जब एक बंगाली पायलट ने किया पाकिस्तानी वायुसेना का विमान हाइजैक- विवेचना

    • Author, रेहान फ़ज़ल
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

बात 20 अगस्त, 1971 की है.

कराची के मौरीपुर हवाई ठिकाने पर दोपहर से कुछ पहले युवा पाकिस्तानी पायलट ऑफ़िसर रशीद मिनहास अपनी दूसरी उड़ान पर अपने टी 33 ट्रेनर को टेक ऑफ़ के लिए ले जा रहे थे.

जब वह टेक ऑफ़ प्वाइंट पर पहुँचे तो वहाँ उन्हें असिस्टेंट फ़्लाइट सेफ़्टी ऑफ़िसर फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट मतिउर रहमान ने हाथ दे कर रोक लिया. नया-नया विमान चलाना सीख रहे पायलटों की इस तरह की जाँच अक्सर की जाती थी.

मिनहास को भी लगा कि शायद उनको भी जाँच के लिए रोका गया है. लेकिन मतिउर रहमान के इरादे दूसरे थे.

मतिउर बंगाली अफ़सर थे और वह ढाका में पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई से ख़ुश नहीं थे. उन्होंने अपने मित्र सदरुद्दीन के साथ मिलकर अपने विमान सहित भारत निकल भागने की योजना बनाई थी.

पाकिस्तानी प्रशासन को इसकी भनक लग गई थी. जब भारत के साथ युद्ध के बादल मंडराने लगे तो उन्होंने दूसरे बंगाली अफ़सरों के साथ मती को भी ग्राउंड ड्यूटी देते हुए उन्हें असिस्टेंट फ़्लाइट सेफ़्टी ऑफ़िसर बना दिया था.

पाकिस्तान के वायुसेना इतिहासकार कैसर तुफ़ैल अपने लेख 'ब्लूबर्ड 166 इज़ हाइजैक्ड' में लिखते हैं, 'कराची में तैनात बंगाली अफ़सरों को ये आभास हो गया कि पाकिस्तानी इंटेलिजेंस उन पर नज़र रख रही है. उन्होंने तय किया कि वो बेस के अफ़सरों के साथ दोस्ताना संबंध जारी रखेंगे और आपस में कभी एकसाथ नहीं मिलेंगे. लेकिन अंदर ही अंदर सहमति बनी कि वो पाकिस्तानी वायुसेना के विमान को हाइजैक कर भारत ले जाएंगे.

शुरू में एक या दो एफ़ 86 सेबर विमान हाइजैक करने की योजना बनी लेकिन फिर लगा कि बेस के टारमैक पर बंगाली अफ़सर की उपस्थिति मात्र उन्हें शक के घेरे में ला देगी. दूसरे जेट विमान को ज़मीनी कर्मचारियों की मदद के बिना हाइजैक करना असंभव के बराबर था. तब ये तय पाया गया कि सोलो मिशन पर जाने वाले टी- 33 विमान को हाइजैक करना कहीं ज़्यादा आसान होगा.'

मतिउर रहमान ने हाथ दे कर रशीद मिन्हास का विमान रोका

उस दिन रशीद मिन्हास ने अपने स्कवॉर्डन क्रू रूम में अपना नाश्ता गर्म करवाया. उन्हें उड़ान पर नहीं जाना था क्योंकि अकेले उड़ने के लिए कराची के आसपास मौसम बहुत ख़राब था. लेकिन अचानक मौसम में सुधार हो गया और मिन्हास से कहा गया कि वो उड़ने की तैयारी करें.

कैसर तुफ़ैल लिखते हैं, 'रशीद मिन्हास अपना नाश्ता बीच में ही छोड़कर फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट हसन अख़्तर से उड़ान की ब्रीफ़ लेने गए. उन्होंने उड़ान के कपड़े पहने. जल्दी से दो गुलाब जामुन खाई और कोको कोला के दो तीन घूँट लिए. ठीक साढ़े 11 बजे टी -33 विमान ने कॉल साइन ब्लूबर्ड 166 के साथ मुख्य टारमैक का रुख़ किया. इस बीच मतिउर रहमान अपनी निजी ओपेल केडिट कार से मुख्य विमान पट्टी के उत्तरपूर्व वाले ट्रैक पर पहुँच गए. जब मति ने विमान को रोकने का इशारा किया तो मिन्हास समझे की शायद मति कोई ज़रूरी संदेश देना चाहते हैं.'

एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल को विमान हाइजैकिंग की सूचना

रशीद मिन्हास को रोकने का इशारा करने के बाद जैसे ही विमान रुका मति खुली हुई कनोपी के ज़रिए विमान के पिछले कॉकपिट में चढ़ गए. उन्होंने दिखावा किया कि वो कॉकपिट की जाँच कर रहे हैं. इससे पहले कि मिन्हास कुछ समझ पाते विमान रनवे पर दौड़ने लगा.

कैसर तुफ़ैल लिखते हैं, 'मिन्हास सिर्फ़ इतना कर पाए कि उन्होंने 11 बज कर 28 मिनट पर एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल को सूचित कर दिया कि उनके विमान को हाइजैक कर लिया गया है. मिन्हास को अपने निर्देशों का पालन कराने के लिए रहमान ने निश्चित तौर पर पिस्तौल का सहारा लिया होगा, वर्ना मिन्हास ख़तरा देखते ही विमान का इंजिन ऑफ़ कर सकते थे.'

उस समय एटीसी में तैनात एक बंगाली अफ़सर कैप्टेन फ़रीदुज़माँ ने जो बाद में सऊदी एयरलाइंस में काम करने लगे बंग्लादेशी दैनिक 'द डेली स्टार' के 6 जुलाई 2006 के अंक में लिखा, "मैं देख सकता था कि दोनों पायलटों में विमान के कंट्रोल के लिए संघर्ष हो रहा है. "

"मुझे उसी समय लग गया था कि मतिउर रहमान भारत डिफ़ेक्ट करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने न तो पैराशूट पहन रखा था और न ही हेलमेट.' जैसे ही विमान आँखों से ओझल हुआ एटीसी में तैनात दूसरे अफ़सरों ने विमान के गायब होने का अलर्ट जारी कर दिया. आननफानन में दो सेबर जेट्स को टी - 33 को इंटरसेप्ट करने के लिए भेजा गया."

रशीद मिन्हास हुए 'कॉकपिट में फ़्रीज़'

पाकिस्तान के एक और मशहूर पायलट और सितार ए जुर्रत से सम्मानित सज्जाद हैदर ने अपनी आत्मकथा 'फ़्लाइट ऑफ़ द फ़ॉल्कन' में मतिउर रहमान का ज़िक्र करते हुए लिखा है, 'मति ने 1965-66 के दौरान मेरे अंडर काम किया था. मेरा मानना है कि रशीद ने हाइजैक रोकने का गंभीर प्रयास नहीं किया. वो चाहता तो मेन फ़ुएल स्विच को शट ऑफ़ कर सकता था जो कि फ़्रंट कॉकपिट में होता है.

एयर इन्वेस्टिगेशन बोर्ड के प्रमुख ग्रुप कैप्टेन ज़हीर हुसैन का भी मानना था कि युवा और अनुभवहीन मिन्हास कॉकपिट में फ़्रीज़ हो गए. मति ने बहुत नीचे उड़ते हुए बाईं तरफ़ अपने विमान को मोड़ा. एटीसी ऑफ़िसर असिम रशीद को तब समझ में आया कि दाल में कुछ काला है जब विमान बहुत नीचे उड़ने लगा. बेस कमाँडर बिल लतीफ़ को फ़ौरन इसकी सूचना दी गई.

उन्होंने उस समय लैंड किए दो एफ़ - 86 सेबर विमानों को उन्हें रोकने के लिए भेजा. इन विमानों को विंग कमाँडर शेख़ सलीम और उनके विंगमैन फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट कामरान कुरैशी चला रहे थे. लेकिन रडार से उस विमान का कोई सुराग नहीं मिल रहा था क्योंकि टी- 33 पेड़ की ऊँचाई पर उड़ रहा था.

वैसे भी उसे उड़े आठ मिनट बीत चुके थे और अगर ये अपनी पूरी गति से उसका पीछा करते तो सीमा से पहले उस तक नहीं पहुंच सकते थे. कुछ और समय तब बरबाद हुआ जब रडार की ग़लती से एफ़ 86 विमानों का जोड़ा नवाबशाह से रुटीन मिशन से लौट रहे बी -57 विमान के पीछे लग गया.

पुलिस स्टेशन से मिली विमान गिरने की ख़बर

थोड़ी देर बाद एफ़ - 86 विमान के एक और जोड़े को टी -33 की पीछा करने के लिए भेजा गया. इनको फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट अब्दुल वहाब और फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट ख़ालिद महमूद उड़ा रहे थे. बाद में अब्दुल वहाब ने याद किया, 'हमें पता था कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है. जब हम हवा में गए तो वहुत कनफ़्यूजन था. फिर भी हमने गार्ड चैनल पर एक नकली संदेश भिजवाया कि एफ़ 86 विमान टी - 33 के ठीक पीछे है और अगर ये वापस नहीं लौटा तो उसे गिरा दिया जाएगा. हमने रेडियो कॉल के ज़रिए मिन्हास को निर्देश देने शुरू कर दिए कि वो विमान से इजेक्ट करें. लेकिन विमान से हमें कोई जवाब नहीं मिला.'

बहुत देर तक हाइजैक किए विमान का पता नहीं चल सका. स्थिति तब साफ़ हुई जब दोपहर बाद शाहबंदर पुलिस स्टेशन से एक फ़ोन आया कि एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया है और उसमें सवार दोनों लोग मारे गए हैं. तुरंत एक हेलिकॉप्टर को एक राहत मिशन पर भेजा गया. उसे मसरूर से 64 नौटिकल माइल दूर एक तालाब के बग़ल में धँसे टी - 33 की पूँछ दिखाई दे गई जिसपर उसका नंबर 56- 1622 लिखा हुआ था. विमान दुर्घटना का संभावित समय 11 बज कर 43 मिनट बताया गया.

नियंत्रण लेने की कोशिश में संघर्ष

रहमान की विमान भारत ले जाने की जीवट भरी योजना सफल नहीं हो सकी. भारतीय सीमा से 32 मील पहले थट्टा नामक स्थान पर टी- 33 विमान ज़मीन पर आ गिरा. ज़मीन पर मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि विमान डाँवाडोल तरीके से उड़ रहा है जिसका मतलब था कि विमान के अंदर उसके नियंत्रण को लेकर संघर्ष हो रहा था. बाद में इस प्रकरण की जाँच के लिए बनाई गए एयर इनवेस्टिगेशन बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 'फ़्लाइट के दौरान कनोपी को लॉक नहीं किया गया था.

वो बाहरी हवा के दबाव में कुछ देर तो अपनी जगह पर रही लेकिन जब विमान ने गलत ढ़ंग से उड़ना शुरू किया तो वो उड़ गई और उसने विमान के पिछले हिस्से को हिट किया जिससे वो विमान नाक के बल ज़मीन पर गिरा. शायद इसकी वजह से ही मतिउर रहमान कॉकपिट से बाहर उड़ गए क्योंकि उन्हें सेफ़्टी बेल्ट बाँधने का समय ही नहीं मिल पाया था.' इस घटना की जाँच करने वाली टीम को मतिउर रहमान के शव के पास से एक खिलौना पिस्टल मिली. ये शव दुर्घटनास्थल से कुछ दूरी पर पाया गया. रशीद मिन्हास का शव दुर्घटनाग्रस्त विमान में ही मिला.

रशीद मिन्हास को पाकिस्तान का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार

रशीद मिन्हास को पाकिस्तान में हीरो घोषित किया गया और उन्हें सर्वोच्च वीरता सम्मान निशान ए हैदर से सम्मानित किया गया. वो ये सम्मान पाने वाले पाकिस्तान के सबसे युवा वायुसेना पायलट बने.

उस समय उनकी उम्र मात्र 20 साल थी. उनके सम्मान पत्र में लिखा गया, 'रशीद ने जानबूझ कर विमान हाइजैक होने से बचाने के लिए उसे ज़मीन पर गिरा दिया.'

रशीद को उसी स्थान पर दफ़नाया गया जहाँ उनकी मौत हुई थी. शुरु में मिन्हास को सितार ए जुर्रत देने की सिफ़ारिश की गई थी. लेकिन जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या ख़ाँ को पूरी कहानी बताई गई तो उन्होंने कहा ये लड़का निशान ए हैदर से कम का हक़दार नहीं है. उसी दिन इसका ऐलान कर दिया गया.

पाकिस्तान में मतिउर रहमान बने खलनायक जबकि बाँगलादेश में हीरो

मतिउर रहमान को देशद्रोही और खलनायक करार दिया गया. मति का अंतिम संस्कार मौरीपुर एयरबेस पर किया गया, जहाँ 35 सालों तक उनका शव गुमनामी के गर्त में पड़ा रहा. यही नहीं मशरूर एयरबेस के प्रवेश द्वार पर उनकी तस्वीर लगा कर उसके नीचे लिखा गया 'ग़द्दार.' उनकी पत्नी मिली रहमान और उनकी दो छोटी बेटियों को हिरासत में ले लिया गया वहीं दूसरी ओर मतिउर रहमान को उनकी इस बहादुरी के लिए बांग्लादेश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार बीर श्रेष्ठो दिया गया.

हाइजैकिंग की इस घटना ने पाकिस्तानी सेना में बंगाली अफ़सरों की मुश्किलें और बढ़ा दीं. पीवी एस जगनमोहन और समीर चोपड़ा ने अपनी किताब 'ईगल्स ओवर बाँग्लादेश' में लिखा, 'हालात यहाँ तक पहुंचे कि 1965 की लड़ाई और 1967 की अरब इसराइल लड़ाई के हीरो सैफ़ उल आज़म तक को चार दूसरे बंगाली अफ़सरों ग्रुप कैप्टेन एम एस इस्लाम, विंग कमाँडर कबार, स्कवार्डन लीडर जी एम चौधरी और फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट मीज़ान के साथ हिरासत में ले लिया गया.

उनसे भारत या पूर्वी पाकिस्तान निकल भागने की योजना के बारे में सख़्ती से पूछताछ की गई. 21 दिनों तक जेल में रहने के बाद पाकिस्तानी वायुसेनाध्यक्ष एयरमार्शल रहीम के हस्तक्षेप के बाद सैफ़ उल आज़म को रिहा किया गया. रहीम ख़ाँ ने आज़म के साथ किए गए व्यवहार पर अपनी सहानुभूति व्यक्त की लेकिन साथ उन्होंने उन्हें आगाह किया कि वो भविष्य में इस तरह कदम उठा कर सेना में रहीम ख़ाँ की स्थिति ख़राब करने की बेवकूफ़ी न करें.'

बंगाली अफ़सरों को विदेश में बसने का प्रस्ताव

रहीम ख़ाँ ने उसके बाद सैफ़ उल आज़म के सामने प्रस्ताव रखा कि वो पाकिस्तानी वायुसेना से समय से पहले अवकाश ग्रहण कर किसी तीसरे देश में बस सकते हैं लेकिन आज़म ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. इसी तरह का प्रस्ताव दूसरे बंगाली अफ़सरों को भी दिया गया. ग्रुप कैप्टेन एम जी तवाफ़ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए पश्चिम जर्मनी की नागरिकता ले ली. उनके लिए ये आसान भी था क्योंकि उनकी पत्नी जर्मनी की नागरिक थीं. फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट शौकत इस्लाम ने भी इस फ़ैसले का फ़ायदा उठाया. 1965 की लड़ाई में युद्धबंदी बने इस्लाम उस समय एक एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत तुर्की की वायुसेना में काम कर रहे थे. 1971 में जब बांग्लादेश आज़ाद हुआ तो वो तुर्की से पाकिस्तान जाने के बजाए सीधे बांग्लादेश गए.

मतिउर रहमान के शव को ढाका लाया गया.

30 साल के अथक प्रयासों के बाद 24 जून, 2006 को मतिउर रहमान के पार्थिव शरीर को कराची में उनकी कब्रगाह से निकाल कर बांग्लादेश बिमान की विशेष उड़ान से ढाका ले जाया गया जहाँ उन्हें मीरपुर में शहीद कब्रिस्तान में पूरे सैनिक सम्मान के साथ दोबारा दफ़नाया गया.

बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री ख़ालिदा ज़िया ने राष्ट्रीय ध्वज में लिपटे फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट मतिउर रहमान के शव की ढाका हवाई अड्डे पर अगवानी की.

उस समय हवाई अड्डे पर मतिउर रहमान की पत्नी मिली, उनकी बेटी तुहीन मतिहुर हैदर, उनके दूसरे रिश्तेदार और पुराने साथी भी हवाईअड्डे पर मौजूद थे. वहीं पर बांग्लादेश की सेना ने उन्हें गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया. बाद में जेसोर स्थित बांग्लादेश एयरबेस को उनके नाम पर रखा गया और बांग्लादेश की सरकार ने उनके सम्मान में डाकटिकट भी जारी किया.

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