पाई.''
मूसलाधार बारिश उसके आँसुओं का प्रतीक थी. लेकिन इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि उस शाम बांग्लादेश के राष्ट्रपिता के लिए आंसू बहाने वाले बहुत कम लोग थे.
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