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क्या महिलाओं के प्रति आरएसएस की सोच बदल रही है?
- Author, फ़ैसल मोहम्मद अली
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, नागपुर से लौटकर
दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट को दो बार फ़तह करने वाली संतोष यादव को अपने स्थापना दिवस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने एक नई चर्चा को जन्म दिया है - महिलााओं के प्रति आरएसएस का रवैया.
संघ के नियमों के अनुसार 'सिर्फ एक हिंदू पुरुष ही' आरएसएस के सदस्य बन सकते हैं, महिलाओं के लिए एक अलग संगठन है.
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हालांकि अपने घंटे भर के भाषण की शुरुआत ही शक्ति की उपासना से की, जिसे विजयदशमी के अवसर पर हिंदू देवी दूर्गा के रूप में पूजते हैं, और साथ ये भी कहा कि सुबह लगने वाली 'शाखा' को छोड़कर, संघ के बाक़ी सभी काम पुरुष और स्त्री साथ मिलकर करते हैं.
संतोष यादव के साथ मंच साझा करते हुए संघ प्रमुख इस बात को आगे ले गए और कहा कि 'सर्वत्र पवित्रता और शांति की स्थापना करने के लिए शक्ति का आधार अनिवार्य है'.
हालाँकि स्त्रियों के साथ काम करने को लेकर आरएसएस मुख्यत: जिस संगठन 'राष्ट्र सेविका समिति' का नाम लेता है उसकी बहुत चर्चा सुनने को नहीं मिलती.
वैसे ये अलग बात है कि संक्षिप्त रूप में उसका नाम भी 'आरएसएस' ही है, स्थापना भी विजयदश्मी के ही दिन हुई थी, आरएसएस की तरह उसकी स्थापना भी केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी.
संघ की पुरुष प्रधान छवि की चर्चा अक्सर होती रहती है, इसी छवि को तोड़ने की कोशिश के तहत, मोहन भागवत ने कहा कि संतोष यादव से पहले भी भारत की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और कांग्रेस नेता राजकुमारी अमृत कौर और पूर्व सासंद अनुसईया बाई काले और दूसरी महिलाएँ मेहमान के तौर पर आरएसएस के कार्यक्रमों में शामिल हो चुकी हैं.
'विदेशी आक्रमण और महिलाएँ'
मोहन भागवत ने कहा कि भारतीय परंपरा में पुरुष और महिला को एक दूसरे का 'परस्पर पूरक' समझा जाता रहा है लेकिन "लगातार हुए विदेशी आक्रमणों के कारण समय के साथ इस महान परंपरा को छोड़ते हुए मातृ-शक्ति की सक्रियता को या तो देवी बनाकर पूजाघर या फिर दूसरे श्रेणी की नागरिक समझकर रसोई तक सीमित कर दिया गया मगर ज़रूरत है कि मातृशक्ति को सशक्त और प्रबुद्ध बनाकर सार्वजनिक और परिवार के कामों में बराबर की हिस्सेदारी दी जाए."
पिछले दिनों आरएसएस ने सामाजिक विसंगतियों और जातिगत भेदभाव की चर्चा छेड़ी थी और सर संघचालक मोहन भागवत के मस्जिद में इमाम साहब से मिलने पहुँच गए थे, इसके बाद यह चर्चा चल पड़ी थी कि संगठन अपने सोच में बदलाव ला रहा है.
संघ के आलोचक इसे छवि चमकाने की कोशिश और राजनीतिक फ्रंट पर भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक ज़मीन फैलाने की कोशिश बताते हैं, लेकिन संघ के समर्थकों का कहना है कि महिलाओं को लेकर संघ की सोच में बदलाव पिछले लगभग तीन दशकों से जारी है.
दिल्ली के जवाहर लाल विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले हरीश वानखेड़े कहते हैं, "अगर आप पूरे भाषण की शब्दावली पर ग़ौर करेंगे तो इसके ईर्द-गिर्द पितृसत्ता का दायरा साफ-साफ दिखेगा जिसमें पारंपरिक पारिवारिक संरचना के बाहर महिला का कोई वजूद नहीं नज़र आता, महिला को अपने शरीर तक पर अधिकार देने तक को वो तैयार नहीं."
मोहन भागवत के भाषण में महिलाओं को लेकर कही गई बातों में बार-बार जो शब्द सबसे अधिक सुनाई देता रहा वो है 'मातृ-शक्ति'.
ये महज संयोग है कि आरएसएस प्रमुख का भाषण और उसमें स्त्री के मातृत्व के गुण पर बार-बार ज़ोर दिया गया.
नागपुर स्थित मराठी लेखिका अरुणा सबाने कहती है, "शब्द माँ एक तरह की लक्ष्मण रेखा है जिसका इस्तेमाल करके औरत के चारों तरफ एक रेखा खींच दी जाती है और उम्मीद की जाती है कि वो उसे न लाँघे."
'पूरा परिवार संघमय हो जाता है'
अरूणा सबाने का उपन्यास 'आइचा बॉयफ्रेंड' (मम्मी का बॉयफ्रेंड) प्रकाशन के बाद बेहद चर्चित और विवादित रहा था, कहानी में एक अधेड़ उम्र की विधवा महिला एक पुरुष मित्र बनाती है जिसे लेकर समाज हंगामा मचा देता है, विरोध करने वालों में उसके बच्चे भी शामिल हैं.
अरुणा सबाने कहती हैं, "पापा की महिला मित्र हो सकती है लेकिन माँ किसी पुरुष से मित्रता करके देखे, इस तरह की शब्दावली और सोच में लिव-इन रिलेशन की क्या जगह होगी?"
आरएसएस से लंबे समय से जुड़े रहे दिलीप देवधर कहते हैं कि संघ में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का काम 1987 के बाद से ही चल रहा है. वे कहते हैं, "ये याद रखने की ज़रूरत है कि जब परिवार का एक व्यक्ति संघ में शामिल होता है तो पूरा परिवार धीरे-धीरे संघमय हो जाता है, परिवार में पुरुषों के साथ महिलाएँ भी होती हैं."
दिलीप देवधर हालाँकि ये मानते हैं कि संघ में महिलाओं की भागीदारी कम है लेकिन वो ये भी कहते हैं कि अगर उस दृष्टि से देखा जाए तो पूरे समाज में भी महिलाओं की हिस्सेदारी उतनी नहीं दिखती जितनी होनी चाहिए.
आठ सालों के अंतराल के बाद जब मैं दोबारा संघ के विजयदश्मी कार्यक्रम में शामिल हुआ तो काफ़ी महिलाएँ समारोह में मेहमान के तौर पर शामिल दिखीं. मगर सिर्फ मेहमान के तौर पर, परेड जिसे 'पथ संचलन' कहा जाता है या दूसरे कार्यक्रमों में उनकी मौजूदगी नहीं थी.
जब यही सवाल कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद हमने स्वंयसेवकों से बातचीत में पूछा तो उनका कहना था कि यहाँ के कार्यक्रमों में महिलाएं नहीं हैं, इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि संघ में महिलाएँ नहीं हैं, 'आरएसएस सेवा के जितने काम करता है उसमें महिलाओं का रोल अधिक से अधिक होता है.'
सुबह की परेड में शामिल एक दूसरे स्वयंसेवक ने कहा कि संघ की 36 संस्थाएँ हैं जिनमें से एक राष्ट्र सेविका समिति भी है और सभी संथाओं के लोग दूसरे संगठनों में भी काम करते हैं, उनके बीच महिला-पुरुष या किसी दूसरे तरह का भेद-भाव नहीं किया जाता है.
सेविका समिति को संघ का महिला फ्रंट समझा जाता है, हालाँकि आरएसएस का कहना है कि समिति एक समानांतर संगठन है जो राष्ट्र निर्माण का वही काम कर रहा है जैसा कि संघ शुरुआत से करता आ रहा है.
राष्ट्र सेविका समिति का गठन
स्थापना दिवस कार्यक्रम में राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख शांता कुमारी भी मेहमान के तौर पर मौजूद थीं,
फ़ोन पर हुई बातचीत में शांता कुमारी का पहला सवाल था कि समिति के बारे में कितना जानते हैं आप?, और मेरे ये कहने पर कि बहुत कम, वो वर्धा की एक महिला लक्ष्मी बाई केलकर की कहानी सुनाती हैं: "लक्ष्मी बाई केलकर को (जिन्हें 'मौसी' के नाम से याद किया जाता है) लगा कि संघ के कार्यक्रमों में शामिल होने के बाद से उनके पुत्रों में कई तरह के सकारात्मक बदलाव दिखने लगे हैं, जिसके बाद उनके मन में ये विचार आया कि इसी तरह का प्रशिक्षण महिलाओं के लिए भी होना चाहिए.
शांता कुमारी के अनुसार, इस बात को उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार के सामने रखा और संघ के संस्थापक की सलाह पर 25 अक्टूबर 1936 को राष्ट्र सेविका समीति की नींव वर्धा में पड़ी, "नाम का सुझाव भी उन्होंने ही (हेडगवार) दिया था."
संस्था की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार राष्ट्र सेविका समिति का ध्येय शाखा के माध्यम से सशक्त हिंदू राष्ट्र का निर्माण है.
55 हज़ार सदस्यों (सेविका) वाली राष्ट्र सेविका समिति की देश भर में 2700 शाखाएँ हैं जिनमें योगासन, खेल-कूद, दूसरे शारीरिक प्रशिक्षण (जूडो-कराटे), संगीत, व्याख्यानों के माध्यम से 'मातृत्व, कर्तृत्व और नेतृत्व' के आदर्शों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है.
बातचीत के दौरान 'भारत में महिलाओं की स्थिति' नाम के सर्वे का ज़िक्र भी आया जिसे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने साल 2019 में संघ प्रमुख के साथ दिल्ली में रिलीज़ किया था और जिसे तैयार करने में राष्ट्र सेविका समिति की भी हिस्सेदारी रही थी.
मोहन भागवत ने सर्वेज्ञण का ज़िक्र अपनी इस साल के भाषण में भी किया, जिसके निष्कर्षों को शासन को भी पहुँचाया गया, जिससे मातृशक्ति को जगाने, उसके सशक्तीकरण और सहभागिता की ज़रूरत को रेखांकित करने में मदद मिलेगी.
'शादीशुदा औरतें अधिक ख़ुश'
आरएसएस से जुड़ी संस्था 'दृष्टि स्त्री अध्ययन प्रबोधन केंद्र' के उस सर्वे को याद करते हुए लेखक और राजनीतिक विश्लेषक निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि उस सर्वे ने बात को परिवार के उसी बंधन- माँ, पत्नी और बेटी से आगे नहीं बढ़ाया था, यानी स्त्री की पिता, पति या संतान से अलग कोई अस्मिता नहीं मानी गई है.
सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्षों को लेकर काफ़ी विवाद हुआ था, मसलन, शादीशुदा औरतें सबसे अधिक खुश रहती हैं जबकि सबसे दुखी महिलाएँ वो हैं जो लिव-इन संबंधों में हैं.
शांता कुमारी कहती हैं कि प्रकृति ने महिला को ये क्षमता दी है कि वो माँ बन सके और प्रजनन समाज को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है लेकिन हम कभी ये नहीं कहते कि महिलाओं को घर की चारदीवारी में ही बंद रहना है, पारिवारिक संरचना का महत्व है लेकिन उसे अपने करियर के बारे में भी सोचना ज़रूरी है.
संघ प्रमुख ने अपने भाषण में जनसंख्या की बात करते हुए चीन का भी ज़िक्र किया था जहाँ एक बच्चा प्रति जोड़ा को लेकर प्रजनन दर बहुत कम हो गई थी जिसका विपरीत प्रभाव जनसंख्या के ऊपर पाया गया और सरकार ने पुरानी पॉलिसी में बदलाव किया है.
निधि त्रिपाठी आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विधार्थी परिषद में महामंत्री हैं और वो मातृत्व पर बल देने को किसी तरह से ग़लत नहीं मानती है, वे कहती हैं, "एक महिला के भीतर कई तरह की क्षमता एक साथ हो सकती है. हमारे पास लक्ष्मी बाई का उदाहरण है जो मां होने के साथ-साथ एक बेहतरीन योद्धा थीं, रानी भी थीं, यानी एक साथ कई रोल का उन्होंने निर्वाह किया."
जेएनयू से संस्कृत में पीएचडी कर रहीं निधि का कहना है कि महामंत्री के तौर पर उन्हें देश के दक्षिण से लेकर उत्तर तक यात्राएँ करनी होती हैं और कार्यक्रमों में शामिल होना पड़ता है लेकिन उन्हें महिला होने की वजह से किसी तरह की दिक्क़त या परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा बल्कि संगठन का कार्यभार संभालने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि उनके भीतर भी नेतृत्व की प्रतिभा है.
सर्वे करने वालों का कहना है कि देश के चार सौ से अधिक ज़िलों में किए गए सर्वे के कई अहम पहलू जैसे महिलाओं में रोज़गार, गाँव से शहर जाकर काम करने वाली औरतों को समय पर पैसे न मिल पाना, काम की जगह पर यौन उत्पीड़न जैसे मुद्दे विवाद की वजह से पीछे चले गए.
हरीश वानखेड़े कहते हैं कि आरएसएस को इन बातों से आगे बढ़कर साफ़ करना होगा कि महिलाओं की पवित्रता (चैस्टिटी) को लेकर, बलात्कार को लेकर, या अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर उसका क्या नज़रिया है?
वानखेड़े पूछते हैं, "वो किस तरह तय कर सकते हैं कि महिला किससे संबंध बनाएगी, वो अपने मज़हब का ही होना चाहिए, या वो मुसलमान या ईसाई नहीं हो सकता?, इसका मतलब तो महिला के अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार तक देने को तैयार नहीं."
दूसरे धर्म के युवकों का हिंदू महिलाओं से शादी करना और उसके बाद उनका धर्मांतरण बीजेपी का एक बड़ा मुद्दा रहा है जिसे उसके कई बड़े नेता भी समय-समय पर उठाते रहे हैं.
पर्दा एक दूसरा मुद्दा रहा है, ख़ासतौर पर हिजाब का मामला जिसे लेकर कुछ मुस्लिम युवतियों का कहना है कि स्कूल/कॉलेज के भीतर भी हिजाब का इस्तेमाल उनका अधिकार है जबकि (स्कूल के साथ) हिंदूत्वादी संगठनों ने इसका विरोध किया और मामला अब अदालत में पहुँच गया है.
राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख का कहना है कि वो पर्दे को प्रोत्साहन नहीं देती हैं, बस चाहती हैं कि परंपरा का निर्वाह हो.
बदलाव तो हो रहा है लेकिन कितना
समाजशास्त्री बद्री नारायण इन सवालों के जवाब में कहते हैं कि संघ के भीतर में पारंपरिक विचार रखने वाले और आधुनिक सोच के पैरोकारों के बीच एक तरह का संघर्ष जारी है और बड़ा परिवर्तन आने में समय लगेगा.
हरीश वानखेड़े इन विरोधाभासी बातों को बीजेपी के पक्ष में राजनीतिक ज़मीन तैयार करने की कोशिश के तौर पर भी देखते हैं, बीजेपी ने फ्री गैस, ट्रिपल तलाक़ ख़त्म करके महिला वोटरों का जो एक वर्ग तैयार किया है उसे महिलाओं की बराबरी की बात करके कुछ और आगे बढ़ाना चाहते हैं.
स्वयंसेवकों का मानना है कि संघ प्रमुख के महिला समानता की बात को लेकर बहुत गंभीर हैं और कहते हैं कि पचास प्रतिशत जनसंख्या को उसकी भागीदारी मिलनी चाहिए. दिलीप देवधर के मुताबिक़ संघ महिला आरक्षण के लिए ज़मीन तैयार करने की कोशिश में लगा है.
दिलीप देवधर बार-बार ज़ोर देकर कहते हैं, "देख लीजिएगा जल्द ही, कम से कम 2024 आम चुनावों से पहले सरकार महिला आरक्षण बिल को संसद में लाएगी और ये उसका एक और मास्टर स्ट्रोक होगा."
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