अर्दोआन: एक प्रवासी का बेटा कैसे बना तुर्की का सबसे ताक़तवर नेता

उनके क़रीबी उन्हें 'बेयेफ़ेंदी' (सर) कहते हैं. उनके प्रशंसक उन्हें कुछ और नहीं बल्कि 'रेइस' (बॉस) कहते हैं.

रविवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव में 52 प्रतिशत से ज़्यादा वोटों से जीतने के बाद रेचेप तैय्यप अर्दोआन भविष्य में 'सर' और 'बॉस' से भी कहीं ज़्यादा ताक़तवर होने वाले हैं.

इतना ही नहीं, इन वोटों के बिना भी 64 साल के ये इस्लामवादी नेता तुर्की के इतिहास में दूसरे सबसे ताक़तवर नेता थे. उनसे आगे सिर्फ़ तुर्की के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क या मुस्तफ़ा कमाल पाशा का नाम आता है.

अर्दोआन से ऊपर कोई नहीं

नई जीत के साथ ही अर्दोआन को कई नई ताक़तें मिलेंगी. इन ताकतों की जड़ में साल 2017 में उनकी अगुआई में हुआ एक जनमत संग्रह है. इसके मुताबिक तुर्की के राष्ट्रपति के पास अब वो सभी शक्तियां होंगी जो पहले प्रधानमंत्री के पास हुआ करती थीं.

तुर्की में अब प्रधानमंत्री का पद ख़त्म कर दिया गया है और उसकी सभी कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को स्थानानांतरित कर दी गई हैं.

अर्दोआन अब अकेले वो शख़्स होंगे जो वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर, मंत्रियों, जजों और उप राष्ट्रपति की नियुक्ति करेंगे.

अर्दोआन ही देश की न्यायिक व्यवस्था में दखल दे सकेंगे, वो ही देश में बजट का बंटवारा करेंगे और ये उनका ही व्यक्तिगत फ़ैसला होगा कि साल 2016 के सेना के असफल तख़्तापलट की कोशिश के बाद लगे आपातकाल को हटाएं या लागू रखें.

इतने अधिकारों के बाद कोई ऐसी संस्था या व्यक्ति नहीं होगा जो अर्दोआन के फ़ैसलों की समीक्षा करे.

नये संविधान के मुताबिक, अर्दोआन न सिर्फ़ अगले पांच साल के लिए सरकार के सर्वेसर्वा बने रहेंगे बल्कि वो साल 2023 में भी चुनाव लड़ सकते हैं और जीतने पर साल 2028 तक सत्ता में बने रह सकते हैं.

प्रवासी का बेटा सबसे ताक़तवर नेता

ये अपने आप में दिलचस्प है कि जॉर्जिया के एक प्रवासी का बेटा आज तुर्की का सबसे ताक़तवर शख़्स कैसे बन गया?

यहां तक पहुंचने के लिए अर्दोआन ने लंबा सफ़र तय किया है.

उनका जन्म कासिमपासा में और पालन-पोषण काला सागर के पास हुआ. अर्दोआन को इस्लामिक आंदोलन ने तुर्की में प्रसिद्धि दिलाई.

तुर्की की सत्ता के शिखर तक पहुंचने से पहले अर्दोआन जेल भी गए, 11 साल तक प्रधानमंत्री रहे और हिंसक तख़्तापलट की कोशिशों का सामना भी किया.

पिछले 15 सालों में उन्होंने 14 चुनावों (छह विधायी, तीन जनमतसंग्रह, तीन स्थानीय और दो राष्ट्रपति) का सामना किया और सभी में जीते.

उनके समर्थकों में ज़्यादातर लोग रूढ़िवादी मुस्लिम हैं. इनका कहना है कि उनके नेता ने तुर्की में आर्थिक सुधार किए और अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश को सम्मानजक स्थान दिलाया.

अर्दोआन की उपलब्धियां

अर्दोआन की शुरुआती उपलब्धियों में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और मौत की सज़ा को ख़त्म करना शामिल है. मौत की सज़ा को ख़त्म किए जाने का स्वागत यूरोपीय संघ ने भी किया था और इससे कुर्द चरमपंथियों के साथ शांति स्थापित करने में भी मदद मिली थी.

सत्ता में आने के बाद अर्दोआन ने तुर्की जैसे पंथनिरपेक्ष देश में धार्मिक गतिविधियों पर लगी रोक हटा दी, एक विशाल इंफ़्रास्ट्रक्चर प्रोग्राम शुरू किया और ज़्यादा मुखर विदेश नीति अपनाई.

क्या कहते हैं आलोचक?

हालांकि अर्दोआन के आलोचक तुर्की के आर्थिक संकट और उनकी तानाशाही की ओर ध्यान दिलाते हैं.

महंगाई 10 फ़ीसदी से ज़्यादा हो गई और लीरा (तुर्की की मुद्रा) की गिरती कीमतों ने कई परिवारों का जीना मुश्किल कर रखा है.

आलोचक इस बात की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि आर्दोआन के सत्ता में होने पर उनके दुश्मन या तो जेल में हैं या निर्वासन की ज़िंदगी बिता रहे हैं.

2016 में तुर्की में सेना के एक धड़े ने तख़्तापलट की नाकाम कोशिश की थी जिसके बाद से वहां के लोग आपातकाल की स्थिति में जी रहे हैं.

तब से लेकर अब तक एक लाख सात हज़ार सरकारी कर्मचारियों और सैनिकों को उनकी नौकरी से निकाला जा चुका है और 50,000 से ज़्यादा लोग जेलों में हैं.

चुनौतियां

तमाम अधिकारों और बहुमत के बावजूद अर्दोआन को कई चुनौतियों का सामना भी करना होगा. उनके विरोधी लगातार बढ़ रहे हैं. चुनावी अभियान के दौरान अर्दोआन को इसका अंदाज़ा भी हो गया होगा.

दूसरी राजनीतिक पार्टियां अर्दोआन के फ़ैसलों की आलोचना कर रही हैं. इन सबका असर अर्दोआन की यूरोपीय संघ में शामिल होने की चाहत पर भी पड़ सकता है.

यूरोपीय संसद की सदस्य (एमईपी) कैटी पिरी ने ट्विटर पर साफ़ कहा है कि अर्दोआन का तरीका यूरोपीय संघ में शामिल होने की बातचीत से बिल्कुल मेल नहीं खाता.

वैसे अब सभी की नज़रें इस बात पर टिकी हैं कि अर्दोआन देश में दो साल से लागू आपातकाल हटाएंगे या नहीं. आपातकाल तुर्की में राजनीतिक अनिश्चितता की सबसे बड़ी वजह है और लगातार गिरते विदेशी निवेश के पीछे का कारण भी.

हालांकि आपातकाल हटने का मतलब ये नहीं कि जेल में बंद क़ैदियों की रिहाई भी हो जाएगी, लेकिन तुर्की में मौजूद बीबीसी संवाददाता मार्क लॉवेन की मानें तो इससे विपक्ष के साथ बातचीत की शुरुआत ज़रूर होगी.

लॉवेन कहते हैं, "एक बार फिर तुर्की की आधी जनता अजेय जैसा महसूस कर रही है और आधे लोग ग़ुस्से में हैं."

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