राहुल गांधी आरएसएस पर कर रहे हैं लगातार हमला, पर संघ का शीर्ष नेतृत्व चुप क्यों?

    • Author, फ़ैसल मोहम्मद अली
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को '21वीं सदी का कौरव' बताया है और कहा है कि धनवानों से उसकी साँठ-गाँठ है.

भारत जोड़ो यात्रा के क्रम में हरियाणा और पंजाब के रास्ते पद-यात्रा कर रहे पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, "कौरव कौन थे? मैं आपको 21वीं सदी के कौरवों के बारे में बताना चाहता हूँ, वो खाकी हाफ़-पैंट पहनते हैं, हाथों में लाठी लेकर चलते हैं और शाखा का आयोजन करते हैं. भारत के दो-तीन अरबपति इन कौरवों के साथ खड़े हैं."

बीते वर्ष सितंबर में दक्षिण भारतीय राज्य केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से शुरू हुई पद-यात्रा के दौरान बीजेपी और आरएसएस लगातार राहुल गांधी के निशाने पर रहे हैं.

राहुल गांधी ने आरएसएस-बीजेपी को असली 'टुकड़े-टुकड़े गैंग', 'भय और नफ़रत की सियासत' करने वाले क़रार दिया था.

उन्होंने संघ की तुलना मिस्र में प्रतिबंधित संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड तक से की थी.

राहुल के इतने तल्ख़ हमलों के बावजूद आरएसएस के रुख़ को लेकर चर्चा तेज़ है.

राजनीतिक विश्लेषक सवाल कर रहे हैं कि जिस संघ ने महात्मा गांधी की हत्या से जोड़े जाने वाले बयान पर राहुल गांधी को अदालत में घसीट लिया था, वो हाल के वक्तव्यों पर उतना हो-हल्ला क्यों नहीं कर रहा है.

हालाँकि आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार ने पिछले दिनों ज़रूर राहुल गांधी की यात्रा पर सवाल उठाए थे.

मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था- भारत में कई लोगों ने यात्राएँ की है, लेकिन राहुल गांधी नफ़रत वाली भाषा इस्तेमाल करते हैं. आरएसएस को लगातार निशाना बनाकर वे भारत को जोड़ने की नहीं बल्कि तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व इस पर ख़ामोश है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत हाल फ़िलहाल कई कार्यक्रमों में शिरकत कर चुके हैं और मीडिया से भी उन्होंने कई बार बात की है. लेकिन इस मुद्दे पर वे ख़ामोश ही रहे हैं.

राम मंदिर ट्रस्ट के पदाधिकारियों ने क्या कहा?

इसके उलट राम मंदिर ट्रस्ट के दो अहम पदाधिकारियों- जनरल सेक्रेटरी चंपत राय और कोषाध्यक्ष स्वामी गोविंद देव गिरि ने भारत जोड़ो यात्रा को लेकर ऐसे बयान दिए हैं, जिन्हें कुछ लोग राहुल गांधी की तारीफ़ के तौर पर देख रहे हैं.

चंपत राय ने अपने बयान में आरएसएस से अपने रिश्ते पर भी ज़ोर दिया.

चंपत राय ने कहा, "देश में एक नौजवान पैदल चल रहा है. अच्छी बात है. इसमें ख़राब बात क्या है? मैं राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का कार्यकर्ता हूँ. संघ से किसी ने आलोचना की है क्या? प्राइम मिनिस्टर साहब ने उनकी यात्रा की आलोचना की है क्या? एक नौजवान देश का भ्रमण कर रहा है, देश को समझ रहा है, ये एक प्रशंसा की बात है. पचास साल का नौजवान हिंदुस्तान के 3,000 किलोमीटर की दूरी पैदल चलेगा, और इस मौसम में भी चलेगा तो इसको हम एप्रीशिऐट (तारीफ़) ही करेंगे."

चंपत राय विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष भी हैं. उन्होंने ये बयान उस सवाल के जवाब में दिया था, जिसमें पूछा गया था कि राम मंदिर के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास ने भारत जोड़ो यात्रा को आर्शीवाद दिया है, उस पर वो क्या कहेंगे.

स्वामी गोविंद देव गिरि ने कहा, "जो भी भगवान राम का नाम लेता है, जो भारत माता का नाम लेता है और उसके लिए कुछ करता है, हम उसे सराहेंगे और कहेंगे कि भगवान राम उन्हें प्रेरणा दें ताकि देश संगठित और सक्षम रह सके."

संघ और बीजेपी के संबंध

कांग्रेस इन बयानों को राहुल गांधी और यात्रा की तारीफ़ के तौर पर पेश कर ही रही है, ख़ासतौर पर राम मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय के बयान को.

कई दूसरे हल्क़ों में भी इन बयानों को उसी तौर पर देखा जा रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, "भनक है कि संघ और बीजेपी में सब कुछ ठीक नहीं है."

वहीं लेखक धीरेंद्र झा का कहना है- संघ वाले चिढ़ तो रहे हैं, लेकिन उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा है कि करना क्या है.

'गांधी के हत्यारे- द मेकिंग ऑफ़ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ़ इंडिया' से लेकर, संघ के संगठनों पर किताबें लिख चुके धीरेंद्र झा कहते हैं, "राहुल गांधी जिस तरह बीजेपी-आरएसएस का नाम लेकर नफ़रत फैलाने की बात उठा रहे हैं, देश को बाँटे जाने का सवाल उठा रहे हैं, बावजूद उसके जिस तरह का जवाब उन्हें मिल रहा है, इससे संघ वालों को ये बात साफ़ नहीं हो पा रही कि पब्लिक का मूड क्या है? इसलिए उनकी रणनीति है कि ख़ामोशी में ही भलाई है."

हालांकि संघ और 'कौरवों' वाले बयान के बाद आरएसएस के वरिष्ठ सदस्य इंद्रेश कुमार ने कहा था कि'राहुल गांधी नफ़रत फैला रहे हैं.'

अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स और मेल टुडे के पूर्व संपादक भारत भूषण संघ कार्यकर्ताओं की ओर से राहुल गांधी की तारीफ़ के पूरे मामले को मिसरिडिंग (ग़लत समझना) मानते हैं.

हालाँकि ख़ामोशी के सवाल पर संघ प्रवक्ता सुनील आंबेकर कहते हैं कि 'आरएसएस ज़्यादातर ऐसी बातों पर किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं देता है.'

क्या मोदी का संघ पर प्रभाव है?

नीरजा चौधरी कहती हैं कि 'संघ में एक तरह की फिलिंग है कि नरेंद्र मोदी बीजेपी की रहनुमाई कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी ही आरएसएस का भी संचालन कर रहे हैं. संघ और आरएसएस के रिश्ते का समीकरण तेज़ी से बदल रहा है और ज़ाहिर है इससे संघ का एक वर्ग असहज है.'

नरेंद्र मोदी की दो बार लगातार भारी जीत और जनता के बीच उनकी पकड़ ने आरएसएस कार्यकर्ताओं पर भी असर डाला है और राय ये है कि आज अगर कार्यकर्ताओं को सर संघचालक मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच चुनना हो, तो नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़े होंगे.

लेखक और पत्रकार धीरेंद्र झा कहते हैं, "वर्तमान समय में आरएसएस पूरी तरह नरेंद्र मोदी के 'अधीनस्थ' है, लेकिन उनकी त्रासदी ये है कि वो कुछ नहीं कर सकते. इसके पीछे एक कारण तो उनके ऊपर देश भर में- मालेगांव से लेकर अजमेर और मक्का मस्जिद से लेकर समझौता एक्सप्रेस बम धमाके हैं जिनके मुक़दमे सरकार बदलने की सूरत में कभी भी खुल सकते हैं."

झा कहते हैं, "देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए इन धमाकों में से एक में तो आरएसएस के शीर्ष नेता इंद्रेश कुमार के ख़िलाफ़ चार्जशीट तक दाख़िल हो चुकी है. नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद इनमें से कई केस तो समाप्त हो गए, लेकिन कई मामलों में अभियुक्त अब भी जेल के भीतर हैं."

पुराने समय में संघ एक नैतिक ताक़त के तौर पर काम करता रहा था, और राजनीतिक मैदान में वो खुले तौर पर नहीं दिखता था, लेकिन धीरेंद्र झा के अनुसार, "पिछले सालों में चुनाव के सिलसिले में जिस तरह से खुलकर आरएसएस कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल हो रहा है, उसके कारण दोनों संगठनों में जो एक फ़ासला और फ़र्क़ दिखता था वो पूरी तरह ख़त्म हो गया है."

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध को समाप्त करने की एक शर्त संस्था को राजनीति से दूर रखने की थी.

आरएसएस ने 1970 और 1980 के दशक में कुछ ऐसे फ़ैसले लिए, जिससे वो सीधे-सीधे किसी राजनीतिक दल से साथ खड़ा नहीं दिखा.

1977 में उसने जनसंघ को उस नए राजनीतिक संगठन में विलय करवाया, जिसे इंदिरा गांधी का सामना करने के लिए तैयार किया गया था.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की एकता के हवाले से संघ ने राजीव गांधी को अपना समर्थन दिया, जबकि बीजेपी 1980 में तैयार हो चुकी थी.

संघ के वरिष्ठ नेता नानाजी देशमुख ने अपने एक लेख में राजीव गांधी को समर्थन की बात कही थी.

लेकिन नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से हिंदुत्व के एजेंडे को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है, संघ के लिए ख़ुद को बीजेपी से दूर रखना भी शायद संभव नहीं.

बिज़नेस स्टैंडर्ड के अपने लेख में भारत भूषण ने लिखा है- आम समझ के उलट हिंदुत्ववादी ताक़तों ने राहुल गांधी की यात्रा को सही नहीं ठहराया है' लेकिन साथ ही वो एक दिलचस्प वाक़ये की तरफ़ इशारा करते हैं- वो है राम मंदिर निर्माण का श्रेय.

चुनावी मुद्दे

गृह मंत्री और नरेंद्र मोदी के सबसे नज़दीकी लोगों में माने जाने वाले अमित शाह ने त्रिपुरा में एक भाषण के दौरान कहा कि राम मंदिर एक जनवरी, 2024 तक तैयार हो जाएगा.

अमित शाह के बयान के दूसरे दिन ही चंपत राय ने बयान दिया कि मंदिर का मुख्य हिस्सा 14 जनवरी, 2024 तक तैयार होगा.

भारत भूषण मानते हैं कि मंदिर की बात गृह मंत्री द्वारा किए जाने की बात ये साफ़ करती है कि अगले आम चुनाव में भी मुख्य मुद्दा मंदिर ही रहेगा, जबकि राहुल गांधी जिन मुद्दों को उठा रहे हैं उनमें बेरोज़गारी, मंहगाई, चीन की घुसपैठ शामिल हैं, साथ ही देश को धर्म-जाति के नाम पर बाँटने की सियासत पर भी वो बात कर रहे हैं.

जानकारों का मानना है कि मथुरा और वाराणसी मंदिर का मामला भी अदालतों में पहुँच गया है और अमित शाह राम मंदिर निर्माण की बात अभी से करने लगे हैं.

इस सूरत में आने वाले चुनावों में कांग्रेस का रास्ता आसान नहीं होने वाला.

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