कैसे बनेगा भारत एक सुपरपावर?

नरेंद्र मोदी

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    • Author, आकार पटेल
    • पदनाम, वरिष्ठ विश्लेषक, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए

एक सुपरपावर देश बनने के लिए भारत को क्या करने की ज़रूरत है?

सुपरपावर देश बनने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि भारत एक बड़ी शक्ति बने.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बड़ी शक्ति उस संप्रभु देश को कहते हैं जिसमें वैश्विक रूप से अपना प्रभाव डालने की क्षमता होती है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों अमरीका, चीन, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन को महाशक्ति माना जा सकता है.

ये देश अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर सुरक्षा परिषद में वीटो पावर होने के साथ-साथ अपने धन और सैन्य शक्ति के कारण प्रभाव डाल सकते हैं.

इनमें से फ्रांस और ब्रिटेन जैसे कुछ देशों में सैन्य शक्ति को जानबूझ कर कम किया जा रहा है क्योंकि आज की तारीख़ में दो देशों के बीच युद्ध की संभावना घट गई है.

इन पांच देशों के बाद जर्मनी और जापान दो ऐसे देश हैं जो वैश्विक स्तर पर आर्थिक रूप से तो प्रभावकारी हैं लेकिन उनकी छवि सैन्य शक्ति वाली नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र, लोगो

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इसके अलावा स्पेन, सऊदी अरब, सिंगापुर, ताईवान, इटली, चिली, ऑस्ट्रेलिया और नॉर्डिक देशों जैसे कुछ छोटे देश अमीर तो हैं, लेकिन उतने प्रभावशाली नहीं हैं.

भारत को बड़ी आबादी वाले उन देशों की क़तार में शामिल किया जा सकता है जो अमीर नहीं हैं और संसाधनों के अभाव की वजह से सैन्य रूप से ताक़तवर भी नहीं हैं.

इन देशों में दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील और नाइजीरिया शामिल हैं.

पाठकों को ताज्जुब को सकता है कि मैं भारत को नाइजीरिया के साथ खड़ा कर रहा हूं लेकिन दोनों देशों में प्रति व्यक्ति आय समान है.

भारत की बड़ी आबादी ही सिर्फ़ एक ऐसी वजह है जिसके कारण ये अधिक प्रासंगिक लगता है. इसे हम ऐसे समझने की कोशिश करें.

भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इटली से बहुत कम है. लेकिन इटली की आबादी केवल छह करोड़ यानी भारत की आबादी से 20 गुना कम है.

सुरक्षा परिषद की बैठक, संयुक्त राष्ट्र

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इसीलिए भारत इटली की तुलना में प्रति व्यक्ति पांच फ़ीसदी से भी कम उत्पादन कर रहा है.

यह स्थिति हमारे पक्ष में बदल तो रही है लेकिन बहुत धीरे-धीरे.

ऐसे में भारत को एक महाशक्ति बनाने के लिए और क्या करने की ज़रूरत है? मेरे हिसाब से इस मामले में सरकार के करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है.

अगर हम बिज़नेस से जुड़े अख़बारों पर नज़र डालें तो पाएँगे कि इनमें 'सुधार' पर बहुत ज़ोर रहता है. इस बात पर ज़ोर दिखता है कि अगर भारत को सफल होना है तो सरकार को आर्थिक सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम उठाने होंगे.

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सुधार के तहत आम तौर पर विनियमन और व्यापार को आसान बनाने पर ज़ोर दिया जाता है.

वास्तविकता तो यह है कि कई देश ऐसे हैं जो आर्थिक सुधारों को अंजाम तो दे चुके हैं, लेकिन वे महाशक्ति नहीं हैं और ऐसे देश भी हैं जिन्होंने कोई भी आर्थिक सुधार नहीं किए हैं, लेकिन महाशक्ति हैं.

सोवियत संघ एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था थी. वहां हर चीज़ पर सरकारी नियंत्रण था और किसी तरह का आर्थिक सुधार नहीं था. लेकिन सोवियत संघ ने अपने विकास दर को 1947 से 1975 के बीच लगातार दहाई अंक में रखा. भारत की तुलना में उसकी प्रति व्यक्ति आय काफ़ी ज़्यादा रही.

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क्यूबा में विनियमन की कोई नीति लागू नहीं हुई लेकिन मानव विकास सूचकांक (स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए) में वो पूरी दुनिया में शीर्ष पर है.

इसलिए साफ़ है कि महाशक्ति बनने के लिए केवल आर्थिक सुधार ही ज़रूरी नहीं है. सभी सफल देशों के इतिहास में दो ऐसी बातें थीं जो बिनी किसी अपवाद के मौजूद रहीं.

पहली, सरकार किसी भी तरह की हिंसा पर नियंत्रण रख पाने में सक्षम हो, जनता बिना किसी दबाव के ख़ुद टैक्स भरने को तैयार हो, कुशलतापूर्वक न्याय और सेवाएं उपलब्ध हों.

यदि ऐसा हो तो ये मायने नहीं रखता है कि वो देश पूंजीवादी है, समाजवादी है, तानाशाह है या लोकतांत्रिक.

भारत की सरकारें इस मामले में असफल रही हैं, यहां तक कि गुजरात में भी.

दूसरी, समाज में मज़बूती और गतिशीलता का होना. एक प्रगतिशील समाज अपने नई सोच और परोपकार करने की प्रवृति के लिए जाना जाता है.

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यह एक जटिल विषय है और मैं इसके बारे में फिर कभी लिखूंगा.

जहां तक पहली बात का सवाल है तो साधारण शब्दों में यह क़ानून या क़ानून में बदलाव करने का मसला नहीं है. दूसरे शब्दों में यह 'सुधार' का मसला नहीं है. यह शासन करने के तरीक़े का मसला है. यह सरकार की नीति लागू करने की क्षमता का मसला है. इसके अभाव में क़ानून में किसी भी तरह का बदलाव कोई मायने नहीं रखेगा.

इसीलिए मलेशिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण मुझे दिलचस्प लगा. उन्होंने जो ख़ास बातें कहीं, "सुधार अंत नहीं है. मेरे लिए सुधार मंज़िल तक पहुंचने के लिए लंबे सफ़र का पड़ाव है. मंज़िल है, भारत का कायाकल्प."

उन्होंने कहा कि जब वो मई 2014 में निर्वाचित हुए तो उस वक़्त अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर चुनौतियां थीं. चालू खाता घाटे में चल रहा था. बुनियादी ढांचों के निर्माण से जुड़ी परियोजनाएं ठप पड़ी थीं और महंगाई लगातार बढ़ रही थीं.

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उन्होंने कहा, “स्पष्ट था कि सुधार की ज़रूरत थी. हमने ख़ुद से सवाल किया- सुधार किसके लिए? सुधार का मक़सद क्या है? क्या यह सिर्फ़ जीडीपी की दर बढ़ाने के लिए हो? या समाज में बदलाव लाने के लिए हो? मेरा जवाब साफ़ है, हमें 'बदलाव के लिए सुधार' करना चाहिए.”

मुझे लगता है कि उन्होंने सही दिशा में इस मुद्दे को उठाया है. मेरे विचार में समाज सरकारों के द्वारा बाहर से नहीं बदला जाता है, बल्कि सांस्कृतिक रूप से अंदर से बदलता है.

फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री अपनी बातों में जितने स्पष्ट हैं, उतनी ही स्पष्टता उसे लागू करने में दिखाते हैं कि नहीं.

(लेखक एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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