उत्तर प्रदेश चुनाव: स्वामी प्रसाद मौर्य पडरौना छोड़ फ़ाज़िलनगर से लड़ने क्यों चले गए - ग्राउंड रिपोर्ट

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- Author, कीर्ति दुबे
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, कुशीनगर से
लगभग शाम के चार बजे का समय है जब कुशीनगर ज़िले के बेइली गांव में रहने वाली 65 साल की लीलावती कहती हैं "नेताओं का पार्टी बदलते रहना वैसा ही है जैसे कोई अपनी शादी बार-बार तोड़ दे एके अच्छा मानी? जब ऊS पडरौना से रहलें तS ओहीं से लड़ना चाहिए, इके भगौड़वा ना मानल जाई."
लीलावती की ये बात काटते हुए उनके पास खड़े लखनू कहते हैं, "ऐसे तो प्रधानमंत्री गुजरात छोड़ कर बनारस आ गइले (आ गए) चुनाव लड़े, सब नेता उहे (वही) काम करते हैं. ई कर दिए तो का हो गइल? (ये कर दिए तो क्या हे गया?)"
इसके जवाब में लीलावती कहती हैं, "लेकिन मोदी जी पार्टी नाहीं बदललें, इहो पार्टी ना बदलते, कहीयों से लड़ते कोई बात न रहत." (मोदी ने पार्टी नहीं बदली, ये भी उसी पार्टी में रह कर कहीं से भी लड़ते तो कोई बात नहीं होती.)
दो मतदाताओं के बीच ये बहस हो रही है कुशीनगर ज़िले की फ़ाज़िलनगर सीट पर समाजवादी उम्मीदवार और उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्या को लेकर. लीलावती और लखनू दोनों ही पिछड़ी जाति से आते हैं.
इस साल जनवरी में स्वामी प्रसाद मौर्य ने जब बीजेपी छोड़ी तो इसे बीजेपी का सबसे हाई-प्रोफ़ाइल एग्ज़िट माना गया. योगी सरकार में श्रम और रोज़गार मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्या ने ये कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि बीजेपी पिछड़े और दलितों की अनदेखी कर रही है.
अपने इस्तीफ़े के ठीक बाद वो समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. साल 2016 में बीजेपी जॉइन करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य इससे पहले बसपा में थे और वहां बसपा सुप्रीमो मायावती के बाद नंबर-2 के नेता माने जाते थे.
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पडरौना में आरपीएन सिंह की एंट्री और मौर्य का एग्ज़िट
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ से आने वाले 68 साल के स्वामी प्रसाद मौर्य बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और बसपा की सरकारों में भी मंत्री रह चुके हैं.
वह दो बार रायबरेली ज़िले और तीन बार पडरौना से विधानसभा का चुनाव जीते लेकिन इस बार उन्होंने पार्टी बदलने के साथ-साथ अपनी सीट भी बदल ली है और कुशीनगर ज़िले की फ़ाज़िलनगर सीट स्वामी प्रसाद मौर्य का नया पता बन गई है.
चूंकि स्वामी प्रसाद मौर्य ने साल 2017 में बीजेपी की ओर से पडरौना सीट से चुनाव जीता था इसलिए बीजेपी ने इस सीट से इस बार पूर्व केंद्रीय मंत्री और पडरौना से आने वाले नेता आरपीएन सिंह पर दांव लगाया.

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आरपीएन सिंह कांग्रेस से बीजेपी में आए हैं. यूपीए सरकार में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री रहे और पडरौना से तीन बार सांसद रहे आरपीएन सिंह की गिनती पूर्वांचल के बड़े नेताओं में होती है. वो सैंथवार समाज से आते हैं. एक अनुमान के आधार पर पडरौना में 52 हज़ार सैंथवार वोट जो इस सीट पर जीत की लिहाज से निर्णायक भूमिका में रहते हैं.
स्वामी प्रसाद मौर्य जिनका इस बार भी पडरौना से चुनाव लड़ना लगभग तय माना जा रहा था, उन्होंने इस बार पडरौना की जगह फ़ाज़िलनगर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला लिया.
राजनीति के जानकार मानते हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्य अपने लिए सुरक्षित सीट खोज रहे थे और इसलिए उन्होंने पडरौना की जगह फ़ाज़िलनगर सीट चुनी.
पिछड़ी जाति से आने वाले लखनू कहते हैं, "सरकार ने कुछ दिया नहीं है, हमको तो घर नहीं मिला, ये सही बात है कि सरकार ने बहुत कुछ किया है लेकिन वो ग़रीबों के लिए नहीं अमीरों के लिए किया है. नया आदमी अगर आया है तो उसको आज़मा कर देखेंगे पहले, तभी तो कुछ कहेंगे. बुरा क्या होगा हमारे पास पहले से बस मड़ई (कच्चा घर) है इससे ख़राब क्या हो जाएगा. क्या पता नया नेता कुछ कर दे."

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फ़ाज़िलनगर के बाज़ार में गंगा प्रसाद टायर की एक दुकान पर काम करते हैं. राजनीति और चुनाव पर सवाल पूछने भर से वो हंसते हुए कहते हैं, "आप आज यहां आई हैं और ये पूछ रही हैं, हमको नहीं याद मैडम जी कि फ़ाज़िलनगर को लेकर कभी इतनी ख़बरें भी आई हैं. अगर हमको ऐसा नेता मिले जो सरकार में मंत्री बन सकता है तो हमें तो उसे मौका देना चाहिए न? जबसे आए हैं फ़ाज़िलनगर मीडिया में आ गया है. जब हमको मंत्री मिल सकता है तो हम क्यों विधायक वाले नेता को वोट दें?"
गंगा प्रसाद ख़ुद कुशवाहा समाज से आते हैं जो एक पिछड़ी जाति है, लेकिन वह साफ़ कहते हैं कि वो जाति के आधार पर वोट नहीं देंगे बल्कि कौन नेता उनके इलाके के लिए बेहतर होगा, इस आधार पर मतदान करेंगे.
ये बात काफ़ी हद तक सही है कि इस बार के चुनाव में प्रदेश की हाई-प्रोफ़ाइल सीट में फ़ाज़िलनगर का नाम शामिल हो चुका है. पूर्वांचल में लोग गोरखपुर, बनारस, अयोध्या के साथ-साथ फ़ाज़िलनगर पर बात कर रहे हैं.

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स्वामी प्रसाद मौर्य ने फ़ाज़िलनगर क्यों चुना?
लेकिन फ़ाज़िलनगर को स्वामीप्रसाद मौर्य ने क्यों चुना? ये समझने के लिए पहले इस विधानसभा क्षेत्र का जातीय समीकरण समझिए.
एक अनुमान के अनुसार फ़ाज़िलनगर विधानसभा क्षेत्र में क़रीब 90 हज़ार मुस्लिम मतदाता, 55 हज़ार मौर्य-कुशवाहा मतदाता, 50 हज़ार यादव, 30 हज़ार ब्राह्मण, 40 हज़ार कुर्मी-सैंथवार, 30 हज़ार वैश्य और लगभग 80 हज़ार दलित वोटर्स हैं.
गोरखपुर की राजनीति को क़रीब से समझने वाले पत्रकार मनोज सिंह कहते हैं, "मुझे लगता है कि पूर्वांचल में कई इलाकों में स्वामी प्रसाद मौर्य अपने समाज को सपा में जोड़ पा रहे हैं. ये कहना कि वो आरपीएन सिंह के आने से डर गए और सीट बदल ली, तो ये पूरा सच तो नहीं हो सकता. एक बार स्वामी प्रसाद मौर्य आरपीएन सिंह से हारे ज़रूर हैं लेकिन फिर उपचुनाव में आरपीएन सिंह की मां को मौर्य ने हराया भी है."
"ये लड़ाई कमज़ोर और बलवान की नहीं बल्कि टक्कर की ही होती अगर होती तो. स्वामी प्रसाद मौर्य का सीट बदलने का अहम कारण ये था कि फ़ाज़िलनगर उनके लिए ज़्यादा सुरक्षित है. इस सीट पर उनकी बिरादरी के ज़्यादा लोग हैं, वहां यादव और मुसलमानों की संख्या भी ज़्यादा है जो उनके पक्ष में जाएगा और वो जीत का अंतर बढ़ा पाएंगे."

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मनोज कहते हैं कि, "कोई भी बड़ा नेता खुद के लिए सुरक्षित सीट चुनता है, योगी आदित्यनाथ ने भी इसीलिए गोरखपुर चुना क्योंकि ये सबसे सुरक्षित सीट है, ठीक वही काम स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी किया है. क्योंकि बड़े नेताओं को कई जगह प्रचार करना होता है ऐसे में वो ख़ुद के लिए सुरक्षित सीट ही चाहते हैं."
फ़ाज़िलनगर में मौर्य के ख़िलाफ़ बीजेपी ने इस बार अपने मौजूदा विधायक गंगा सिंह कुशवाहा के बेटे सुरेंद्र कुशवाहा को मौका दिया है. कांग्रेस से मनोज कुमार सिंह और बहुजन समाज पार्टी ने हाल ही में समाजवादी पार्टी छोड़कर आए इलियास अंसारी को उम्मीदवार बनाया है.
फ़ाज़िलनगर के सोहंग गांव में 70 साल के रामकिशन शर्मा छोटी जोत के किसान हैं और स्वामी प्रसाद मौर्य के बारे में बस यही जानते हैं कि वो पडरौना के नेता थे और अब उनके यहां आए हैं. मौर्य के बारे में वो कहते हैं, "ज़्यादा तो नहीं जानते हम लेकिन अपनी जनता छोड़ कर यहां आ गए हैं, लोग तो बात कर ही रहे हैं उनके बारे में."
रामकिशन शर्मा कहते हैं कि उनके यहां बस एक चीनी मिल थी जो 1997 से बंद पड़ी है. वे कहते हैं, "हमारे गन्ने का भुगतान 1997 से बाकी है. पानी के बिना फ़सलें सूख रही हैं लेकिन कोई नेता ये नहीं कह रहा कि हम आकर चीनी मिल खुलवाएंगे. हमारे लिए तो कोई बात ही नहीं कर रहा है लेकिन अब वोट देना है तो कुछ सोच कर बटन दबा देंगे."

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मुस्लिम वोट को एक करने की चुनौती
यहां से समाजवादी पार्टी के विश्वनाथ सिंह इससे पहले तक विधायक हुआ करते थे. विश्वनाथ भी पिछड़ी जाति से ही आते हैं. अब वो 80 साल के हो चुके हैं. ऐसे में समाजवादी पार्टी ने स्वामी प्रसाद को इस सीट पर अपनी पार्टी का नया चेहरा बना कर पेश किया है.
लेकिन इस सीट पर स्वामी प्रसाद मौर्य के लिए लड़ाई उतनी आसान भी नहीं नज़र नहीं आती. बसपा ने इस सीट से इलियास अंसारी को टिकट दिया है. जानकार मानते हैं कि यहां के मुसलमानों का एक धड़ा उनके पक्ष में है जो समाजवादी पार्टी का मुसलमान वोट बांट सकता है.
मनोज सिंह कहते हैं, "सुरेंद्र सिंह कुशवाहा के साथ कुर्मी-सैंथवार जा सकते हैं जो इस सीट पर बड़ी संख्या में वोट करते हैं. और अगर मुस्लिम यादव वोट स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ पूरी तरह नहीं आए तो उनके लिए मुश्किल पैदा हो सकती है."
"फ़ाज़िलनगर सीट एक बदली हुई स्थिति में है. यहां पर बसपा ने सपा के पूर्व ज़िला अध्यक्ष इलियास अंसारी को मैदान में उतारा है, देखा जा रहा है कि उनके पक्ष में काफ़ी बड़ी संख्या में लोग हैं. ये लड़ाई अब तक दो दलों की थी तो बीजेपी और सपा लेकिन इलियास अंसारी के आने से ये मामला पूरी टक्कर का होता जा रहा है."
फ़ाज़िलनगर के एक युवा वोटर अरविंद कुशवाहा 27 साल के हैं और बाज़ार में दुकान चलाते हैं. वह कहते हैं, "हमको बीजेपी से उम्मीद है, देश को एक करके रखती है, महंगाई बढ़ी है ठीक है लेकिन इसके अलावा बहुत कुछ कर दिया गया है. अगर स्वामी प्रसाद जी को लगता है कि बीजेपी हमारे बारे में नहीं सोच रही है तो उनका भी उम्मीदवार तो पिछड़ा है, साफ़ छवि का है. नेता लोग झूठ बोलता है हमसे."

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'मंदिर नहीं यूनिवर्सिटी चाहिए'
बेइली गांव में सुभाष चौरसिया गांव के पढ़े लिखे लोगों में से एक हैं, वह कहते हैं, "एक स्वामी प्रसाद मौर्य ने ही पार्टी नहीं छोड़ी है, बहुत से नेता करते हैं. पडरौना में आरपीएन सिंह भी कांग्रेस से बीजेपी में आए और टिकट पा गए. अवसरवाद की राजनीति में कौन ऐसा नहीं कर रहा है. शहर का विकास तो हो रहा है लेकिन गांव का विकास नगण्य है. गांव में भी तो चौबीसों घंटे बिजली मिले."
"गिन कर 10 घंटा बिजली रहती है, हमको ज़रूरत भर बिजली नहीं मिल रही है. गांव की जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य चाहिए. आप जा कर स्कूल देखिए, चटाई पर बच्चे बैठ रहे हैं, स्कूल में दरवाज़ा नहीं है. हमको मंदिर मस्जिद नहीं चाहिए हमको यूनिवर्सिटी चाहिए, वहां सबके बच्चे आते और पढ़ते हैं, लेकिन योगी सरकार मंदिर-मस्जिद में उलझा दे रही है. लोग भी ये नहीं समझ पा रहे हैं कि रोजगार से पेट भरेगा, हमारा भला मंदिर नहीं मेडिकल साइंस से होगा.''

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हाल ही में एक रैली अपनी जीत का दावा करते हुए स्वामी प्रसाद ने कहा कि वह 300 से ज़्यादा सीटें जीतने जा रहे हैं. लेकिन फ़ाज़िलनगर में लोगों से बात करके ये नहीं लगता कि यहां जीत का रास्ता इतना साफ़ और आसान है.
बेइली गांव से जब हम वापसी कर रहे थे तो हमारी मुलाक़ात लीलादेवी से हुई. फूलकुमारी बताती हैं, "राशन तो मिल रहा है कोरोना के बाद से, लोग कहते हैं योगी जी दे रहे हैं, लेकिन मेरा बेटा रोज़ साइकिल के प्रचार में जाता है. जिसको परिवार वाले कहेंगे हम उसे दे देंगे वोट. हम लोगों को पता नहीं रहता, औरत कहां ये तय करती हैं, मर्दों से बात करो तो रिपोर्ट के लिए जानकारी मिल जाएगी."
बस कुछ यही फ़ाज़िलनगर की तस्वीर है जहां अभी तक लोगों की राजनीतिक पसंद बेहद बंटी हुई नज़र आ रही है और लीलादेवी जैसी महिलाएं जिन्हें अब तक ये यक़ीन दिलाया गया है कि वो राजनीति में सही-ग़लत महिलाओं के लिए तय करना मुश्किल होता है.
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