अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान के साथ जंग का अवाम की आंखों में बढ़ता ख़ौफ़, एक भारतीय महिला पत्रकार की आंखों देखी

अफ़ग़ानिस्तान
    • Author, योगिता लिमये
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, अफ़ग़ानिस्तान से

मैं जब भी अफ़ग़ानिस्तान गई हूं, वहां के लोगों ने खुले दिल से मेरा स्वागत किया है. जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मैं भारत से हूं तो वो मुझे अपनी दिल्ली यात्रा के बारे में बताते हैं और बताते हैं कि उन्हें भारत आ कर कैसे लगा.

वो ख़ुश हो कर दिल्ली के सरोजिनी नगर मार्केट और लाजपत नगर मार्केट से खरीदारी के क़िस्से मुझे सुनाते हैं. वो अपने पसंदीदा बॉलीवुड कलाकारों के बारे में मुझे बताते हैं और टूटी-फूटी हिंदी में या फिर उर्दू में मुझसे बात करने की कोशिश करते हैं.

मेरे हालिया अफ़ग़ानिस्तान दौरे में एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि 'भारत, अफ़ग़ानिस्तान का सच्चा दोस्त है.' उन्होंने बताया कि जब भारतीय क्रिकेट टीम अफ़ग़ानिस्तान के अलावा किसी और के साथ मैच खेलती है तब अफ़ग़ान भारतीय टीम का हौसला बढ़ाते हैं.

लेकिन इसके विपरीत अक्सर ख़बरों में अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय कट्टरपंथी समूहों से वहां रहने वाले भारतीयों को ख़तरा होने की ख़ुफ़िया जानकारी मिलती रहती है. बीते वक्त में अफ़ग़ानिस्तान के अस्पतालों में काम कर रहे भारतीय डॉक्टरों को निशाना बना कर कई हमले किए गए हैं.

हाल में अफ़ग़ानिस्तान में जारी संघर्ष कवर करने गए भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दिक़ी की मौत हो गई. अफ़ग़ान सेना के साथ हुई एक मुठभेड़ में तालिबान के लड़ाकों ने कथित तौर पर दानिश को उस वक्त गोली मारी जब वो सेना के साथ थे. अफ़ग़ानिस्तान से रिपोर्टिंग करना कितना ख़तरनाक है, इस भयानक सच को दानिश की मौत सामने लाई है.

दानिश की बहादुरी और उनकी मेहनत उनके काम में दिखती थी. उनकी मौत के दो सप्ताह पहले दानिश और मैं एक ही फ़्लाइट से दिल्ली से काबुल पहुंचे थे.

वीडियो कैप्शन, दानिश सिद्दीक़ी की तालिबान ने की थी बर्बरता से हत्या: रिपोर्ट

काबुल में जब हम अपने सामान का इंतज़ार कर रहे थे उस वक्त दानिश अफ़ग़ानिस्तान के प्रति अपने प्यार के बारे में मुझे बता रहे थे. हमने आने वाले सप्ताह के लिए अपनी योजना के बारे में चर्चा की और कार पार्किंग की तरफ़ बढ़ गए. अपने-अपने रास्ते चलने से पहले हमने एक-दूसरे से कहा 'सुरक्षित रहना.'

आने वाले दिनों में हम देश के अलग-अलग हिस्सों से एक-दूसरे की रिपोर्ट पढ़ते थे. वो दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान के कंधार से रिपोर्टिंग कर रहे थे और मैं उत्तर की तरफ कुंदूज़ में थी जहां अब तालिबान ने कब्ज़ा कर लिया है.

दानिश की मौत की ख़बर मेरे लिए बड़े झटके की तरह थी. इस ख़बर पर यक़ीन करना मुश्किल था. उनकी मौत के सदमे से उबरने के बाद लगा कि उनके प्रति सबसे अच्छी श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की आवाज़ को दुनिया भर तक पहुंचाते रहें और सुरक्षा और सतर्कता के साथ अपना काम जारी रखें.

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'हिंसा की आदत पड़ चुकी है'

दशकों से अफ़ग़ानिस्तान के लोग हिंसा और डर के साये में जीते रहे हैं, लेकिन अब उन्हें एक तबाही की स्थिति की तरफ धकेल दिया गया है.

एक तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिक बाहर निकल रहे हैं जो दूसरी तरफ़ तालिबान तेज़ी से अपने क़दम बढ़ा रहा है. भारी संघर्ष और तबाही के बीच देश के क़रीब आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर चुका है.

जिस कुंदूज़ शहर में मैं सप्ताह भर पहले रह रही थी वो अब तालिबान के कब्ज़े में है. ये समूह अब यहां के हवाईअड्डे को भी अपने कब्ज़े में ले चुका है.

जिस दौरान मैं और मेरी टीम कुंदूज़ में थी हमें मोर्टार और गोलीबारी की आवाज़ें सुनाई देती थीं. गोलियों की आवाज़ सुन कर हम अक्सर चौंक जाते थे, लेकिन हमने देखा कि यहां के लोगों को इस तरह के माहौल की आदत पड़ चुकी है, गोलियों की आवाज़ पर उनमें कोई प्रतिक्रिया ही नहीं नज़र आती.

वीडियो कैप्शन, अफ़ग़ानिस्तान में सड़क क्यों बना रहा चीन?

अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों से हिंसा से बच कर निकले 35 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने कुंदूज़ शहर में पनाह ली थे. यहां धूल भरे मैदानों में वो तंबू बना कर रह रहे थे. 45 डिग्री की तपा देने वाली गर्मी में वो बांस के टुकड़ों में फटे कपड़े बांध कर बनाए तंबुओं में रहने को मजबूर थे. न तो उनके पास खाने को अधिक सामान था और न ही पीने को पानी. यहां कुछ नल और हैंडपंप ही थे जो सैंकड़ों लोगों की पानी की ज़रूरत पूरी कर रहे थे.

मैंने अपनी ज़िंदगी में इससे बुरे हालात नहीं देखे थे. मैं ग्रीस और बांग्लादेश के राहत शिविरों में भी गई हूं. वहां पर मानवीय राहत देने वाली एजेंसियों की मौजूदगी होती है जो लोगों के लिए खाने और दवाओं की व्यवस्था करती हैं. कुंदूज़ में चार दिनों में केवल एक बार मैंने लोगों को खाना बांटते हुए देखा था.

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राहत शिविरों की दयनीय हालत

कुंदूज़ में संयुक्त राष्ट्र के अलावा 'सेव द चिल्ड्रेन' और 'मेडिसां सौं फ़्रंतिए' जैसी संस्थाएं मानवीय राहत पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन यहां ज़रूरत अधिक है और आपूर्ति कम.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में 1.8 करोड़ लोगों को आपातकालीन मानवीय मदद देने के लिए उन्हें जितनी राशि की ज़रूरत है, उन्हें उसका केवल 40 फ़ीसदी ही मिल पाया है.

कुंदूज़ में जब हमारी टीम एक राहत शिविर में पहुंची तो हमें वहां लोगों ने घेर लिया. इनमें से अधिकतर महिलाएं थीं.

एक महिला ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा कि उसके पति और तीन बच्चों की मौत हो गई है. एक अन्य महिला ने तोड़-मरोड़कर रखा काग़ज़ का एक टुकड़ा मेरे हाथों में थमा दिया. ये उनके बेटे का पहचान पत्र था जो अब जीवित नहीं हैं.

बेनाफ़्शा नाम की महिला ने मुझे बताया कि उनकी उम्र 77 साल है. झुर्रियों से भरे उनके चेहरे पर उम्र के निशान साफ़ नज़र आ रहे थे. वो बार-बार आंसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन आंसू थम नहीं रहे थे. उनसे बातचीत के दौरान पता चला कि लड़ाई में उनके तीनों बेटे मारे गए हैं. उन्होंने कहा, "काश मैं भी मर जाती. इस दर्द के साथ मैं जी नहीं पा रही हूं."

मैंने एक के बाद एक ख़ौफ़ की कई अकल्पनीय कहानियां सुनीं और सुना कि कैसे अफ़ग़ान सेना और तालिबान के बीच हो रहे संघर्ष में इन शिविरों में रहने वालों के परिजनों की मौत हुई है.

शहर के इस एक राहत शिविर में ही इस बात का हिसाब रखना मुश्किल हो रहा था कि इस युद्ध में कितने लोगों की मौत हुई है.

बीते कुछ दिनों से शहर के भीतर भी लड़ाई बढ़ गई है. अब इस बात का पता लगाना असंभव हो गया है कि जिन लोगों से मैंने मुलाक़ात की थी वो अब कहां और कैसे हैं.

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इमेज कैप्शन, अफ़ग़ान महिलाओं के साथ बीबीसी की टीम

'तालिबान की थनी और करनी में फ़र्क़'

इस बीच तालिबान के कब्ज़े वाली जगहों में मानवाधिकारों और महिला अधिकारों के उल्लंघन की भी कई ख़बरें हैं. मैंने सुना है कि औरतों के लिए फ़रमान जारी किया गया है कि घर से बाहर तभी निकलें जब कोई पुरुष उनके साथ हो. साथ ही मैंने ये भी सुना है कि 15 साल से अधिक उम्र की लड़कियों की शादी जबरन तालिबान के लड़ाकों से करवाई जा रही है.

तालिबान ने इस तरह के आरोपों से इनकार किया है. बीते सालों में तालिबान ने कहा था कि वो लड़कियों की शिक्षा के ख़िलाफ़ नहीं हैं और महिला अधिकारों का पूरा सम्मान करते हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में कई लोग ये चेतावनी देते हैं कि तालिबान की कथनी और करनी में बड़ा फ़र्क़ है.

अफ़ग़ान संसद की एक सदस्य फ़रज़ाना कोचाई कहती हैं, "अगर तालिबान फिर से सत्ता में आए तो ये औरतों के ख़ात्मे की तरह होगा."

फ़रज़ाना से मेरी मुलाक़ात क़ाबुल में हुई थी. फ़रज़ाना अफ़ग़ानिस्तान के एक खानाबदोश जनजाति से हैं. बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के 29 साल की उम्र में देश की संसद के लिए उनका चुना जाना न केवल उनकी सफलता की कहानी है, बल्कि ये देश में लोकतंत्रऔर महिला अधिकारों के बारे में काफ़ी कुछ बयां करता है.

क़ाबुल शहर

आज के दौर में भी अफ़ग़ान समाज पितृसत्तात्मक है और लोग कट्टर विचारधारा को मानते हैं, लेकिन पहले हालात इससे भी बुरे थे.

तालिबान से शासन के दौरान न तो महिलाओं को स्कूल जाने का हक़ था और न ही उन्हें काम करने की आज़ादी थी. वो परिवार के किसी पुरुष व्यक्ति के साथ ही घर से बाहर निकल सकती थीं.

लेकिन आज के दौर में महिलाएं सरकार, न्याय व्यवस्था, पुलिस बल और मीडिया में ऊंचे ओहदों पर काम कर रही हैं.

पारंपरिक अफ़ग़ान स्नैक, शक्कर में लपेटे गए भूने बादाम और अफ़ग़ान ग्रीन टी की चुस्कियों के बीच मैंने फ़रज़ाना से पूछा कि अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिकों के बाहर जाने के बारे में वो क्या सोचती हैं.

वीडियो कैप्शन, अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले भारतीयों का हाल

फ़रज़ाना ने कहा कि वो ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से देश के बाहर जा रहे हैं. उन्होंने कहा, "बीस सालों के बाद उन्होंने तालिबान के साथ समझौता कर लिया और कहा कि आप जो चाहे कर सकते हो. ये अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नाकाम होने जैसा है. ये काले दिनों की तरह होगा, न केवल महिलाओं के लिए बल्कि सभी लोगों के लिए क्योंकि उनकी आवाज़ छिन जाएगी, उनकी आज़ादी और उनकी ज़िंदगी उनसे छिन जाएगी."

फ़रज़ाना जैसे कई लोग उस वक्त कम उम्र के थे जब तालिबान सत्ता से बाहर गए थे. आज के दौर में उनके लिए तालिबान का आना आज़ादी और ज़िंदगी ख़त्म होने जैसा होगा.

वीडियो कैप्शन, अफ़ग़ानिस्तान में पांव पसारता तालिबान

क़ाबुल जैसे शहर अभी तालिबान के असर से अछूते हैं और यहां लोग सड़कों और बाज़ारों पर निकलते दिख रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि लोगों में ख़ौफ़ नहीं है. भविष्य को लेकर लोगों में एक अजीब तरह का डर है और ये भावना है कि पूरी दुनिया ने उन्हें अकेला छोड़ दिया है.

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