जब आईएनएस विक्रांत को तबाह करने आई पाकिस्तानी पनडुब्बी ग़ाज़ी ख़ुद डूबी

    • Author, रेहान फ़ज़ल
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

8 नवंबर, 1971, पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस ग़ाज़ी के कप्तान ज़फ़र मोहम्मद ख़ाँ ने ड्राई रोड स्थित गोल्फ़ क्लब में गोल्फ़ खेलना शुरू किया ही था कि उनके पास संदेश पहुंचा कि वो तुरंत लियाक़त बैरेक स्थित नौसेना मुख्यालय पहुंचें.

वहाँ नेवेल वेलफ़ेयर और ऑपरेशन प्लान्स के निदेशक कैप्टन भोम्बल ने उन्हें सूचित किया कि नौसेना प्रमुख ने उन्हें भारतीय नौसेना के विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत को तबाह करने की ज़िम्मेदारी उनको दी है. उन्होंने एक लिफ़ाफ़ा उठाया और उसे ज़फ़र को देते हुए कहा कि विक्रांत के बारे में जितनी भी जानकारी हो सकती है, वो इस लिफ़ाफ़े में है.

ज़फ़र से कहा गया कि वो ग़ाज़ी पर तैनात सभी नौसैनिकों की छुट्टियाँ रद्द कर दें और अगले दस दिनों के अंदर उनको दिए गए काम को पूरा करने के लिए कूच करें.

युद्ध के 20 साल बाद प्रकाशित हुई किताब 'द स्टोरी ऑफ़ द पाकिस्तान नेवी' में बताया गया कि 'पाकिस्तानी नौसेना ने 14 से 24 नवंबर के बीच अपनी सभी पनडुब्बियों को अपने पहले से तय गश्ती इलाकों की तरफ़ बढ़ जाने का आदेश दे दिया था. ग़ाज़ी को सबसे दूर बंगाल की खाड़ी में जाने के लिए कहा गया जहां उसको भारतीय विमानवाहक पोत विक्रांत को ढूंढने और बरबाद करने की ज़िम्मेदारी दी गई."

"इस फ़ैसले की रणनीतिक समझदारी पर कभी सवाल नहीं उठाए गए. पाकिस्तान के पास ग़ाज़ी ही अकेली ऐसी पनडुब्बी थी जिसमें इतनी दूर जाकर दुश्मन के नियंत्रण वाले जल क्षेत्र में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता थी. अगर ग़ाज़ी विक्रांत को डुबोने या नुक़सान पहुंचाने में सफल हो गई होती तो उसका भारत की नौसैनिक योजनाओं को बहुत नुक़सान पहुंचता. संभावित सफलता का लालच इतना बड़ा था कि कई आशंकाओं के बावजूद इस मिशन को आगे बढ़ने की मंज़ूरी दी गई थी."

विक्रांत के बॉयलर में ख़राबी

कमांडर ज़फ़र और कैप्टन भोम्बल के बीच हुई इस बातचीत से एक साल पहले विक्रांत के कमांडर कैप्टन अरुण प्रकाश उनके चीफ़ इंजीनयर द्वारा भेजी रिपोर्ट को पढ़ रहे थे. रिपोर्ट में कहा गया था विक्रांत के बॉयलर के वॉटर ड्रम में क्रैक आ गए हैं जिनकी मरम्मत भारत में नहीं कराई जा सकती. 1965 के युद्ध में भी विक्रांत में कुछ यांत्रिक समस्याओं की वजह से उसे युद्ध में भाग लेने लायक नहीं समझा गया था.

इस बार भी बॉयलर में क्रैक की वजह से विक्रांत अधिक से अधिक 12 नॉट्स की गति से ही चल सकता था. किसी भी विमानवाहक पोत के लिए वहां से विमान को हवा में उड़ाने की क्षमता हासिल करने के लिए 20 से 25 नॉट्स की गति ज़रूरी होती है.

विक्रांत का पुराना नाम एचएमएस हरकुलिस था जिसे भारत ने 1957 में ब्रिटेन से ख़रीदा था. इसको 1943 में बनाया गया था लेकिन वो दूसरे विश्व युद्ध में भाग नहीं ले पाया था. विक्रांत उस समय पश्चिमी बेड़े में तैनात था लेकिन उसकी ख़राब हालत को देखते हुए नौसेना मुख्यालय ने तय किया कि उसे पूर्वी बेड़े का हिस्सा बनाने में ही भलाई है.

विक्रांत अचानक बंबई से ग़ायब हुआ

इयान कारडोज़ो अपनी किताब '1971 स्टोरीज़ ऑफ़ ग्रिट एंड ग्लोरी फ़्रॉम इंडो पाक वॉर' में लिखते हैं, "नवंबर, 1971 में बंबई के एक होटल में रह रहे पाकिस्तानी जासूसों ने अपने हैंडलर्स को ख़बर दी कि विक्रांत बंबई में ही खड़ा है. लेकिन 13 नवंबर को उन्हें विक्रांत कहीं नहीं दिखाई दिया. विक्रांत अचानक ग़ायब हो गया. इस बीच पाकिस्तान के साथ सहानुभूति रखने वाले एक पश्चिमी देश के सहायक नेवल अटैशे ने पश्चिमी कमान के फ़्लैग ऑफ़िसर कमांडर इन चीफ़ के एडीसी से ये पूछने की कोशिश की कि विक्रांत इस समय कहाँ है?"

"भारतीय नेवेल इंटेलिजेंस को तुरंत इसकी सूचना दे दी गई. बाद में पाकिस्तानी जासूसों को हवा लग गई कि विक्रांत मद्रास पहुंच चुका है. क्या ये महज़ संयोग था कि उन्हीं दिनों पाकिस्तान का समर्थन करने वाले उसी पश्चिमी देश का एक जहाज़ मद्रास गया और वहां उसमें कुछ ख़राबी आ गई जिसकी वजह से उसने मद्रास बंदरगाह के आसपास कई परीक्षण उड़ानें भरीं? क्या इन उड़ानों का उद्देश्य इस बात की पुष्टि करना था कि विक्रांत मद्रास में है या नहीं?"

भारतीय इंटेलिजेंस ने पाकिस्तान का गुप्त कोड तोड़ा

8 नवंबर, 1971 को ख़ुफ़िया तरीके से वायरलेस संदेश सुनने वाले मेजर धर्म देव दत्त अपने रकाल आरए 150 रेडियो रिसीवर के नॉब्स घुमाकर कराची और ढाका के बीच जाने वाले संदेशों को सुनने की कोशिश कर रहे थे. उस दिन संदेशों की संख्या में अचानक आई बढ़ोत्तरी की वजह से उन्हें ये आभास तो हो गया था कि कुछ बड़ा होने वाला है और ये ज़रूरी था कि भारत को इसकी पूरी जानकारी हो.

धरम को एनडीए के ज़माने से ही उनके साथी 3डी के नाम से पुकारते थे क्योंकि आधिकारिक रिकार्डों में उनका नाम धर्म देव दत्त दर्ज था. उनका टेप रिकॉर्डर आईबीएम के मेनफ़्रेम कम्पयूटर से लिंक था. अचानक 10 नवंबर को वो पाकिस्तानी नौसेना का कोड तोड़ने में सफल हो गए और सारी पहेली एक क्षण में हल हो गई.

उन्होंने पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर जनरल जैकब को फ़ोन कर वो कोड वर्ड बोला जिसका मतलब था कि पाकिस्तानी नेवल कोड को तोड़ लिया गया है. वहीं से पहली बार पता चला कि पाकिस्तानी नौसेना का मुख्य उद्देश्य भारतीय पोत आईएनएस विक्रांत को डुबो देना था. उनका दूसरा उद्देश्य था अपनी डाफ़ने क्लास पनडुब्बियों का इस्तेमाल करते हुए भारत के पश्चिमी बेड़े के पोतों को डुबोना.

भारत आने से पहले ग़ाज़ी ने श्रीलंका में ईंधन भरवाया

गाज़ी पनडुब्बी 14 नवंबर, 1971 को कराची से अपने मिशन के लिए निकली. गाज़ी पहले श्रीलंका गई जहाँ त्रिंकोमाली में 18 नवंबर को उसने ईंधन भरवाया. वो चेन्नई के लिए निकलने को तैयार ही था कि उसे कराची से संदेश मिला कि विक्रांत अब मद्रास में नहीं है.

ज़फ़र ने कराची संदेश भेजा चूंकि विक्रांत ग़ायब हो गया है, उनके लिए अगला आदेश क्या है? कराची ने पाकिस्तान के पूर्वी बेड़े के कमाँडर रियर एडमिरल मोहम्मद शरीफ़ को कोडेड संदेश भेज कर पूछा कि क्या उन्हें विक्रांत के मूवमेंट के बारे में कोई जानकारी है? इन सारे संदेशों को 3डी मॉनिटर कर रहे थे और कोडेड भाषा में नौसेना मुख्यालय को भेज भी रहे थे.

लेकिन पाकिस्तान भी भारतीय संदेशों को मॉनिटर कर रहा था. उसने कमांडर ज़फ़र खां को सूचित किया कि विक्रांत अब विशाखापटनम पहुंच चुका है. पाकिस्तान के नौसेना मुख्यालय और ग़ाज़ी के कैप्टन दोनों को एहसास हो गया कि उनके लिए विक्रांत को तबाह करने का सबसे अच्छा मौका विशाखापट्टनम में ही है. जब 3डी को इसके बारे में पता चला तो वो बहुत परेशान हो गए.

इयान कारडोज़ों लिखते हैं, "उन्होंने सोचा कि अगर पाकिस्तानी नौसेना ने अपने संदेशों के ज़रिए अपने इरादे जगज़ाहिर कर बेवकूफ़ी की है तो भारतीय नौसेना भी उससे पीछे नहीं रही है. उन्होंने सेना सिग्नल इंटेलिजेंस को अपने विचारों से अवगत कराते हुए कहा कि विक्रांत की लोकेशन पाकिस्तानियों को पता चल चुकी है. इससे बचने के लिए भारत को एतिहाती कदम उठाने होंगे."

1 दिसंबर की रात ग़ाज़ी विशाखापट्नम पहुंची

ग़ाज़ी ने 23 नवंबर, 1971 को त्रिंकोमाली से विशाखापट्टनम की तरफ़ बढ़ना शुरू किया. 25 नवंबर को उसने चेन्नई को पार किया और 1 दिसंबर की रात 11 बजकर 45 मिनट पर विशाखापट्टनम बंदरगाह के नेवीगेशनल चैनल में दाख़िल हो गई.

मेजर जनरल फ़ज़ल मुक़ीम ख़ाँ अपनी किताब 'पाकिस्तान्स क्राइसिस इन लीडरशिप' में लिखते हैं कि उनके साथ दिक्कत ये थी कि नेवीगेशनल चैनल की गहराई कम होने की वजह से ग़ाज़ी बंदरगाह से 2.1 नॉटिकल माइल तक ही जा सकती थी, इससे आगे नहीं.

कमांडर ज़फ़र ने तय किया कि वो जहां हैं वहीं रहेंगे और विक्रांत के बाहर आने का इंतज़ार करेंगे. इस बीच ग़ाज़ी के मेडिकल अफ़सर ने चिंता प्रकट की कि ग़ाज़ी से निकल रही फ़्यूम्स ने न सिर्फ़ गाज़ी पर सवार नौसैनिको के स्वास्थ्य के बारे में चिंता बढ़ा दी है बल्कि पनडुब्बी की सुरक्षा के लिए भी ख़तरा बढ़ गया है. उसने सलाह दी कि ग़ाज़ी रात में सतह पर आकर ताज़ी हवा ले और इसी दौरान बैटरियों को भी बदल दिया जाए.

ग़ाज़ी पर सवार नाविकों की तबियत ख़राब हुई

कमांडर ख़ां को भी अंदाज़ा हो गया कि अगर पनडुब्बी का हाइड्रोजन स्तर पहले से तय सुरक्षा मानकों से ऊपर हो गया तो ग़ाज़ी के खुद को नष्ट कर देने का ख़तरा बढ़ जाएगा. लेकिन ज़फ़र ये भी जानते थे कि अगर ग़ाज़ी को सूरज की रोशनी में मरम्मत के लिए ऊपर लाया गया तो उन्हें तुरंत देख लिया जाएगा. ग़ाज़ी एक बड़ी पनडुब्बी थी और दूर से ही देखी जा सकती थी.

साम 5 बजे पनडुब्बी के एक्ज़िक्यूटिव अफ़सर और मेडिकल ऑफ़िसर दोनों ने कैप्टन ज़फ़र को सूचित किया कि पनडुब्बी के अंदर की वायु बुरी तरह से प्रदूषित हो गई है जिसकी वजह से एक नाविक बेहोश भी हो गया है.

उन्होंने सलाह दी कि रात तक इंतज़ार करने का समय नहीं है. ग़ाज़ी को उसी समय ऊपर सतह पर चले जाना चाहिए. इस बीच पनडुब्बी के अंदर की हवा लगातार प्रदूषित होती जा रही थी. कई नाविकों ने खाँसना शुरू कर दिया था और इसका असर उनकी आँखों पर भी पड़ना शुरू हो गया था.

भारतीय पोत ग़ाज़ी की दिशा में आता दिखा

कैप्टन ज़फ़र ने आदेश दिया कि ग़ाज़ी को पेरिस्कोप के स्तर तक ले जाकर पहले बाहर का जाएज़ा लिया जाए. गाज़ी के धीरे धीरे समुद्र की सतह से 27 फ़ीट नीचे तक ले जाया गया. वहाँ से पेरिस्कोप से बाहर के दृश्य का जाएज़ा ले रहे कैप्टन ज़फ़र सन्न रह गए. उन्होंने देखा कि मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ा भारतीय पोत उन्हीं की दिशा में बढ़ता चला आ रहा है.

ज़फ़र ने बिना समय गँवाए ग़ाज़ी को नीचे डाइव करने का आदेश दिया. ज़फ़र के आदेश के 90 सेकंडों के अंदर ग़ाज़ी फिर से समुद्र के तल पर चली गई. एक मिनट के अंदर भारतीय पोत ग़ाज़ी के ऊपर से गुज़र गया. कैप्टन ख़ाँ नीचे ही हालात सामान्य होने का इंतज़ार करते रहे.

इस बीच मेडिकल ऑफ़िसर ने आकर फिर कहा कि हालात बदतर होते जा रहे हैं. पनडुब्बी का सतह पर जाना ज़रूरी होता जा रहा है. तभी तय हुआ कि ग़ाज़ी 3-4 दिसंबर की रात को 12 बजे ऊपर जाएगी और चार घंटे मरम्मत का काम करने के बाद सुबह 4 बजे फिर नीचे आ जाएगी. ज़फ़र ने नौसैनिकों को आदेश दिया कि इस बीच वो अगर चाहें तो अपने परिवार वालों को पत्र लिख सकते हैं जिसे वापस लौटते हुए त्रिंकोमाली से पोस्ट कर दिया जाएगा.

प्रधानमंत्री के राष्ट्र के संदेश के बीच सुना गया बड़ा धमाका

ज़फ़र को इस बात की ख़बर नहीं थी कि 3 दिसंबर की शाम 5 बज कर 45 मिनट पर पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया था.

पाकिस्तान में वाइस एडमिरल मुज़फ़्फ़र हुसैन कराची के अपने दफ़्तर में चहलक़दमी कर रहे थे. उनको ज़फ़र के पास से उस ख़बर का इंतज़ार था कि उन्होंने विक्राँत को नष्ट कर दिया है, लेकिन ग़ाज़ी पूरी तरह से चुप थी.

3-4 दिसंबर की आधी रात के आसपास प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश को संबोधित कर पाकिस्तान के हमले की सूचना दी.

अभी प्रधानमंत्री का भाषण चल ही रहा था कि विशाखापट्टनम बंदरगाह से थोड़ी दूर एक ज़बरदस्त धमाका हुआ. धमाका इतना तेज़ था कि बंदरगाह के सामने बने घरों के शीशे टूट गए.

दूर से लोगों ने देखा कि समुद्र का पानी बहुत ऊँचाई तक उछल कर नीचे गिरा. कुछ लोग समझे कि भूकंप आ गया है और कुछ लोगों ने तो यहाँ तक समझ लिया कि पाकिस्तानी वायुसेना उन पर बमबारी कर रही है.

विस्फोट का समय 12 बजकर 15 मिनट बताया गया. बाद में ग़ाज़ी से मिली घड़ी से पता चला कि उसने इसी समय पर काम करना बंद कर दिया था. 4 दिसंबर की दोपहर कुछ मछुआरे समुद्र से ग़ाज़ी के कुछ अवशेषों को उठा कर लाए.

विक्रांत को गुप्त रूप से अंडमान भेजा गया

इस कहानी का सबसे बड़ा मोड़ ये था कि विक्रांत विशाखापट्टनम में था ही नहीं. ये पता चलते ही पाकिस्तान की पनडुब्बी को विक्रांत की तलाश में अंडमान द्वीप भेज दिया गया था. उसकी जगह पर एक पुराने विध्वंसक आईएनएस राजपूत को लगा कर पाकिस्तानियों को ये आभास दिया गया कि विक्रांत विशाखापट्टनम में खड़ा है.

1971 में पूर्वी कमान के प्रमुख वाइस एडमिरल एन कृष्णन ने अपनी आत्मकथा 'अ सेलर्स स्टोरी' में लिखा है, "राजपूत को विशाखापट्टनम से 160 किलोमीटर दूर ले जाया गया. उससे कहा गया कि वो विक्रांत के कॉल साइन का इस्तेमाल करे और उसी रेडियो फ़्रीक्वेंसियों पर खूब सारी रसद की माँग करे जो कि विक्रांत जैसे विशालकाय जहाज़ के लिए ज़रूरी होती हैं."

"विशाखापट्टनम बाज़ार से बहुत बड़ी मात्रा में राशन, माँस और सब्ज़ियाँ खरीदी गईं ताकि वहाँ मौजूद पाकिस्तानी जासूस ये ख़बर दे सकें कि विक्रांत इस समय विशाखापट्टनम में खड़ा है. भारी वायरलेस ट्रैफ़िक से पाकिस्तानियों को झाँसा दिया गया कि वहाँ एक बहुत बड़ा पोत खड़ा है. जानबूझ कर विक्रांत के सुरक्षा प्रोटोकोल को तोड़ते हुए एक नाविक की तरफ़ से अपनी माँ का स्वास्थ्य पूछने के लिए एक तार करवाया गया. झाँसा देने की इस मुहिम के सफल होने का प्रमाण गाज़ी के अवशेषों में कराची से आए सिग्नल से मिला जिसमें कहा गया था 'इंटेलिजेंस इंडीकेट कैरियर इन पोर्ट' यानि ख़ुफ़िया जानकारी के अनुसार पोत बंदरगाह में ही है."

अधिक हाइड्रोजन से हुआ ग़ाज़ी में विस्फोट?

ग़ाज़ी के डूबने के कारणों के बारे में सिर्फ़ कयास ही लगाए जा सकते हैं. शुरू में भारतीय नौसेना ने इस बात का श्रेय लेने की कोशिश की कि उसके पोत आइएनएस राजपूत ने ग़ाज़ी को डुबोया है. एक आशंका ये प्रकट की गई कि ग़ाज़ी अपनी ही बनाई सुरंग पर गुज़र गई.

तीसरा अनुमान ये लगाया गया कि जिन बारूदी सुरंगों को पनडुब्बी लेकर चल रही थी, उनमें अचानक विस्फोट हुआ और ग़ाज़ी ने जलसमाधि ले ली. चौथी संभावना ये व्यक्त की गई कि पनडुब्बी में ज़रूरत से ज़्यादा हाइड्रोजन गैस जमा हो गई जिसकी वजह से उसमें विस्फोट हुआ.

ग़ाज़ी के अवशेषों की जाँच करने वाले अधिक्तर भारतीय अफ़सरों और ग़ोताख़ोरों का मानना है कि चौथी संभावना में सबसे अधिक दम है. ग़ाज़ी के मलबे की जाँच करने वाले बताते हैं कि ग़ाज़ी का ढांचा बीच से टूटा था न कि उस जगह से जहाँ टॉरपीडो रखे रहते हैं. अगर टॉरपीडो या बारूदी सुरंग में विस्फोट हुआ होता तो पनडुब्बी के आगे वाले हिस्सो को नुक़सान ज़्यादा पहुंचता. इसके अलावा ग़ाज़ी के मेसेज लॉग बुक से जितने भी संदेश भेजे गए थे उनमें अधिक्तर में ज़िक्र था कि पनडुब्बी के अंदर ज़रूरत से ज़्यादा हाइड्रोजन गैस बन रही है.

ग़ाज़ी के डूबने पर सवाल

ग़ाज़ी के डूबने की पहली ख़बर भारतीय नौसेना मुख्यालय की तरफ़ से 9 दिसंबर को दी गई जबकि ग़ाज़ी 3-4 दिसंबर को ही डुबाई जा चुकी थी.

वाइस एडमिरल जीएम हीरानंदानी अपनी किताब 'ट्राँज़िशन टू ट्रायंफ़ इंडियन नेवी 1965-1975' में लिखते हैं, "भारत द्वारा ग़ाज़ी को डुबोने और उसकी घोषणा किए जाने के बीच 6 दिन के अंतराल ने कई सवालों को जन्म दिया. इससे इन कयासों को भी बल मिला कि संभवत: पनडुब्बी को युद्ध की घोषणा से भी पहले डुबो दिया गया था. 26 नवंबर के बाद ग़ाज़ी के कराची संपर्क न कर पाने से भी इन संभावनाओं को बल मिला. कुछ हल्कों में ये भी कहा गया कि भारत ने 9 दिसंबर को उसके पोत खुखरी को डुबोए जाने की ख़बर से ध्यान हटाने के लिए ग़ाज़ी के डूबने का ऐलान कर दिया."

लेकिन भारत की तरफ़ से इसका ये स्पष्टीकरण दिया गया कि भारत ये ऐलान करने से पहले सभी सबूतों की पुष्टि कर लेना चाहता था. समुद्र के अंदर ग़ाज़ी की जाँच करने में बहुत दिक्कत आ रही थी क्योंकि समुद्र की लहरें बहुत तेज़ थीं.

5 दिसंबर को जाकर भारतीय गोताखोरों को पुख्ता सबूत मिले कि डुबोई गई पनडुब्बी वास्तव में ग़ीज़ी ही है. तीसरे दिन गोताखोर पनडुब्बी का कोनिंग टावर हैच खोलने में सफल हो पाए और उसी दिन उन्हें पनडुब्बी से पहला शव भी मिला.

भारत ने अमेरिकियों और पाकिस्तानियों का प्रस्ताव ठुकराया

ग़ाज़ी ने अभी तक विशाखापट्टनम बंदरगाह के बाहरी इलाके में जल समाधि ली हुई है. अमेरिकियों ने ग़ाज़ी को अपने ख़र्चे पर इस आधार पर समुद्र से बाहर निकालने का प्रस्ताव भारत सरकार के सामने रखा था कि ये पनडुब्बी मूल रूप से अमेरिका की है जिसे उसने पाकिस्तान को लीज़ पर दिया था.

लेकिन भारत ने ये कहते हुए इस पेशकश को अस्वीकार कर दिया था कि ग़ाज़ी ग़ैरकानूनी तरीके से भारतीय जलक्षेत्र में दाखिल हुई थी. उसे पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमले के बाद नष्ट किया गया था.

पाकिस्तानियों ने भी अपने ख़र्चे पर ग़ाज़ी को बाहर निकालने की पेशकश की थी, लेकिन उन्हें भी वही जवाब दिया गया जो अमेरिकियों को दिया गया था.

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