स्वामी विवेकानंद ने कहा था वो अपना 40वां वसंत नहीं देख पाएंगे- बीबीसी स्पेशल

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- Author, रेहान फ़ज़ल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता

आज से बीबीसी एक नई साप्ताहिक सिरीज़ शुरू कर रहा है 'छोटी उम्र बड़ी ज़िंदगी' जिसमें उन लोगों की कहानी बताई जाएगी जिन्होंने दुनिया में नाम तो बहुत कमाया, लेकिन 40 साल से पहले इस दुनिया को अलविदा कह दिया. पहली कड़ी में स्वामी विवेकानंद की कहानी.

क्या किसी को इस बात को अंदाज़ा हो सकता है कि स्वामी विवेकानंद के जीवन को बदल देने में 'रौशोगुल्ला' का बहुत बड़ा हाथ रहा है? स्वामी विवेकानंद को बचपन से ही खाने और खिलाने का शौक था.
'स्वामी विवेकानंद द फ़ीस्टिंग, फ़ास्टिंग मॉन्क' यानी 'स्वामी विवेकानंद दावत और उपवास वाले संत', यह उनकी एक जीवनी का नाम है, और ऐसा यूँ ही नहीं है.
खाने में उनकी दिलचस्पी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वेद और वेदांत पर कोई क़िताब ख़रीदने से कहीं पहले उन्होंने किस्तों पर फ़्रेंच कुकिंग की इन्साइक्लोपीडिया ख़रीद ली थी.
दुनिया के सारे फलों में उन्हें सबसे अच्छा लगता था अमरूद. इसके अलावा वो मुलायम नारियल में चीनी और बर्फ़ मिलाकर खाने के भी शौकीन थे. गांधीजी की तरह वो भी बकरी का दूध पिया करते थे.
आइसक्रीम भी विवेकानंद की कमज़ोरी हुआ करती थी. उसको वो हमेशा कुल्फ़ी कहते थे. अमेरिका के शून्य से भी कम तापमान में विवेकानंद चॉकलेट आइसक्रीम खाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते थे.

एक दिन उनके चचेरे भाई रामचंद्र दत्ता ने उनसे कहा कि वो उनके साथ दक्षिणेश्वर मंदिर चलें जहां रामकृष्ण परमहंस हर आने वाले को रौशोगुल्ला खिलाते हैं.
विवेकानंद ने अपने भाई से कहा कि अगर उन्हें वहां रौशोगुल्ला नहीं मिला तो वो रामकृष्ण के कान खींचेंगे. ज़ाहिर है, विवेकानंद को वहां निराश नहीं होना पड़ा और वो रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गए.
पॉडकास्ट यहां सुनें:-स्वामी विवेकानन्द - छोटी उम्र बड़ी ज़िंदगी - Hindi - BBC News हिंदी

विवेकानंद के बारे में कुछ दिलचस्प बातें
- वेद और वेदांत पर कोई क़िताब ख़रीदने से कहीं पहले उन्होंने किस्तों पर फ़्रेंच कुकिंग की इन्साइक्लोपीडिया ख़रीदी थी.
- वो बकरी का दूध पीते थे. अमरूद उनका पसंदीदा फल था और आइसक्रीम उनकी कमज़ोरी हुआ करती थी.
- उन्होंने बड़े-बड़े उस्तादों से शास्त्रीय संगीत की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली थी और कई वाद्य यंत्र बजा लेते थे.
- उन्होंने कुछ दिनों तक मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन में अध्यापन का काम किया.
- कभी-कभी वो अपना ही मज़ाक उड़ाते हुए अपने आपको 'मोटा स्वामी' कहते थे.
- वो अच्छी नींद नहीं ले पाते थे. बहुत कोशिश करने पर वो एक बार में 15 मिनट से अधिक नहीं सो पाते थे.
- एक बार जब वो ट्रेन में सफ़र कर रहे थे तो एक छोटे स्टेशन पर ट्रेन नहीं रुकी. लोगों ने रेलवे ट्रेक पर लेटकर वहां ज़बर्दस्ती ट्रेन रुकवाई.
- उन्हें जानवर पालने का शौक़ था. उनके कुत्ते 'बाघा' को मठ के अंदर ही गंगा नदी के किनारे दफ़नाया गया था.
- एक बार जब वैद्य ने उनके पानी पीने और नमक खाने पर रोक लगाई तो उन्होंने 21 दिनों तक एक बूंद भी पानी नहीं पिया.


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बचपन से ही बनना चाहते थे संन्यासी
बचपन में विवेकानंद बहुत शरारती थे. उनको शांत करने का एक ही तरीका था, उनके सिर पर पानी डालना.
विवेकानंद को घुमक्कड़ साधुओं से बहुत लगाव था. उनकी आवाज़ सुनते ही वो अपने घर से बाहर आ जाते थे.
साधुओं के प्रति विवेकानंद के मोह का आलम ये था कि साधुओं की आवाज़ सुनते ही उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था और उनके जाने के बाद ही उन्हें निकाला जाता था.
बचपन से ही वो खुद संन्यासी बनना चाहते थे, जिस उम्र में बच्चे अक्षरों को पहचानना शुरू करते हैं, विवेकानंद ने लिखना और पढ़ना शुरू कर दिया था.
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उनकी याददाश्त ग़ज़ब की थी और एक बार पढ़ने पर पूरी क़िताब उन्हें याद हो जाती थी. खेलों में उन्हें तैराकी, कुश्ती और लाठी चलाना पसंद था. वो बेतों से तलवारबाज़ी का अभ्यास भी करते थे.
रायपुर में अपने प्रवास के दौरान उन्होंने शतरंज पर भी महारत हासिल कर ली थी. उन्होंने बड़े-बड़े उस्तादों से शास्त्रीय संगीत की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली थी और बहुत कुशलता से पखावज, तबला, इसराज और सितार बजा लेते थे, लेकिन उनकी सबसे अधिक रुचि शास्त्रीय गायन में थी.
उनका गायन ही उन्हें अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नज़दीक ले गया था. वो उनके गायन से इतने अधिक प्रभावित हुए थे कि एक बार उन्हें सुनते-सुनते वो समाधि में चले गए थे.

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रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बने
हर पिता की तरह विवेकानंद के पिता विश्वनाथ भी उनका विवाह कर देना चाहते थे, लेकिन उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस इसके ख़िलाफ़ थे.
विवेकानंद ने ब्रह्मचर्य अपनाने और साधु का जीवन जीने का फ़ैसला किया.
पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़ा पुत्र होने के नाते सात लोगों का परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर आ पड़ी. उन्होंने कुछ दिनों तक मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन में अध्यापन का काम किया.
विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस सादगी और नैतिक आध्यात्म के प्रतीक थे. रामकृष्ण परमहंस को पूरा यक़ीन था कि विवेकानंद उनका संदेश पूरी दुनिया तक पहुंचाएंगे.
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जुलाई 1886 आते-आते रामकृष्ण का स्वास्थ्य तेज़ी से गिरने लगा था. उन्हें गले का कैंसर था.
अंतिम समय में उन्होंने अपने सारे शिष्यों को बुलाकर कहा था कि विवेकानंद उनके उत्तराधिकारी हैं. इसके बाद 16 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण महासमाधि में चले गए.
उसके बाद विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की.
वर्ष 1898 में कलकत्ता में प्लेग की महामारी फैली. हज़ारों लोगों ने बीमारी के डर से कलकत्ता को छोड़ दिया.
लोगों को राहत पहुंचाने के लिए सेना को बुला लिया गया. उस समय विवेकानंद ने कलकत्ता में रुककर लोगों के बीच राहत कार्य का बीड़ा उठाया.

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अच्छे व्यक्तित्व के मालिक
विवेकानंद की कद-काठी और डीलडौल अच्छा था. वे बहुत तार्किक थे और हर महफ़िल की जान हुआ करते थे.
रोम्या रोलां ने अपनी मशहूर क़िताब 'लाइफ़ ऑफ़ विवेकानंद' में लिखा था, "स्वामीजी का शरीर एक पहलवान की तरह मज़बूत और शक्तिशाली था. वो 5 फ़ीट साढ़े 8 इंच लंबे थे. उनका सीना चौड़ा था और उनकी ग़ज़ब की आवाज़ थी."
"सबके आकर्षण का केंद्र था उनका चौड़ा माथा और उनकी बड़ी-बड़ी काली आंखें. जब वो अमेरिका गए थे तो एक पत्रकार ने अनुमान लगाया था कि उनका वज़न 102 किलो रहा होगा. कभी-कभी वो अपना ही मज़ाक उड़ाते हुए अपने आपको 'मोटा स्वामी' कहकर पुकारते थे."
उनकी सबसे बड़ी समस्या थी अच्छी नींद न ले पाना. वो अपने बिस्तर पर करवटें बदलते रहते थे, लेकिन नींद का दूर-दूर तक नामो-निशान तक नहीं रहता था. बहुत कोशिश करके भी वो एक बार में 15 मिनट से अधिक नहीं सो पाते थे.

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मैसूर के महाराजा ने भेजा अमेरिका
विवेकानंद ने पूरे भारत का भ्रमण करने का फ़ैसला किया.
सबसे पहले वो वाराणसी गए जहां उन्होंने कई अध्येताओं और संन्यासियों से विचारों का आदान-प्रदान किया.
उन्होंने सारनाथ का भी दौरा किया जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था. इसके बाद वो अयोध्या और लखनऊ होते हुए आगरा गए. इसके बाद उनका बंबई जाना हुआ. वहां से जब वो पूना के लिए निकले तो संयोग से वो और बाल गंगाधर तिलक एक ही कार में बैठे.
दोनों के बीच गहन मंत्रणा हुई और तिलक ने उन्हें अपने साथ पूना में रहने का निमंत्रण दिया. विवेकानंद ने तिलक के साथ पूरे 10 दिन बिताए. इसके बाद विवेकानंद ट्रेन से बैंगलौर के लिए रवाना हो गए.
वहां से वो मैसूर गए जहां वो महाराजा के अतिथि बनकर रहे. एक दिन महाराजा ने उनसे पूछा कि वो उनके लिए क्या कर सकते हैं. स्वामीजी ने उन्हें बताया कि कि वो अमेरिका में जाकर भारत के दर्शन और संस्कृति का प्रचार करना चाहते हैं.
महाराजा तुरंत उनकी अमेरिका यात्रा का ख़र्च उठाने के लिए तैयार हो गए, लेकिन विवेकानंद ने उस समय महाराजा की पेशकश को स्वीकार नहीं किया लेकिन बाद में वो इसके लिए राज़ी हो गए.
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धर्म संसद में प्रभावशाली भाषण
31 मई 1893 को मद्रास से स्टीमर 'पेनिनसुला' से विवेकानंद ने अमेरिका का सफ़र शुरू किया.
वो तब तक स्टीमर के डेक पर खड़े रहे जब तक उनकी मातृभूमि उनकी आंखों से ओझल नहीं हो गई. उनका स्टीमर कोलंबो, पेनांग, सिंगापुर और हांगकांग होते हुए नागासाकी पहुंचा.
14 जुलाई को वो जापानी बंदरगाह याकोहोमा से अमेरिका के लिए 'इंप्रेस ऑफ़ इंडिया' जहाज़ पर रवाना हुए.
उस यात्रा में उनके साथ भारत के चोटी के उद्योगपति जमशेदजी टाटा भी थे. दोनों के बीच यहां से जो दोस्ती शुरू हुई वो ताउम्र रही.
वैंकुवर से उन्होंने शिकागो के लिए ट्रेन पकड़ी. शिकागो की धर्म संसद में भाग लेने के लिए पूरी दुनिया से हज़ारों प्रतिनिधि आए हुए थे. विवेकानंद की उम्र उनमें सबसे कम थी.
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गौतम घोष अपनी क़िताब 'द प्रॉफ़ेट ऑफ़ मॉडर्न इंडिया, स्वामी विवेकानंद' में लिखते हैं, "धर्म संसद में बोलने वालों के क्रम में विवेकानंद का नंबर 31वां था, लेकिन उन्होंने आयोजकों से अनुरोध किया कि उन्हें सबसे अंत में बोलने दिया जाए. जब उनकी बारी आई तो उनका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था और घबराहट में उनकी जीभ सूख गई थी."
"उनके पास पहले से तैयार भाषण भी नहीं था, लेकिन उन्होंने माँ सरस्वती का स्मरण किया और जैसे ही डॉक्टर बैरोज़ ने उनका नाम पुकारा वो मंच पर जा पहुंचे. जैसे ही उन्होंने अपने पहले शब्द कहे, 'सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' सारे लोग खड़े हो गए और वो उनके सम्मान में लगातार दो मिनट तक ताली बजाते रहे."

सर्वधर्म समभाव का संदेश
जैसे ही तालियां बजनी बंद हुईं विवेकानंद ने अपना छोटा भाषण शुरू किया. उन्होंने अपने भाषण के शुरू में ही दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक अमेरिका को दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक भारत की तरफ़ से धन्यवाद दिया.
उन्होंने बताया कि किस तरह हिंदू धर्म ने दुनिया को सहिष्णुता का पाठ सिखाया है. उनका कहना था कि दुनिया का कोई धर्म एक दूसरे से बेहतर या ख़राब नहीं है. उनका कहना था कि सभी धर्म एक हैं जो ईश्वर की तरफ़ जाने का रास्ता दिखाते हैं.
इसके बाद उन्होंने अमेरिका के कई नगरों में भाषण दिए जिन्हें काफ़ी पसंद किया गया.
धर्म संसद में उनके भाषण ने उन्हें पूरी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया. वो पूरे एक साल तक अमेरिका के पूर्वी हिस्से में घूमते रहे.

भारत लौटते समय वो इंग्लैंड में रुके जहां उन्होंने भारत में रुचि रखने वाले प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर से ऑक्सफ़र्ड में मुलाक़ात की.
इंग्लैंड में ही उनकी मुलाक़ात लाल-बाल-पाल की प्रसिद्धि वाले बिपिन चंद्र पाल से भी हुई.
जब विवेकानंद भारत लौटे तो हर जगह लोग उनके स्वागत में सड़कों पर उतर आए. मद्रास से उन्होंने कुंभकोणम के लिए ट्रेन पकड़ी. रास्ते में पड़ने वाले हर स्टेशन पर लोग उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़े.
एक छोटे स्टेशन पर जहां ट्रेन नहीं रुकी, वहां लोगों ने रेलवे ट्रेक पर लेटकर ज़बर्दस्ती ट्रेन रुकवाई.
लोगों के प्रेम से अभिभूत हो स्वामी विवेकानंद अपने डिब्बे से बाहर आकर लोगों से मिले.
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ख़राब स्वास्थ्य के शिकार
जब दिसंबर, 1901 में कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उसमें भाग लेने वाले बहुत से नेताओं ने बेलूर आकर स्वामीजी के दर्शन किए. उनमें से बहुत से लोग हर दोपहर उनके दर्शन करने आने लगे.
स्वामीजी ने कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर उनसे बातें की. उनसे मिलने आने वालों में बाल गंगाधर तिलक भी थे. मशहूर वनस्पतिशास्त्री जगदीश चंद्र बोस भी उनके क़रीबी मित्र थे.
स्वामी विवेकानंद को जानवर पालने का बहुत शौक था. उनक पास बत्तखें, भेड़ें, गाय और बकरियां थीं. वो स्वयं उनका ध्यान रखते थे और अपने हाथों से उनको खाना खिलाते थे.
उनको अपने एक कुत्ते 'बाघा' से बहुत प्यार था. यही कारण था कि उसकी मौत के बाद उसे मठ के अंदर ही गंगा नदी के किनारे दफ़नाया गया.
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स्वामी विवेकानंद का स्वास्थ्य कभी भी अच्छा नहीं रहा.
उनके पैरों में हमेशा सूजन रहती. उनकी दाहिनी आंख की रोशनी भी कम होती चली गई. उनको हमेशा बुख़ार रहता और सांस लेने में तकलीफ़ रहती.
उनके सीने के बांए हिस्से में भी दर्द रहता. अपने पिता की तरह उनको भी मधुमेह की बीमारी थी.
वाराणसी से वापस लौटने पर उनकी बीमारी फिर बढ़ गई और उन्हें मशहूर कविराज (वैद्य) सहानंद सेनगुप्ता को दिखाया गया.
उन्होंने विवेकानंद के पानी पीने और नमक खाने पर रोक लगा दी. उन्होंने अगले 21 दिनों तक एक बूंद भी पानी नहीं पिया.

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आख़िरी दिन तीन घंटे तक किया ध्यान
अपनी मौत से दो दिन पहले उन्होंने अपनी निकट सहयोगी सिस्टर निवेदिता को ख़ुद अपने हाथों से खाना परोसने की ज़िद की.
उन्होंने हाथ धोने के लिए उनके हाथों पर पानी भी छिड़क दिया. इस पर सिस्टर निवेदिता ने कहा कि 'ये सब मुझे करना चाहिए, न कि आपको.'
इस पर विवेकानंद ने बहुत गंभीरता से जवाब दिया, 'जीसस क्राइस्ट भी अपने शिष्यों के पैर धोते थे.'
अपनी महासमाधि वाले दिन स्वामी विवेकानंद बहुत तड़के उठ गए थे. उन्होंने मठ के गर्भ गृह में जाकर उसके सभी दरवाज़े और खिड़कियां बंद कर दिए. फिर वो अकेले ही तीन घंटे तक ध्यान में बैठे रहे. दिन का खाना उन्होंने अपने साथी संतों के साथ खाया.

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चार बजे उन्होंने गर्म दूध का एक प्याला पिया. फिर वो बाबूराम महाराज के साथ टहलने चले गए.
जब शाम को प्रार्थना की घंटी बजी तो विवेकानंद अपने कमरे में चले गए. वहां वो गंगा के सामने बैठे ध्यान करते रहे.
शाम क़रीब 8 बजे उन्होंने एक संन्यासी को बुलाकर अपने सिर पर पंखा करने के लिए कहा. उस समय विवेकानंद बिस्तर पर लेटे हुए थे.
क़रीब एक घंटे के बाद उनका माथा पसीने से भीग गया. उनके हाथ थोड़े से कांपे और उन्होंने एक लंबी सांस ली.
ये संकेत था कि सब कुछ समाप्त हो गया है. उस समय रात के 9 बज कर 10 मिनट हुए थे. वहां मौजूद स्वामी प्रेमानंद और स्वामी निश्चयानंद ने ज़ोर-ज़ोर से उनका नाम पुकार कर उन्हें उठाने की कोशिश की, लेकिन स्वामीजी की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया.

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ह्रदय गति रुकने से हुआ देहांत
डॉक्टर महेंद्रनाथ मज़ुमदार को विवेकानंद को देखने के लिए बुलाया गया. उन्होंने कृत्रिम सांस देकर स्वामी विवेकानंद को उठाने की कोशिश की और अंतत: आधी रात को उन्होंने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
मृत्यु का कारण दिल का दौरा बताया गया. सुबह-सुबह सिस्टर निवेदिता आईं और दोपहर 2 बजे तक स्वामी विवेकानंद का हाथ अपने हाथ में लिए बैठी रहीं.
स्वामी विवेकानंद ने 39 वर्ष, 5 महीने और 22 दिन के बाद इस दुनिया को अलविदा कहा.
उनकी वो भविष्यवाणी सच निकली जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अपना 40वां वसंत नहीं देख पाऊंगा.
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