इराक़ में पीएम हैदर अल अबादी के शिया विरोधी 'बढ़त की ओर'

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इराक़ के प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी के शिया प्रतिद्वंद्वियों ने शनिवार को हुए संसदीय चुनावों में बड़ी बढ़त हासिल कर ली है.

आधे से ज़्यादा वोटों की गिनती किए जाने तक मुस्लिम धार्मिक नेता मुक्तदा अल-सद्र और एक अन्य मिलिशिया नेता की अगुवाई वाला फ़्रंट सबसे ज़्यादा वोट हासिल करने वाला गुट बन गया है.

मुक्तदा अल सद्र

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चुनाव अधिकारियों के अनुसार, हैदर अल-अबादी तीसरे नंबर पर हैं.

पिछले साल जब इराक़ सरकार ने तथाकथित चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट पर जीत की घोषणा की थी, उसके बाद इराक़ में ये पहला आम चुनाव है.

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चुनाव के नतीजों की आधिकारिक घोषणा सोमवार देर शाम तक की जाएगी.

सबसे कम मतदान

इराक़ के 18 प्रांतों में कुल 329 संसदीय सीटों पर शनिवार को चुनाव हुआ था. इस चुनाव में महज़ 44.5% मतदान हुआ जो इराक़ में हुए चुनावों में ऐतिहासिक रूप से सबसे कम है.

चुनावी रुझानों से लगता है कि इराक़ के लोगों ने विपक्षी उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया है.

कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़, शिया नेता मुक्तदा अल-सद्र के समर्थकों ने रविवार रात बग़दाद में चुनाव के अंतिम नतीजों की घोषणा होने से पहले ही जश्न मनाना शुरू कर दिया है.

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2003 में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद मुक्तदा अल-सद्र एक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे. ख़ासतौर पर बग़दाद के ग़रीब इलाक़ों में बसे नौजवानों पर उनकी मज़बूत पकड़ है.

रिपोर्टों के मुताबिक़, अनुभवी मिलिशिया नेता हादी अल-अमीरी के नेतृत्व वाला ग्रुप दूसरे स्थान पर है.

जानकारों की मानें तो शिया नेतृत्व वाली हैदर अल-अबादी सरकार की इस्लामिक स्टेट पर जीत और इराक़ में बेहतर सुरक्षा व्यवस्था बहाल करने के लिए तारीफ़ होती रही है.

BBC

'इराक़ियों का डर'

लेबनान की राजधानी बेरुत में मौजूद बीबीसी संवाददाता मार्टिन पेशेंस का कहना है कि कई इराक़ी लोगों में सरकार में व्यापक भ्रष्टाचार और कमज़ोर अर्थव्यवस्था को लेकर भ्रम की स्थिति है.

हैदर अल अबादी

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अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के 'ईरान परमाणु समझौते' से बाहर निकलने के फ़ैसले के एक दिन बाद ये चुनाव कराया गया था.

ऐसे में कुछ इराक़ियों में ये डर भी है कि अमरीका और ईरान के बीच किसी भी तरह के संघर्ष का गंभीर असर उनके देश पर भी पड़ सकता है.

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मार्टिन ने इराक़ चुनाव में हुए कम मतदान को लेकर अपने एक ट्वीट में लिखा है कि इराक़ थक चुका है और लोगों को अब अपने नेताओं पर बहुत कम भरोसा बचा है और शायद इसमें हैरान होने वाली कोई बात भी नहीं है.

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