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कभी 'मैनचेस्टर ऑफ़ ईस्ट' रहा कानपुर कैसे बन गया बंद मिलों का शहर
- Author, सीमा चिश्ती
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
कभी राम प्रकाश कानपुर की जेके जूट मिल के कर्मचारी थे. कर्मचारी यूनियन के नेता भी बने. कानपुर को लेकर उनका उत्साह आज भी देखते बनता है.
वे कहते हैं, "हमारा शहर एक समय में संगठित श्रमिकों का शहर था, यूपी के उद्योग-धंधों की जान यहाँ बसती थी और इसे पूर्व का मैनचेस्टर भी कहते थे."
रामप्रकाश को शहर का आर्थिक विकास थमने का अफ़सोस है.
कभी मिलों के सायरन, मशीनों की गड़गड़ाहट और अपने-अपने मिलों के लिए सड़क किनारे भागते श्रमिकों के साइकिल की घंटियों की आवाज़ से शहर गूंजता रहता था लेकिन सब थम गया है.
मिल मालिकों ने आधुनिक तकनीकों का ख़र्च उठाने से इनकार कर दिया और मिल मज़दूरों के वेतन का भुगतान नहीं किया और दूसरे उद्योग-धंधों में लग गए. रामप्रकाश के मुताबिक इससे श्रमिकों की हालत ख़राब हो गई. वे चिटफ़ंड के घोटालेबाज़ों के चंगुल में फंस गए, उनके झूठे वादों के शिकार हो गए.
उन्हें कहीं से उम्मीद नज़र नहीं आई. कभी लाल इमली, इल्गिन मिल, मुईर मिल, टेक्स्टाइल कॉरपोरेशन यूनिट वाली टेक्स्टाइल लेन में देखते-देखते सन्नाटा पसर गया.
कानपुर की इन मिलों की दीवारों पर बनी ग्रैफिटी के चमकीले रंग इन दीवारों के पीछे खड़े खंडहरों को छिपा नहीं पाते हैं.
मजदूर आंदोलन का हासिल
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स, कानपुर के प्रोफेसर एके वर्मा लंबे समय से प्रदेश की राजनीतिक हलचलों पर नज़र रखते आए हैं. शहर के साथ जो कुछ भी हुआ है उसके पीछे मज़दूर कार्यकर्ताओं की राय से वे इत्तेफाक़ नहीं रखते.
वे प्रदेश के इस पतन के लिए काफ़ी हद तक वामपंथी कामगार यूनियनों की ओर से मिल बंदी और दूसरे 'स्वार्थी कारणों' को ज़िम्मेदार मानते हैं. उन्होंने बताया, "इंडस्ट्री के दूसरे केंद्र तेजी से बढ़ने लगे थे. कानपुर और यूपी पिछड़ता गया. स्थानीय नौकरशाही का भी दोष है. कानपुर हमेशा लखनऊ के साये में ही रहा."
वर्मा कहते हैं कि 1989 के बाद राजनीति की बनावट बदल गई और नई सामाजिक पहचान आधारित राजनीति स्पष्ट रूप से मुखर हुई.
इस नई "राजनीतिक संस्कृति" ने कानपुर को एक औद्योगिक केंद्र और विकास के इंजन के रूप में पोषित नहीं किया और यहाँ स्थित दूसरे अन्य संस्थानों की स्थिति भी पहले जैसी नहीं रही.
कानपुर विश्वविद्यालय में जनसंचार और पत्रकारिता विभाग के प्रमुख डॉ जितेंद्र डबराल, प्रोफेसर वर्मा के तर्कों से सहमत नहीं हैं.
डबराल कहते हैं, "हम यह कैसे कह सकते हैं कि कानपुर के मजदूर वर्ग के आंदोलनों से कुछ हासिल नहीं हुआ? 1857 के युद्ध को नाकाम कहा जाता है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था? हम बहुत बाद में ही बता सकते हैं कि इस शहर ने कितने महत्वपूर्ण हलचलों के दौर को देखा था जिसने बाद में कहीं ज़्यादा उन्नत विकास में योगदान दिया."
जैसा कि इतिहासकार रुद्रांग्शु मुखर्जी ने कानपुर में 1857 के नरसंहार पर आधारित अपनी किताब 'स्पेक्टर ऑफ वायलेंस' में बताया है, "शहर और उसके आसपास के इलाकों में कर्नल जेम्स नील की सख़्त पाबंदियों के कारण ही क्रांतिकारी तीस साल बाद उनके बेटे मेजर एएचएस नील की हत्या के लिए प्रेरित हुए होंगे. कानपुर का एक खूनी इतिहास रहा है, सतीचौरा और बीबीघाट में ब्रितानी सैनिकों ने नरसंहार किया और और इसके बदले में भारतीय क्रांतिकारियों के हमले ने इस शहर को अंग्रेज़ों के लिए चैंबर ऑफ़ हॉरर में तब्दील कर दिया था."
बाद में, महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर में उग्र सांप्रदायिक दंगे को रोकने की कोशिश करते हुए 1931 में हमलावरों का शिकार बने.
हमलावरों ने उनकी हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वे दंगाइयों के सामने आम निर्दोषों की मदद करने की कोशिश कर रहे थे.
कहा जाता है कि भगत सिंह की फ़ांसी दिए जाने के दो दिन बाद 40 साल की उम्र में गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या ने कांग्रेस के कराची प्रस्ताव में भारतीयों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की मांग को तेज़ कर दिया था.
इससे ही भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और स्वीकृति का आधार बना. भारतीय लोगों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के लिए विद्यार्थी आंदोलन चला रहे थे. उन्होंने शहर में कपड़ा मिल मज़दूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया था.
वैसे कानपुर में आज भी कुछ अन्य उद्योग-धंधे हैं. कानपुर अपने चमड़ा उद्योग के लिए भी मशहूर रहा है. कानपुर किसी ज़माने में अपने एक्सपोर्ट क्वालिटी के जूतों, बेल्टों, बैगों और जैकेटों के लिए जाना जाता था.
बूचड़खानों के बंद होने के कारण प्रदेश की सड़कों पर घूमने वाले आवारा पशु इस बार चुनावों में एक अहम मुद्दा हैं. बूचड़खाना चलाने का काम करने वाले सरकारी कार्रवाई के डर से न तो इस पर बात करना चाहते हैं और न ही अपनी फैक्ट्रियों की स्थिति दिखाना चाहते हैं.
प्रदूषण दूर करने के नाम पर चमड़े के कारखाने महीने में दो सप्ताह बंद होते हैं क्योंकि उनका कचरा गंगा नदी में गिरता है. हर महीने दो सप्ताह बंद होने के कारण भी यह इंडस्ट्री काफ़ी सिकुड़ गई है. कारोबार से जुड़े लोग धीमी ज़ुबान में कहते हैं कि जल शोधन संयंत्रों को सक्रिय तौर पर स्थापित करने के बजाय प्रदूषण के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जाता है और वे लोग इसकी भारी क़ीमत भी चुका रहे हैं.
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कानपुर की उपमा
कानपुर के विकास कुमार बेंगलुरु स्थित अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्री हैं. कानपुर शहर और वहां की आर्थिक संरचनाएं क्यों ढह गईं, इस मुद्दे पर विकास ने गहराई से सोचा और लिखा है, साथ ही, उन्होंने यह भी देखने की कोशिश की है कि उनके राज्य में क्या कुछ हुआ.
उनका कहना है कि अन्य विकसित राज्यों के विपरीत यूपी में मुख्यमंत्री तेज़ी से बदले या हटा दिए गए, राज्य को कोई कामराज या एमजीआर या फिर नंबुदिरीपाद या करुणानिधि जैसा नेता नहीं मिला जो अपने दम पर राज्य को विकास की राह पर डालता. विकास मानते हैं कि भूमि का असमान वितरण, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा और निचली जातियों में देरी से सक्रियता और समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता के कारण राज्य मानव विकास के सूचकांक में कभी ऊपर नहीं चढ़ पाया.
इसके अलावा राज्य के नुकसान के लिए वे भ्रष्टाचार, लचर क़ानून व्यवस्था और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के चरमरा जाने को भी दोषी ठहराते हैं. राज्य की सीमा किसी बंदरगाह से नहीं लगती और औद्योगिक अस्थिरता के साथ-साथ राजनीतिक अनिश्चितता ने न केवल कानपुर जैसे पुराने शहरों और और अंततः राज्य को तबाह कर दिया.
उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम है और बहु-आयामी ग़रीबी पर नीति आयोग की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक राज्य की हालत बहुत ख़राब है. राज्य में असमानता भी अधिक है, क्योंकि 54% आबादी या तो ग़रीब है या ग़रीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है.
पिछले पांच वर्षों में युवाओं में बेरोज़गारी काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है. मानव संसाधन के आंकड़ों के अनुसार, 2017 से यूपी की कुल कामकाजी उम्र की आबादी में 2 करोड़ से अधिक युवाओं की वृद्धि हुई है, लेकिन नौकरी में लगे लोगों की संख्या में 16 लाख की कमी हो गई है.
अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर संतोष मेहरोत्रा वर्षों से प्रदेश पर नज़र रखते आए हैं और उन्होंने जनवरी में राष्ट्रीय दैनिकों में छपने वाले विज्ञापनों में किए जा रहे सरकारी दावों का आकलन भी किया है. मेहरोत्रा का दावा है कि दूसरे बीमारू राज्यों की तुलना में यूपी कहीं ज़्यादा पिछड़ रहा है. इसकी वजह बताते हुए वे कहते हैं, "मानव विकास को कभी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला और बीते 30 वर्षों से शासन ख़राब रहा है. इस दौरान न तो औद्योगीकरण पर जोर दिया गया और न आधी अर्थव्यवस्था वाले कृषि क्षेत्र की ही मदद की गई."
हालांकि मेहरोत्रा ये भी कहते हैं कि पिछले पांच साल सबसे निराशाजनक रहे.
उन्होंने कहा, "नोटबंदी ने असंगठित अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर तबाह कर दिया. यह यूपी की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा है, जिसके कारण सबसे ज़्यादा नुकसान यूपी को ही हुआ है. यूपी की पिछली अखिलेश सरकार के दौरान यानी 2012 से 2017 के बीच राज्य की अर्थव्यवस्था 6.92% की सालाना दर से बढ़ी थी जबकि वर्तमान सरकार के तहत विकास दर 4.88% रही और इसमें कोविड संकट के चलते 2020-21 के आंकड़ों को शामिल नहीं किया गया है."
मेहरोत्रा कहते हैं, "इसका मतलब है कि मौजूदा शासन का विकास रिकॉर्ड पिछले तीन दशकों में सबसे ख़राब है रहा है."
यूपी में अद्वितीय पारंपरिक शिल्पकला का इतिहास रहा है, रामपुरी चाकू से लेकर अलीगढ़ी ताले तक हर ज़िले में एक विशेष काम-धंधा रहा है.
मेहरोत्रा के मुताबिक ये सब तबाह हो गए हैं. उन्होंने कहा, "एमएसएमई के तौर पर शिल्प-संबंधित छोटे उद्योग धंधे थे, वे सब नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन और कोविड संबंधी अव्यवस्था के चलते तबाह हो गए."
ये ज़रूर है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने राज्य में 'वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट' का अभियान चलाया है जिसके तहत छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है.
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अर्थव्यवस्था में सुधार और यूपी का भविष्य
विकास कुमार कानपुर से जुड़े अपने अनुभव के बारे में कहते हैं, "जब मैं पहली बार यहां आया था तो इस शहर में काफ़ी संभावनाएं थीं लेकिन उदारीकरण के डेढ़ दशक के बाद अगर तुलना की जाए तो यह कुछ मायनों में बदतर हो गया है. अब बड़ा-सा धूल भरा कंक्रीट का जंगल दिखता है, शहर में पहले जो भी थोड़ी-बहुत सामुदायिक भावना थी, वह मिट चुकी है. अब ज्यादातर सक्षम युवा अपनी भलाई के लिए किशोरावस्था में ही शहर छोड़ देते हैं जिससे अच्छे शिक्षक वगैरह ढूंढने में मुश्किलें आती हैं. फिर इससे पलायन और बढ़ जाता है."
भारत के दक्षिण और पश्चिम हिस्से में सामाजिक आंदोलनों ने लोगों के साथ-साथ वहां के राज्यों को भी आर्थिक तौर पर कहीं ज्यादा संपन्न और सक्षम बनाया. उत्तर प्रदेश में ऐसी कोई बात नहीं देखने को मिली.
संतोष मेहरोत्रा के 2006 के बेहद अहम शोध अध्ययन में उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के पिछड़े लोगों के सामाजिक स्थिति और सामाजिक कल्याण के संबंधों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया था.
उन्होंने निष्कर्ष निकाला, "पिछली शताब्दी के शुरू में तमिलनाडु में भी दलितों और पिछड़े लोगों में सामाजिक सक्रियता का आंदोलन दिखा. यह आंदोलन स्वतंत्रता के बाद सामाजिक सूचकांक मसलन स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में तब्दील हो गया. जबकि उत्तर प्रदेश में दलितों के आंदोलन ने विशेष रूप से सत्ता कब्जाने पर ध्यान लगाये रखा और निचली जातियों को महज संकेतात्मक लाभ मिल सका."
बेशक, इस असमानता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं. भूमि पर असमान अधिकार भी इसकी वजह रहा है. 1990 के दशक में नौकरी में आरक्षण शुरू होने के बावजूद सवर्णों का सामाजिक और आर्थिक प्रभुत्व बना हुआ है. इसके कारण असमानता के जाल से लाखों लोगों का बच पाना असंभव है.
लेकिन उत्तर प्रदेश को हालात बदलने के लिए कभी न कभी फ़ैसला लेना ही होगा.
हिंदी के जाने-माने लेखक और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई से पूछा गया था क्या चित्रकार एमएफ़ हुसैन का बॉम्बे जिमखाना में नंगे पांव चलना 'भारतीयता' था? तो उन्होंने जवाब दिया था, "उत्तरीय, अधोवस्त्र और खड़ाऊँ को जो भारतीयता मानते हैं, उनसे कुछ भी कहना बेकार है, हमारे देश में विकृत आधुनिकता अंग्रेज़ियत की तरफ़ ले जाती है और अति-राष्ट्रीयता फ़ासीवाद की ओर."
यूपी को ग़रीबी और तंगहाली के अंधेरे से बाहर निकलने के लिए अपना अनूठा रास्ता बनाना होगा. ऐसी नीतियां सुनिश्चित करनी होगीं जिनमें आम लोगों की भागीदारी हो. अपने नागरिकों के लिए सार्थक भविष्य का निर्माण करने के लिए, किसी भी नए 'मॉडल' को अपनाने में इसका ख़्याल रखना होगा कि इसमें सभी लोग एक समान रूप से शामिल हों. सबकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी होगी.
अगर यूपी ऐसा मॉडल बनाता है और इसे लागू करता है तो वह राजनीति की तरह आर्थिक विकास के मामले में भी देश की दशा तय करेगा.
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