पोंटी चड्ढा से पहले और बाद में कितना बदला है यूपी में शराब का कारोबार

    • Author, विनीत खरे
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, लखनऊ

शराब के नशे में कितना आकर्षण है इसकी झलक कोविड के बाद की लंबी लाइनों में दिखी.

शराब के व्यापार में कितने पेंच हैं, ये दिल्ली के कथित शराब घोटाले में देखने को मिला. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार ने नई आबकारी नीति लागू की थी लेकिन इसके लागू होने के साढ़े सात महीने के अंदर सरकार ने नई नीति को वापस ले लिया. नई आबकारी नीति में उप राज्यपाल वीके सक्सेना ने कुछ खामियों को पाने के बाद जांच का आदेश दिया था.

एलजी के आदेश के बाद दिल्ली के चीफ सेक्रेटरी ने इस मामले में जुलाई, 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी और उस रिपोर्ट के आधार पर एलजी ने सीबीआई जांच की सिफ़ारिश की.

इस जांच के दायरे में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर शराब के कारोबारियों को अनुचित तौर पर फ़ायदा पहुंचाने का आरोप है. हालांकि मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल इन आरोपों को निराधार बता चुके हैं.

दिल्ली में नई आबकारी नीति को लेकर उठते सवालों ने हमें उत्तर भारत के सबसे बड़े शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा के कारोबार की याद दिलाई. हालांकि आपसी गैंगवार में उनकी हत्या को अगले महीने 10 साल पूरे हो जाएंगे.

लेकिन एक दौर ऐसा रहा जब उत्तर प्रदेश और उसके आसपास के इलाक़ों में अकेले इनका दबदबा था. उनकी कहानी शराब कारोबारी और राजनीतिक गठजोड़ की फ़िल्मी कहानी जैसी लगती है, जिसका अंत भी फ़िल्मी अंदाज़ में हुआ.

ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश में शराब के व्यापार पर किन लोगों का दबदबा रहा और आज ये व्यापार किस हाल मे है?

ये समझने के लिए के लिए हमने लखनऊ, मुरादाबाद, वाराणसी, प्रयागराज और दिल्ली में शराब व्यापारियों, पूर्व और अभी के सरकारी अधिकारियों और जानकारों से बात की.

दबदबे का दौर

बात नब्बे के दशक की है. उस वक्त के एक आबकारी अधिकारी के मुताबिक उस दौर में उत्तर प्रदेश के शराब व्यापार पर आठ या नौ व्यापारियों जैसे बाबू किशनलाल, बद्री प्रसाद जायसवाल आदि का सिक्का चलता था.

लेकिन सबसे बड़ा नाम था जवाहर जायसवाल का. वो लिकर किंग के नाम से जाने जाते थे. इन्हें सिंडिकेट कहा जाता था, यानि आसान भाषा में चंद लोगों का एक शक्तिशाली गुट.

वाराणसी के एक होटल के कमरे में सिगरेट के धुंएं और धुएं को कम करने के लिए लगे एअर प्यूरिफ़ायर की आवाज़ के बीच हमारी जवाहर जायसवाल मुलाकात हुई.

साल 1999 से 2004 तक सांसद रहे जवाहर जायसवाल दावा करते हैं, "1993 से लेकर 2000 तक मेरे ग्रुप के पास 22 ज़िले थे. इतना बड़ा बिज़नेस हिंदुस्तान में कभी किसी के पास नहीं रहा."

नब्बे के दशक में अपने रसूख के चरम पर राज्य में सरकारी नीतियों, शराब के दाम, व्यवस्था पर दख़ल रखने वाले जवाहर जायसवाल के पास, उनके मुताबिक, करीब 10,000 दुकानें थीं.

शराब के व्यापार पर हमेशा से जायसवालों का ज़ोर रहा है. जवाहर जायसवाल को ये बिज़नेस विरासत में मिला. वो 1972 में बिज़नेस में आए और अगले आठ सालों में पूरे बनारस पर उनका एकाधिकार सा हो गया.

जवाहर जायसवाल कहते हैं, "50 साल पहले तक हमें कलाल बोला जाता था. कलाल मतलब जो कलाली का बिज़नेस करता है. कलाली मतलब शराब. कलाल को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था. लोग हमारा छुआ पानी भी नहीं पीते थे."

लेकिन वक्त बदला और शराब के बिज़नेस पर उनका एकाधिकार ऐसा हुआ कि व्यापार से जुड़े लोग आज भी उनके दौर को याद करते हैं.

उस दौरान सरकार पर अपने रसूख पर जवाहर जायसवाल कहते हैं, "हम लोगों की मीटिंग होती थी. एकसाइज मिनिस्टर बैठते थे, एक्साइज कमिश्नर बैठते थे, प्रमुख सचिव बैठते थे. यूपी के ठेकेदारों को बुलाया जाता था. (पूछा जाता था) कि आप बताइए कि सरकार की आमदनी कैसे बढ़ाई जाए और आप लोगों को भी फ़ायदा हो. तो हम लोग बताते थे आप इस तरह कर दीजिए. तो सरकार की आमदनी बढ़ेगी औऱ हम लोगों को भी फ़ायदा होगा. तो इस तरह की नीतियां हम लोगों के कहने से बनाई जाती थीं."

शराब का कारोबार और राजनीति

"हमारा बिज़नेस टेलीफोन से होता था. मैनेजर रहते थे, पार्टनर रहते थे, उनको इंस्ट्रक्शन देते रहते थे कि पाउच का एक रुपए रेट बढ़ा दो, पता चला एक लाख पाउच बिके तो... इतना रुपए कम कर दो ज़्यादा कर दो."

क्या राजनीतिक मदद के बिना बिज़नेस किया जा सकता था, जवाहर जायसवाल कहते हैं, "नहीं कर सकते. अगर हम इतना बड़ा बिज़नेस कर रहे हैं तो हमको मुख्यमंत्री और मंत्री स्तर तक बात करनी पड़ेगी. क्योंकि शराब के बिज़नेस में बहुत तरह की समस्या आती है और अगर सरकार सहयोग नहीं करेगी तो बिज़नेस चल ही नहीं पाएगा. इसलिए हमारे ताल्लुकात मुख्यमंत्री स्तर तक रहते थे."

साल 1990 में बाज़ार में एकाधिकार के दौर में भानु जायसवाल शराब के व्यापार में आए. उन्होंने जवाहर जायसवाल के दौर को नज़दीक से देखा.

वो कहते हैं, "एमआरपी डिसाइड ये करते थे. मैन्युफ़ैक्चरिंग पॉलिसी ये डिसाइड करते थे. ब्रांड ये डिसाइड़ करते थे. प्रॉफ़िट ये डिसाइड ये करते थे. सब कुछ इनके हाथ में था."

उन दिनों दुकानों की नीलामियां हुआ करती थीं. रसूख वाले शराब व्यापारी पैसे और ताक़त के जोर पर पांच या सात दुकानें छोड़िए, ज़िले की सभी दुकानें खरीद लिया करते थे.

और ये चलन नया नहीं था.

  • शराब के व्यापार पर हमेशा से जायसवालों का ज़ोर रहा है.
  • 1993 से 2001 तक जवाहर जायसवाल का दबदबा रहा. वो लिकर किंग के नाम से जाने जाते थे.
  • साल 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी. एक्साइस मंत्री थे सूर्य प्रताप शाही.
  • शराब व्यापारियों की मनमानी ख़त्म करने के लिए साल 2001-02 में नई आबकारी नीति आई.
  • शराब व्यापारी भानु जायसवाल के मुताबिक बड़े प्लेयर के रूप में पॉंटी चड्ढा का उदय साल 2000 में हुआ और साल 2012 तक उनका वर्चस्व रहा.
  • मायावती और अखिलेश यादव सरकारों से नज़दीकियों के आरोपों के बीच पॉंटी चड्ढा का साम्राज्य फैलता गया.
  • उत्तर प्रदेश में आज शराब व्यापार के लिए लॉटरी प्रक्रिया पूरी तरह ऑनलाइन है.
  • शराब व्यापार से राज्य को पिछले साल 36 हज़ार करोड़ रुपए की आमदनी हुई. इस साल लक्ष्य 49 हज़ार करोड़ को पार करने का है.

भानु जायसवाल गुज़रे नामों को याद करते हैं, "साल 1970-80 तक लाला मणिलाल, राजा राम जायसवाल, दीप नारायण जायसवाल, लाला राम प्रकाश जायसवाल, श्री नारायण साहू (का बोलबाला था). 1980-90 तक लाला जगन्नाथ जी, लाला मणिलाल, विनायक बाबू थे. 1985-88 के बाद माननीय जवाहर लाल और गोरखपुर के बद्री बाबू जायसवाल आए."

पूर्व अधिकारी बताते हैं कि व्यापारियों का ज़ोर इतना था कि वो दुकानों की मनमानी कीमत देते थे, क्योंकि उनके सामने खड़े होने की ताकत किसी में नहीं होती थी.

उत्तर प्रदेश आबकारी विभाग के पूर्व एडिशनल एक्साइस कमिश्नर केशव यादव समझाते हैं, "एक जिले में मान लीजिए देसी शराब की 300 दुकानें हैं. मान लीजिए एक दुकान की पिछले साल आमदनी एक करोड़ रुपए थी. ठेकेदार कहता था कि वो उस दुकान ज़्यादा से ज़्यादा एक करोड़ पांच लाख रुपए देगा, उससे ज़्यादा नहीं, नहीं तो आप जिसको देना हो दुकान दे दीजिए. ठेकेदार को पता था कि अधिकारी ये दुकान किसी को नहीं दे पाएंगे. छोटा ठेकेदार एक सीमा तक बोली लगाता था, फिर रुक जाता था. क्योंकि उनके पास मूलभूत सुविधा नहीं होती थी."

"जब तक सरकारी सिस्टम नहीं था, तो 50-50 का रेशियो होता था नंबर 2 और नंबर एक के सामान का. छोटी छोटी मलिन बस्तियों में शराब बनती थी. पुलिस का पकड़ उतनी नहीं हो पाती थी. सरकार की व्यवस्था बहुत ढीली हुआ करती थी. यही लोग सब मैनेज करते थे."

ये हाल 2001 तक चला.

बदलाव की नई नीति

वक्त बदला और साल 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी. एक्साइज मंत्री थे सूर्य प्रताप शाही.

अधिकारियों के मुताबिक शराब व्यपारियों की मनमानी रुकने का नाम नहीं ले रही थीं.

साल 1999 से 2002 तक प्रवीर कुमार प्रदेश के एक्साइज कमिश्नर थे. वो बताते हैं कि उन्हें पदभार संभालने के बाद से ये समस्या आने लगी कि बहुत सारे ठेकेदारों ने दुकानों की बोली बढ़ाने से मना कर दिया.

आईआईटी के छात्र रह चुके प्रवीर कुमार बताते हैं, "उन्होंने (ठेकेदारों ने) करीब-करीब खुली धमकी दी कि जो पिछले साल की बोली है, वो उसका 70-80 प्रतिशत ही देंगे, करना है जो करिए, इससे ज़्यादा नहीं होगा. उन्हें पता था कि उनके सामने कोई खड़े होने वाला तो है नहीं. नीलामी में सबने अपना अपना इलाका बांट रखा था."

शराब ठेकेदारों के इस रुख से राजस्व को बढ़ाने को लेकर समस्या खड़ी हो गई. नीलामी से इकट्ठा राजस्व राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण था.

फैसला हुआ कि इस मोनॉपली या एकाधिकार को तोड़ा जाए ताकि बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बढ़े और नए लोग बिज़नेस में आ पाएं, यानि खेल के नियमों को ही बदल दिया जाए.

पूर्व अधिकारी बताते हैं कि ये सरकार का पूर्ण समर्थन ही था कि वो एकाधिकार और शराब व्यापारियों की मनमानी खत्म करने के लिए साल 2001-02 में नई आबकारी नीति ला पाए.

उत्तर प्रदेश में सेक्रेटरी एक्साइज रहे और 2001 की आबकारी नीति पर पीएचडी कर चुके डॉक्टर एसपी गौड़ के मुताबिक इस नीति में मानवीय लॉटरी से दुकानों के आवंटन का प्रावधान था और दुकाने के लिए कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपनी या किराए पर प्रॉपर्टी हो वो आवेदन कर सकता था. इसके अलावा रिटेल दुकानदार कहीं से भी शराब खरीद सकते थे. इस नीति के अंतर्गत हर बॉटल पर होलोग्राम लगाया गया था ताकि उसकी बिक्री राज्य के भीतर हो.

साल 1999 से 2002 तक प्रदेश के एक्साइज कमिश्नर प्रवीर कुमार और उनकी टीम की इस नीति के कार्यान्वनय में महत्वपूर्ण भूमिका थी.

प्रवीर कुमार के मुताबिक इस नीति में सबसे बड़ा बदलाव ये था कि नीलामी से मिलने वाली राशि की जगह मिलने वाली आमदनी को दो भाग में विभाजित कर दिया - लाइसेंस फीस और ड्यूटी. एक दुकान की लाइसेंस फीस वहां होने वाली बिक्री के आधार पर निर्धारित की गई, जबकि फैसला हुआ कि शराब पर लगने वाला कर उसके डिस्टिलरी से बाहर निकलने से पहले ही सरकार इकट्ठा कर लेगी.

नतीजा ये हुआ कि पुराने बड़े नाम धीरे धीरे बिज़नेस से बाहर हो गए, मोनोपली राज पर रोक लगी और नए लोग जैसे पूर्व बैंक अधिकारी, रिटायर्ड लोग, एमबीए ग्रैजुएट बाज़ार में उतरे जो पहले इसकी धूमिल छवि की वजह से इससे आमतौर पर दूर रहते थे.

लेकिन जवाहर जायसवाल का दावा है कि मोनोपली राज अच्छा था क्योंकि इससे अवैध शराब व्यापार पर उनका कंट्रोल रहता था.

बिज़नेस से बाहर होने की वजह पर जवाहर जायसवाल कहते हैं, "इस बिज़नेस में (हमारे) बच्चे नहीं आना चाहते थे. तो मैंने सोचा कि इसे छोड़ देना ही ठीक है."

"इतिहास में है कि कोई एक आता है तो दूसरा चला जाता है. जो चला जाता है उसको लोग भूल जाते हैं. जो आगे आता है, उसे ही लोग याद करते हैं."

लेकिन अधिकारियों के लिए नई सरकार नीति लेकर आना आसान नहीं था.

उस वक्त के एक्साइज कमिश्नर प्रवीर कुमार ने बताया, "मुझे धमकियां मिलीं. मेरे परिवार को धमकियां मिलीं. रात में दो-दो बजे लोगों के फ़ोन आते थे. ये कर देंगे. वो कर देंगे. मै सीएम से मिला. उन्होंने कहा कि आप गार्ड ले लीजिए.

"मैं अपने यात्रा के कार्यक्रम के बारे में किसी को नहीं बताता था. कभी रोड से आ गए. कभी ट्रेन से आ गए. अदालत में इसे लेकर काफ़ी प्रतिरोध हुआ. वहां हमें सख्त लड़ाई लड़नी पड़ी. उनके पास अथाह पैसा था. वो सबसे अच्छे वकील को ला सकते थे."

पोंटी चड्ढा का 'उदय'

शराब व्यापारी भानु जायसवाल के मुताबिक उत्तर प्रदेश में बड़े प्लेयर के रूप में पॉंटी चड्ढा का 'उदय' साल 2000 में हुआ और साल 2012 में उनकी हत्या तक प्रदेश के शराब व्यापार पर उनका वर्चस्व रहा.

उस वक्त के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के मुताबिक पांटी चड्ढा के उदय के बाद पहले की मोनॉपली सुपर मोनॉपली में बदल गई और 2001 की आबकारी नीति की धज्जियां उड़ा दी गईं. राज्य में शराब की सारी सप्लाई अब उनके हाथ में थी.

भानु जायसवाल कहते हैं, "चड्ढा जी बहुत सुलझे हुआ आदमी थे. वो हर चीज़ को मैनेज करते थे. वो हर क्लास के साथ हाथ मिलाकर बिज़नेस को डाइवर्ट कर लेते थे."

वो कहते हैं, "हर ज़िले में उनका पार्टनर होता था. आज भी हैं. ये उनका बड़ा अच्छा फैसला था. (पार्टनर) स्थानीय स्तर पर बातों को मैनेज करता था. वो (पोंटी) प्राफ़िट मैनेज करते थे. जैसे कि अगर हम ज़मीन पर हैं. हम सबको जानते हैं. अगर कोई समस्या आएगी तो हम मैनेज कर लेंगे. लेकिन अगर कोई दिल्ली में बैठा है, तो दूर दिल्ली से चीज़ों को मैनेज करना बड़ा मुश्किल काम है. अगर आपको बड़ा बिज़नेस करना है तो आपको लोकल मैनेजमेंट करना पड़ेगा."

मायावती और अखिलेश यादव सरकारों से नज़दीकियों के आरोपों के बीच पोंटी चड्ढा का साम्राज्य फैलता गया.

भानु जायसवाल कहते हैं, "बसपा सरकार बनी तो लाइसेंस सिस्टम बदल गया. सिंगल लाइसेंस हो गया. यह सपा के दौर में भी बना रहा. पूरे उत्तर प्रदेश के होलसेल का लाइसेंस एक व्यक्ति को दे दिया गया कि आप लाइसेंस लो और चलाओ. उसका बहुत बड़ा नुकसान हुआ कि छोटी-छोटी इंडस्ट्री बंद हो गईं. क्योंकि वो लोग (पोंटी) जितना मार्जिन मांगते थे, कंपनियां दे नहीं पाती थीं. बड़ी कपनियां तो मैनेज कर लेती थीं लेकिन छोटी कंपनियां, डिस्टलरियां नही कर पाईं. वो बंद हो गईं. जो स्थानीय ब्रांड्स थे वो बंद हो गए. बहुत से ब्रांड बाज़ार से गायब हो गए. (कंपनियों से कहा जाता था कि) अगर आप हमें ये मार्जिन देंगे तो आपका ब्रांड हम बेचेंगे नहीं तो नहीं बेचेंगे."

वाराणसी के प्रभात जायसवाल जब शराब के रीटेल बिज़नेस में आए तब प्रदेश में पॉंटी चड्ढा का सिक्का चलता था.

वो कहते हैं, "हर ज़िले में पोंटी के गोडाउन थे. वो जो ब्रांड उपलब्ध करवाते थे, वही बेचना पड़ता था. अगर उनकी इच्छा है कि ये ब्रांड राज्य में नहीं आएगा, तो हमको नहीं मिलता था और उन्हें हम अपनी दुकानों में भी नहीं रख पाते थे."

इस साम्राज्य के बीज पड़े मुरादाबाद में, जहां विभाजन के बाद पॉंटी के दादा यहां आए थे. यहीं पोंटी चड्ढा ने बिज़नेस के गुर सीखे.

उनके चचेरे भाई गुरजीत सिंह चड्ढा बताते हैं, "सरकार को तो राजस्व चाहिए आपमें हिम्मत होनी चाहिए उसे पूरा करने की. आपका नुकसान भी हो सकता है. उन्होंने अगर कोई कांट्रैक्ट्स लिए थे, अपनी ज़ुबान पर लिए थे, अपनी हिम्मत पर लिए थे. उन्होंने उसको पूरा करके दिखाया. उनको हम लोगों से बहुत ज़्यादा जानकारी थी. वो सरकार का राजस्व बढाते रहे."

पॉंटी चड्ढा के नज़दीकी रहे सुखदेव सिंह नामधारी कहते हैं, "वो तो बिज़नेस करते थे. सरकार को टैक्स देते थे. कोई ज़बरदस्ती थोड़ी लेते थे वो. सरकार ऑक्शन करती थी नीलामी करती थी, उसमें वो लेते थे काम जो भी. जो ज़्यादा बोली लगाएगा, जो ज़्यादा रेवेन्यू देगा, सरकार उसी को ज़्यादा काम देगी."

साल 2012 में हुए चड्ढा शूटआउट मामले में नामधारी को गिरफ़्तार किया गया था. नामधारी के मुताबिक, "सारा मामला कोर्ट में चल रहा है. मैं निर्दोष हूं. मुझे खामखां फंसाया गया. हमने चलाई नहीं गोली."

गुरजीत सिंह चड्ढा के मुताबिक साल 2012 में पोंटी चड्ढा की हत्या परिवार के लिए अनहोनी जैसी थी. बिज़नेस की ज़िम्मेदारी दूसरे सदस्यों के कंधों पर आ पड़ीं जिससे उनकी मुश्किलें तो बढ़ी दीं. बिज़नेस पर भी असर पड़ा.

नामधारी कहते हैं, "पोंटी जी के जाने के बाद बिज़नेस तो प्रभावित हुआ ही है. बहुत ज़्यादा प्रभावित हुआ है. उनकी अपनी सोच थी. उन्होंने उस हिसाब से प्लानिंग कर रखी थी. उनके अपने संबंध थे. उनके एकदम अचानक जाने के बाद दूसरी की इतनी सोच नहीं रही होगी, न इतने संबंध होंगे. तो बिज़नेस पर प्रभाव तो पड़ा ही है. बिज़नेस तो नीचे आया ही है. वो सबको पता ही है."

पोंटी चड्ढा और परिवार को जानने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि उनकी मृत्यु के बाद उनके बिज़नेस का बंटवारा हो गया, जिसमें उनके भाई रजिंदर चड्ढा ने शराब का व्यापार संभाला.

वो कहते हैं, "बिज़नेस में जिस तरह पोंटी चड्ढा का रसूख था, उससे उन्हें चाहे सरकार या प्रशासन के लोग, सभी उनके बेटे की मदद को तैयार थे. उनके लिए लोगों के हृदय में संवेदना थी."

जानकारों के मुताबिक चड्ढा की हत्या को 10 साल हो चुके हैं लेकिन राज्य के शराब व्यापार पर चड्ढा परिवार का आज भी ख़ासा असर है. इस रिपोर्ट के लिए हमारी उनके बेटे या भाई से बात नहीं हो सकी.

आज का दौर

उत्तर प्रदेश में आज शराब व्यापार के लिए लॉटरी प्रक्रिया पूरी तरह ऑनलाइन है, जिससे जानकारों, व्यापारियों के मुताबिक सिस्टम में पारदर्शिता आई है और कई लोगों में इस क्षेत्र में आने का मौका मिला है.

जवाहर जयसवाल कहते हैं, "ऑन लाइन सिस्टम अच्छा है. इसमें कोई हेराफ़ेरी नहीं हो सकती. पहले हेराफेरी होती थी."

शराब व्यापारी प्रभात कुमार जयसवाल के मुताबिक "आज कोई भी इस बिज़नेस में आ सकता है. (बिज़नेस में) शांति और सुकून है."

हालांकि कुछ शराब व्यापारियों ने बातचीत में ये भी कहा कि बिज़नेस में मुनाफ़ा कम हुआ है, और छोटे व्यापारियों के लिए आर्थिक दबाव बढ़ा है.

लखनऊ में लिकर सेलर्स वेलफ़ेयय एसोसिएशन के देवेश जायसवाल कहते हैं, "रेवेन्यू प्रॉफ़िट काफ़ी कम हो गया है. लाइसेंस फीस बहुत ज़्यादा बढ़ गई है. हमें सरकार को एक न्यूनतम आमदनी देनी होती है, चाहे हमारी आमदनी हो या न हो. पहले लोग एक साल में 10-12 दुकानें छोड़ रहे थे. आज एक साल में सवा सौ से 150 दुकानें भी छूट जाती हैं. आज की तारीख में मुनाफ़ा काफ़ी कम हो चुका है."

देवेश अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं, "मेरे पास इतने पैसे नहीं बचे कि मैं इस बिज़नेस को लंबे समय तक चला पाऊंगा."

उत्तर प्रदेश के इक्साइज कमिश्नर सी सेंथिल पांडियन के मुताबिक लोग दुकान सरेंडर नहीं कर रहे हैं क्योंकि शराब बेचने वाली दुकानें तो बढ़ी हैं, न कि घटी हैं.

शराब व्यापार से पिछले साल उत्तर प्रदेश को 36 हज़ार करोड़ रुपए की आमदनी हुई. इस साल सरकार का लक्ष्य 49 हज़ार करोड़ को पार करने का है.

नई तकनीकों का इस्तेमाल कर प्रशासन शराब की चोरी रोकने की कोशिशें कर रहा है. आज पूरे राज्य में आप दो से ज़्यादा दुकानें नहीं ले सकते. किसी एक ज़िले में शराब के होलसेल में एकाधिकार न हो इसलिए हर ज़िले में एक से ज़्यादा होलसेलर हैं.

उत्तर प्रदेश के इक्साइज कमिश्नर सी. सेंथिल पांडियन कहते हैं, "होलसेल में भेजी गई और रिटेल में बेचे जाने वाली सभी शराब के आने जाने की गतिविधि को ट्रैक किया जाता है. पासवर्ड से खुलने वाला डिजिलॉक अपने गंतव्य पर खुलता है, उससे पहले नहीं ताकि (रास्ते में) लीकेज या चोरी न हो. हम शुरू से यानी कच्चे माल से आख़िर तक यानी ग्राहक को सामान मिलने तक पूरी ट्रैकिंग सिस्टम को लागू करने की प्रक्रिया में है."

एक्साइज से कमाया गया कर उत्तर प्रदेश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. राज्य की करीब 29 हज़ार दुकानों में शराब की बढ़ती खपत से कई लोग खुश हैं. उनका मानना है दुनिया के मुकाबले भारत शराब की पर कैपिटा खपत में अभी भी पीछे है, लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो युवाओं में इसके बढ़ते आकर्षण और सामाजिक प्रभाव पर फिक्रमंद है.

एक शराब व्यापारी ने इसे समाज का वीभत्स रूप बताया जिसका ताल्लुक आज परिवारों के टूटते ताने बाने से है.

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