उत्तर प्रदेश चुनाव: कहानी त्रिभुवन नारायण सिंह की जो मुख्यमंत्री रहते हुए हार गए थे उप चुनाव

त्रिभुवन नारायण सिंह

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    • Author, रेहान फ़ज़ल
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

आमतौर से भारतीय राजनीति में ये मान कर चला जाता है कि उपचुनाव का परिणाम सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में जाएगा. ख़ासतौर से जब मुख्यमंत्री खुद उपचुनाव लड़ रहा हो, तो इस चुनाव परिणाम के बारे में बहुत कम लोगों को संदेह रह जाता है. लेकिन 1971 में गोरखपुर के मानीराम विधानसभा उपचुनाव में ठीक इसका उल्टा हुआ, जिसने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल कर रख दी.

यूँ तो त्रिभुवन नारायण सिंह वाराणसी के रहने वाले थे, उन्होंने पहली बार 1952 में चंदौली से लोकसभा का चुनाव लड़ा था. 1957 के चुनाव में उन्होंने उसी सीट से दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को हराया था. 60 के दशक में वो केंद्र सरकार में उद्योग और फिर लौह और इस्पात मंत्री रहे.

उत्तर प्रदेश में 1969 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन एक वर्ष के अंदर ही उन्हें भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह के लिए अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी थी. चरण सिंह भी मात्र सात महीनों तक ही मुख्यमंत्री रह पाए थे. बहुमत खो देने के बाद उन्होंने विधानसभा भंग कर देने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन राज्यपाल बी गोपाला रेड्डी ने उनकी सिफ़ारिश नहीं मानी और उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए कहा.

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इमेज कैप्शन, अपनी पत्नी के साथ त्रिभुवन नारायण सिंह

17 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद त्रिभुवन नारायण सिंह को संयुक्त विधायक दल के नेता के तौर पर 18 अक्टूबर, 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई थी. उन्हें भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस (ओ) का समर्थन प्राप्त था. उस समय सदन में उनके समर्थकों की संख्या 257 थी.

त्रिभुवन नारायण सिंह को चौधरी चरण सिंह का समर्थन प्राप्त था. उस समय त्रिभुवन नारायण सिंह राज्य सभा के सांसद थे और उत्तर प्रदेश विधानसभा के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे.

दिलचस्प बात ये थी कि टीएन सिंह हालांकि चरण सिंह के आदमी नहीं थे, लेकिन वो अकेले शख़्स थे जिन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने पर चरण सिंह को कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल त्रिभुवन नारायण सिंह के मुख्यमंत्री बनने की कहानी ये थी कि वो किसी के भी आदमी नहीं थे.

पॉल ब्रास अपनी किताब 'एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ़: चरण सिंह एंड कांग्रेस पॉलिटिक्स' में एक दिलचस्प क़िस्सा लिखते हैं, ''1971 के लोकसभा चुनाव से पहले इंदिरा गांधी ने भारतीय क्रांति दल के कांग्रेस में विलय का प्रस्ताव रखा था.

वो बीकेडी को लोकसभा में 30 सीटें और चरण सिंह को 1974 तक मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार थीं, लेकिन चरण सिंह ने इस प्रस्ताव को इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया था कि वो टीएन सिंह के समर्थन का वादा कर चुके हैं और अब अपने वादे से मुकर नहीं सकते.

जब मैंने उप चुनाव में टीएन सिंह की हार के बाद चरण सिंह से पूछा कि उन्होंने इंदिरा गांधी की बात उस समय क्यों नहीं मानी, तो उन्होंने कहा कि ऐसा करना सम्मानजनक नहीं होता.''

त्रिभुवन नारायण सिंह

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महंत अवैद्यनाथ ने मानीराम सीट से इस्तीफ़ा दिया

योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ चूँकि संसद का चुनाव जीत गए थे, इसलिए उन्होंने गोरखपुर में मानीराम की सीट से इस्तीफ़ा दे दिया था. त्रिभुवन नारायण सिंह ने इसी सीट से विधानसभा उपचुनाव लड़ने का फ़ैसला किया. त्रिभुवन नारायण सिंह अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने एक बार भी मानीराम क्षेत्र का दौरा नहीं किया.

बिहार के नेता कर्पूरी ठाकुर को त्रिभुवन नारायण सिंह के चुनाव प्रचार की ज़िम्मेदारी दी गई थी. आमतौर से प्रधानमंत्री उपचुनाव में प्रचार करने नहीं जाता, लेकिन मार्च 1971 में हुए विधानसभा उपचुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ख़ुद कांग्रेस के उम्मीदवार राम कृष्ण द्विवेदी के समर्थन में प्रचार करने मानीराम गई थीं.

इसकी वज़ह ये थी कि कांग्रेस का विभाजन हो चुका था और त्रिभुवन नारायण सिंह, मोरारजी देसाई और चंद्रभानु गुप्त के समर्थक थे. इसलिए इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि टीएन सिंह विधानसभा के सदस्य बनें. दरअसल शुरू में त्रिभुवन नारायण सिंह की जीत के ही क़यास लगाए जा रहे थे, लेकिन तभी इंदिरा गांधी के चुनाव सभा में कुछ लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया जिसकी वज़ह से चुनावी फ़िज़ा पूरी तरह से टीएन सिंह के ख़िलाफ़ हो गई.

अमर उजाला अख़बार में संवाददाता रहे राम कृष्ण द्विवेदी ने इंदिरा गांधी के प्रचार की बदौलत मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह को क़रीब 15,000 वोटों से पराजित किया था. भारत के इतिहास में ये पहला मौका था जब कोई मुख्यमत्री इस तरह उपचुनाव में पराजित हुआ था. चुनाव परिणाम तब आया जब सदन में राज्यपाल का अभिभाषण चल रहा था. टीएन सिंह ने भाषण के बीचोंबीच अपने इस्तीफ़े की घोषणा करके सबको चौंका दिया.

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इमेज कैप्शन, लाल बहादुर शास्त्री की तरह त्रिभुवन नारायण सिंह भी वाराणसी के रहने वाले थे

मानीराम के नतीज़े ने इंदिरा लहर की नींव रख दी

1969 में महंत अवैद्यनाथ ने इसी सीट पर राम कृष्ण द्विवेद्वी को क़रीब 3,000 मतों से हराया था. गोरखपुर में मानीराम विधानसभा क्षेत्र अब अस्तित्व में नहीं है. परिसीमन के बाद अब इसका क्षेत्र गोरखपुर सदर और पिपराइच विधानसभा का हिस्सा हो गया है.

बहरहाल, इस चुनाव परिणाम ने इंदिरा गांधी के पक्ष में चुनावी हवा बनाने में अहम भूमिका निभाई. मानीराम उप चुनाव के कुछ सप्ताह बाद ही लोकसभा के चुनाव हुए जिसमें इंदिरा गांधी ने भारी जीत हासिल की. इंदिरा गांधी ने एक तरफ़ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, दूसरी तरफ़ राजाओं के 'प्रिवी पर्स' बंद करने का एलान किया. उनके 'ग़रीबी हटाओ' के नारे को इस चुनाव नतीजे से बहुत बल मिला और पूरे देश में इंदिरा लहर का असर साफ़-साफ़ देखा गया.

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टीएन सिंह बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने

2017 के विधानसभा चुनाव के बाद योगी आदित्यनाथ जब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए और उन्होंने अपनी लोकसभा सीट से इस्तीफ़ा दे दिया, तो वो विधानसभा उपचुनाव लड़ने के बजाए विधान परिषद के रास्ते सदन में घुसे.

उनके ज़हन में कहीं न कहीं त्रिभुवन नारायण सिंह के हश्र की याद रही होगी जिनको उनके आध्यात्मिक गुरु एड़ी चोटी का ज़ोर लगाए जाने के बावजूद चुनाव नहीं जितवा पाए थे. इसके बाद त्रिभुवन नारायण सिंह ने राज्यसभा का रुख़ किया और वो 1970 से 1976 तक राज्यसभा के सदस्य रहे. 1977 में जब जनता पार्टी सत्ता में आई तो उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया.

ऑडियो कैप्शन, चौधरी चरण सिंह की 114वीं वर्षगाँठ पर उनके जीवन पर रेहान फ़ज़ल की विवेचना

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