जाति के आधार पर आरक्षण को लेकर उठे सवाल

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- Author, ज़ुबैर अहमद
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
जाति के आधार पर आरक्षण होना चाहिए या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर हम और आप रोज़ बहस कर सकते हैं. लेकिन अगर कोई नेता इसका विरोध करता है तो इसे राजनीतिक आत्महत्या की तरह देखा जाता है.
आरक्षण अब एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिसे छेड़ना ख़ुदकुशी करने की तरह है.
कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने हाल में जब जाति के आधार पर <link type="page"><caption> आरक्षण</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/12/121217_reservation_in_promotion_voting_pn.shtml" platform="highweb"/></link> को ख़त्म करने की मांग की तो लोग उन पर टूट पड़े.
भाजपा ने कहा कि ये बयान जानबूझ कर दिया गया है ताकि मतदाताओं का ध्यान सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार जैसे आरोपों से हटाया जा सके.
इधर मायावती ने भी इसे जनार्दन द्विवेदी के बजाए कांग्रेस पार्टी का बयान माना है और पार्टी से आरक्षण पर अपना पक्ष साफ़ करने की मांग की है.
यही नहीं जनार्दन द्विवेदी के इस बयान पर कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी उन्हें आड़े हाथों लिया है. सोनिया गांधी ने आरक्षण पर कांग्रेस का रुख़ साफ़ करते हुए कहा कि उनकी पार्टी इसे ख़त्म करने का कोई इरादा नहीं रखती.
आरक्षण के पक्षधर
लेकिन भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आरक्षण को ख़त्म करने की राय रखता है. कई लोगों का सवाल है कि आख़िर जाति के आधार पर आरक्षण कब तक जारी रहेगा और योग्यता को फिर से कब बढ़ावा मिलना शुरू होगा.

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आबादी का ये हिस्सा मानता है कि नौकरियों में आरक्षण से कमज़ोर वर्ग को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हो सकता. बल्कि उनमें योग्यता पैदा करने की ज़रुरत है.
दूसरी ओर आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के पक्ष में है. उनका कहना है कि आरक्षण की ज़रूरत आज भी है.
इनका कहना है कि आरक्षण को ठीक तरीक़े से लागू नहीं किया गया है और इसकी ज़रूरत आज भी है. पिछड़े वर्ग के लोगों और आदिवासियों को कोटा सिस्टम की मदद से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है.
आरक्षण के पक्षधरों का ये भी तर्क है कि पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आज भी आरक्षण की उतनी ही ज़रूरत है जितनी आज़ादी के समय थी. उनका कहना है कि आरक्षण से कुछ फ़ायदा ज़रूर हुआ है लेकिन पिछड़ी जातियां अब भी पिछड़ी हैं.
विवादास्पद मुद्दा
भारत की राजनीति में आरक्षण शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है. इस पर आम सहमति कभी नहीं बन पाई.
आरक्षण की शुरूआत देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले 'सकारात्मक कार्रवाई' के तहत हुई थी.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने जब 1932 में भारत के <link type="page"><caption> दलित वर्ग</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/09/120904_reservation_cabinet_skj.shtml" platform="highweb"/></link> और दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा तो गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया. उनका पक्ष ये था कि इससे हिन्दू समुदाय विभाजित हो जाएगा.

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लेकिन डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने, जो दलित थे, इस प्रस्ताव को अपनी सहमति दी थी.
आख़िरकार दो बड़े नेताओं के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दलितों के लिए आरक्षण स्वीकार किया गया. बाद में आरक्षण को स्वतंत्र भारत के संविधान में शामिल किया गया.
मंडल कमीशन
संविधान में <link type="page"><caption> दलितों के लिए आरक्षण</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/10/131008_rahul_dalits_aj.shtml" platform="highweb"/></link> को स्वीकार किए जाने के बाद ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया.
इसके लिए दिसंबर 1978 में मंडल कमीशन का गठन हुआ. मंडल कमीशन ने ओबीसी के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश की.
इन सिफ़ारिशों को भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार में आने के बाद लागू किया.
देश भर में इस मुद्दे पर काफ़ी हंगामा हुआ और फिर उनकी <link type="page"><caption> सरकार गिर गई</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/05/120529_reservation_muslim_pp.shtml" platform="highweb"/></link>. इसके बाद 1991 में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनने के बाद मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को अमली जामा पहनाया गया जिसके बाद पिछड़े वर्गों के छात्रों को केन्द्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलने लगे.
फिलहाल ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है. इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को मिलने वाला 22.5 प्रतिशत आरक्षण जोड़ दिया जाए तो इस समय केन्द्र सरकार की नौकरियों में कुल 49.5 प्रतिशत आरक्षण है.
आरक्षण का विरोध

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ज़ाहिर है कि सामान्य श्रेणी के तहत आने वाले लोगों में मायूसी है. अपनी मायूसी का इज़हार वो अक्सर करते रहते हैं.
कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि आरक्षण के विरोध के पीछे दो प्रमुख कारण हैं. पहला ये कि आरक्षण को लागू करने से पहले इस पर सार्वजनिक बहस का माहौल नहीं बनाया गया. और दूसरा ये कि इसका वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया.
उदाहरण के तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने <link type="page"><caption> मंडल कमीशन</caption><url href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/12/121214_up_reservation_sa.shtml" platform="highweb"/></link> रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को उसी समय लागू करने की कोशिश की जब उनकी सरकार को ख़तरा पैदा हो गया था और इतनी जल्दबाज़ी में इसे लागू करने की कोशिश की गई कि इस पर कोई बहस भी नहीं हुई.
अब आरक्षण का मुद्दा एक संवेदनशील सियासी मुद्दा बन चुका है. जो भी नेता या पार्टी इस मुद्दे को उठाने की कोशिश करेगी उसे चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
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