नीतीश कुमार बार-बार जातिगत जनगणना की हिमायत क्यों कर रहे हैं

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- Author, सरोज सिंह
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
- 18 फरवरी 2019 : बिहार विधानसभा में जातिगत जनगणना पर पहली बार प्रस्ताव पारित.
- 27 फरवरी 2020 : बिहार विधानसभा में जातिगत जनगणना पर दूसरी बार प्रस्ताव पारित
- 23 अगस्त 2021: बिहार के प्रतिनिधिमंडल ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में पीएम नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात कर जातिगत जनगणना कराने की माँग की.
- 1 जून 2022 : नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना पर सर्वदलीय बैठक बुलाई
बिहार की राजनीति में ये तारीख़ दर्ज हैं.
पिछले चार साल में ये चार मौके ऐसे है जब जातिगत जनगणना को लेकर नीतीश मुखर नज़र आए.
बिहार में विपक्षी नेता तेजस्वी यादव भी जातीय जनगणना कराने को लेकर नीतीश कुमार के साथ हैं.
बिहार बीजेपी ने सदन में लाए गए दोनों प्रस्तावों का समर्थन भी किया है. पीएम मोदी से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल का वो हिस्सा भी रहे हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि जब जेडीयू, बिहार बीजेपी और आरजेडी तीनों साथ हैं - तो नीतीश कुमार, जातिगत जनगणना के लिए किस बात का इंतजार कर रहे हैं?
उनके इस इंतजार में कुछ जानकार राजनीति देख रहे हैं, कुछ इसे प्रशेर पॉलिटिक्स करार दे रहे हैं तो कुछ आने वाले दिनों में उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की नई बिसात मान रहे हैं.
तीनों तरह के जानकारों से बीबीसी ने बात की और उनके तर्क समझने की कोशिश की है.

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'मामले को गर्म' रखने की राजनीति
'ओबीसी पॉलिटिक्स' तो नीतीश कुमार सालों से कर रहे हैं.
जाति के आधार पर जनगणना कराने की माँग वो इस वजह से कर रहे हैं कि अगर ओबीसी की जनसंख्या कुछ बढ़ जाती है तो अलग अलग स्तरों पर रिज़र्वेशन बढ़ाने की माँग की जा सकती है. लालू यादव इस मामले में काफ़ी मुखर भी रहे है.
केंद्र सरकार इस बार की जनगणना जाति के आधार पर नहीं करा रही है. ऐसा वो संसद में कह चुकी है. जानकारों की मानें तो केंद्र सरकार ऐसा कराती है तो बाक़ी धड़ों से भी माँग आ सकती है.
लेकिन राज्य के स्तर पर ऐसा कराया जा सकता है.
कर्नाटक सरकार ने कराया भी है.
इस वजह से नीतीश सरकार को दिक़्क़त नहीं आएगी क्योंकि बिहार की सत्ता में वो बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री हैं.
तो फिर इस मुद्दे पर केवल बयान से क्या हासिल होगा?
बिहार में पीटीआई के वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं कि नीतीश कुमार समय समय पर ऐसे बयान दे कर पूरे मामले को हमेशा गर्म रखना चाहते हैं. वो दिखाना चाहते हैं कि ओबीसी वोट बैंक के प्रति जेडीयू ज़िम्मेदाराना रवैया रखती है.

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जातिगत जनगणना पर घमासान क्यों ?
ब्रिटिश राज में 1931 की अंतिम जातिगत जनगणना के समय बिहार, झारखंड और उड़ीसा एक थे. उस समय के बिहार की लगभग 1 करोड़ की आबादी में मात्र 22 जातियों की ही जनगणना की गई थी.
अब तक़रीबन 90 साल बाद आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा फर्क आ चुका है.
नेताओं को लगता है कि अब इसमें काफ़ी बदलाव आएगा. संख्या बल के आधार पर जाति को आरक्षण की माँग भी हमेशा उठती रही है.
जातिगत जनगणना कराने का मतलब है आरक्षण के मुद्दे को एक बार फिर से तूल देना और 'अपर कास्ट' आरक्षण के मुद्दे पर हमेशा विरोध में रहती है. उनको लगता है कि जातिगत जनगणना से आरक्षण बढ़ेगा, जिसका सबसे ज़्यादा नुक़सान 'अपर कास्ट' को होगा.
देश में बीजेपी की छवि अपर कास्ट पार्टी की मानी जाती है. हालांकि सच ये भी है कि पिछले कुछ राज्यों के चुनाव में बीजेपी ने ओबीसी वोट बैंक में भी सेंधमारी की है.

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'नबंर गेम' की राजनीति
वहीं राज्य के दूसरे वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद, जातिगत जनगणना पर बार बार दिए जाने वाले नीतीश कुमार के बयानों को प्रेशर पॉलिटिक्स का हिस्सा बताते हैं.
दरअसल बिहार में बीजेपी के पास 77, आरजेडी के पास 76 और जेडीयू के पास 45 विधायक हैं.
बीजेपी और जेडीयू, हम पार्टी के 4 विधायकों के साथ मिलकर सत्ता में है.
आरजेडी मुख्य विपक्षी पार्टी है.
लेफ्ट के पास 18 विधायक हैं और कांग्रेस के पास 19 विधायक हैं.
इन्हीं आकँड़ों के आधार पर सुरूर अहमद कहते हैं, "ये प्रेशर पॉलिटिमक्स दोनों तरफ़ से चल रही है. बीजेपी की तरफ़ से बार बार बयान आते हैं कि हमारे 77 विधायक हैं, मुख्यमंत्री हमारा होना चाहिए. ऐसे में जातिगत जनगणना की बात बार-बार करके नीतीश ये जताना चाहते हैं कि हमारे पास दूसरे विकल्प भी हैं.
जातिगत जनगणना के मुद्दे पर नीतीश हाल में तेजस्वी से मिले भी हैं. इफ़्तार पार्टी के बहाने दोनों नेताओं ने दो बार पहले भी मुलाक़ात की.
जिसके बाद लालू यादव के कुछ ठिकानों पर सीबीआई का छापा पड़ा. नीतीश तेजस्वी की नज़दीकियों को इस छापेमारी से जोड़कर देखा गया."

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अगले महीने राज्यसभा के चुनाव होने वाले हैं. जेडीयू से आरसीपी सिंह को राज्यसभा सीट मिलेगी या नहीं इस पर थोड़ा सस्पेंस है. केंद्र में आरसीपी सिंह जेडीयू कोटे से मंत्री हैं. अगर इस बार वो राज्यसभा नहीं जा पाते हैं, तो मंत्रीपद भी जाएगा.
बिहार की राजनीति में आरसीपी सिंह और नीतीश के बीच अनबन के क़िस्से काफ़ी दिनों से चल रहे हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ख़बरें यहां तक छपी हैं कि अगर आरसीपी सिंह को राज्यसभा सीट नहीं मिली तो पार्टी टूट भी सकती है.
दोनों में से किसी नेता का ना तो राज्यसभा सीट को लेकर और ना ही आपसी रिश्तों में खींचतान को लेकर कोई बयान नहीं आया है.
सुरूर अहमद कहते हैं - दोनों तरफ़ से प्रेशर पॉलिटिक्स एक अंदाजे पर चल रही है. वो अंदाजा है जेडीयू में 'टूट' का.
अगर जेडीयू में टूट हो जाती है, और आरसीपी सिंह के साथ 30 विधायक रहते हैं तो वो बीजेपी के साथ मिल कर और कुछ विधायकों को कांग्रेस से तोड़ कर बिहार में सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं.
दूसरा विकल्प नीतीश के पास है. अगर 30 विधायक नीतीश के साथ रहते हैं, आरजेडी के पास 76 हैं, कांग्रेस और लेफ़्ट का सपोर्ट मिल जाता है तो नीतीश मुख्यमंत्री बने रहेंगे.
30 विधायकों का आँकड़ा इस वजह से ज़रूरी है क्योंकि दल बदल क़ानून ऐसा कहता है.
जातिगत जनगणना केवल इस 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का हिस्सा है क्योंकि ये मुद्दा नीतीश कुमार को तेजस्वी और लालू यादव से जोड़े रखता है.
हालांकि ये पूरा मामला संभावनाओं का ही खेल है.

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प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा
नीतीश के रोज़-रोज़ आने वाले बयानों को प्रभात ख़बर के पूर्व संपादक रहे राजेन्द्र तिवारी उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से जोड़ कर देखते हैं.
उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उनके कार्यकाल को काफ़ी नज़दीक से देखा है.
वो कहते हैं, "नीतीश बीजेपी से ख़ुद अलग नहीं होना चाहते. बल्कि चाहते हैं कि बीजेपी ऐसा कुछ करे जिससे वो ये कह सकें कि राज्य सरकार चलाने में दिक़्क़त आ रही है.
नीतीश कुमार को ये पता है कि आगे की राजनीति में उनके लिए रास्ता बीजेपी के साथ नहीं बनता. तीन टर्म के वो मुख्यमंत्री है. इससे आगे राज्य की राजनीति में कहां जा सकते हैं.
बीजेपी के साथ रहते केंद्र की राजनीति में बहुत गुंजाइश नहीं बचती. उनकी महत्वाकांक्षा पीएम बनने की है. वो बन पाएंगे या नहीं वो अलग बात है. वैसे तो वो बहुत धैर्यवान व्यक्ति हैं. वो आगे के दो तीन साल पहले की बात सोच कर चलते हैं और तैयारी पहले से करके रखते हैं."
राजेन्द्र तिवारी 'कैरम के गेम' का उदाहरण देकर पूरे मामले को समझाते हैं.
"जैसे कैरम के खेल में एक गोटी को मारते हैं, वो दूसरे को जाकर लगती है, और उसकी वजह से तीसरी गोटी जीत लेते हैं. ठीक उसी तरह की राजनीति नीतीश कुमार भी करते हैं.
वो इन बयानों के ज़रिए विपक्षी खेमे में एक जगह टटोलने की कोशिश कर रहे हैं.
2015 में उन्होंने एक कोशिश की थी, देश भर में बिखरे जनता दल के नेताओं को साथ लाने की. वो हो नहीं पाया.
जातिगत जनगणना पर बार बार बयान भी इस वजह से आ रहे हैं. उनका अगला कदम हिंदू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद जैसे तमाम मुद्दों को केंद्र में रख कर ही लिया जाएगा."
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