पीएम मोदी के ख़िलाफ़ क्या ममता बनर्जी 2024 में विपक्ष का चेहरा हो सकती हैं?

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- Author, सरोज सिंह
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
पश्चिम बंगाल में कोई कार्यक्रम हो और ममता बनर्जी को उसमें भाषण देना हो तो वह बहुत कम ही हिंदी में बोलती हैं.
लेकिन बुधवार को पश्चिम बंगाल में मनाए जाने वाले शहीद दिवस में ममता ने हिंदी और अंग्रेजी में भाषण दिया.
पिछले 28 साल से वो 21 जुलाई को बंगाल में एक प्रदर्शन के दौरान मारे गए अपने 13 कार्यकर्ताओं की याद में शहीद दिवस मनाती आ रही हैं, लेकिन कभी भाषण हिंदी या अंग्रेजी में नहीं दिया.
इस बार उन्होंने अपनी बनाई लीक तोड़ी और ऐसा इसलिए क्योंकि इस कार्यक्रम के पोस्टर पश्चिम बंगाल से लेकर त्रिपुरा तक, गुजरात से लेकर तमिलनाडु तक लगे थे.
इस वर्चुअल कार्यक्रम में दिल्ली से कई विपक्षी दलों के नेता भी शामिल हुए. पश्चिम बंगाल में आयोजित इस कार्यक्रम में अकाली दल, समाजवादी पार्टी, एनसीपी, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी, डीएमके, टीआरएस, शिवसेना और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के नेता वर्चुअली मौजूद थे.
जब एक साथ इतने विपक्षी दलों के नेता मौजूद हों, तो ममता ने भी मौक़ा नहीं गंवाया. उन्होंने भी वरिष्ठ नेताओं के सामने अगले हफ़्ते विपक्षी दलों की साझा बैठक बुलाने का प्रस्ताव रखा. साथ ही इस बैठक में उन्होंने ख़ुद भी शामिल होने की इच्छा जताई.
संसद का मॉनसून सत्र चल रहा है और सभी दल के नेता दिल्ली में मौजूद हैं. ख़ुद ममता अगले हफ़्ते दिल्ली आ रही हैं.
ममता बनर्जी ने बुधवार के अपने संबोधन में ये साफ़ कहा कि वो केवल एक कार्यकर्ता हैं और सीनियर नेताओं के निर्देशों का पालन करेंगी.
लेकिन अटकलें लग रही हैं कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी संयुक्त विपक्ष का चेहरा बन सकती हैं?
ख़ुद को कार्यकर्ता बताने वाले बयान के बाद भी प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को राजनीतिक विशेषज्ञ हल्के में नहीं आंक रहे हैं.
इसकी सबसे बड़ी वजह उनका वो भाषण है, जो उन्होंने शहीद दिवस के मौक़े पर दिया.

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टाइमिंग
बुधवार के वर्चुअल संबोधन में ममता बनर्जी ने कहा, "मैं नहीं जानती 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा."
ममता के इस बयान पर वरिष्ठ पत्रकार महुआ चटर्जी कहती हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विपक्ष को साथ लाने की एक कोशिश चंद्रबाबू नायडू ने भी की थी. लेकिन तब चुनाव में कुछ ही वक़्त बचा था और वक़्त की कमी की वजह से उन्हें कुछ ख़ास कामयाबी नहीं मिली.
इस बार ममता ढाई साल पहले से ही एक कोशिश करती दिख रही हैं. वो भी ऐसे वक़्त जब बीजेपी पहले के मुक़ाबले थोड़ी कमज़ोर दिख रही है. किसी भी लड़ाई का मूल मंत्र है, हमला तब करो जब प्रतिद्वंदी कमज़ोर हो.
बीजेपी ने पूरी ताक़त से पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ा लेकिन ममता बनर्जी की रणनीति ने बीजेपी के सोनार बांग्ला के सपने को तोड़ दिया. बंगाल की जीत से ममता उत्साहित हैं और बीजेपी पहले के मुक़ाबले हतोत्साहित.
विपक्ष के सामने ममता बनर्जी ने एक मिसाल पेश की है कि अगर आप ज़मीन पर उतर कर आर-पार की लड़ाई लड़ने का दम रखते हैं, तो आप मोदी-शाह की जोड़ी को हरा सकते हैं.

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एकजुट विपक्ष
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी महुआ चटर्जी की बातों से बहुत सहमत नहीं दिखतीं.
उनको लगता है कि ममता बनर्जी के लिए दिल्ली अभी दूर है. बुधवार को हुई उनकी वर्चुअल रैली इस दिशा में बस पहला कदम है. इसमें कोई शक नहीं कि वो विपक्ष को एकजुट करना चाहती हैं. लेकिन वो ऐसा कर पाएंगी, इस पर अभी बहुत से सवाल हैं. अभी उनको प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर देखना जल्दबाज़ी होगी.
नीरजा कहती हैं, "ममता विपक्ष में किसको इकट्ठा करेंगी? कैसे करेंगी? कौन साथ आएगा? कौन नहीं आएगा? कौन नेतृत्व करेगा? पश्चिम बंगाल के बाहर उनका कितना असर है? अभी ये मालूम नहीं है.
कांग्रेस ख़ुद को राष्ट्रीय पार्टी मानती है, बाक़ी दल क्षेत्रीय हैं, इसलिए ममता की बुधवार की रैली एक कोशिश है कि उनका भी बंगाल के बाहर एक फैलाव हो."
नीरजा मानती हैं कि केंद्र से बीजेपी को हटाने के मक़सद से विपक्ष को एकजुट करना ही ममता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.
बुधवार की रैली में ममता ने शरद पवार और पी. चिदंबरम से अपील की कि वो 27 से 29 जुलाई के बीच दिल्ली में इस मुद्दे पर बैठक बुलाएँ. ख़ुद ममता भी उस दौरान दिल्ली के दौरे पर रहेंगी.
उनके इस बयान से साफ़ हो जाता है कि वो चाहती हैं कि विपक्ष को एकजुट करने का बीड़ा कांग्रेस या एनसीपी जैसे पार्टियों में से कोई उठाए. वो इसमें उनका साथ देंगी.

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लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और लेफ़्ट को छोड़ दें तो विपक्ष के बड़े नेता चाहे वो अखिलेश यादव हों या फिर तेजस्वी यादव या फिर शरद पवार, सभी ने ममता को सपोर्ट किया था.
महुआ चटर्जी कहती हैं कि विधानसभा चुनाव के दौरान जिन पार्टियों ने ममता को सपोर्ट किया वो आज भी उनके साथ खड़ी नज़र आ रही हैं. और अब ममता उस समर्थन को संसद की कार्यवाही से लेकर अलग-अलग राज्यों के विधानसभा चुनाव पहुँचाना चाहती हैं. ममता न केवल पूरे विपक्ष को बल्कि किसानों को भी साथ लेकर चलने की बात कर रही हैं और साथ ही हर मंच पर जनता से जुड़े मुद्दे भी उठा रही है.
महुआ आगे कहती हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी के साथ जो हुआ अगर किसी भी तरह अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में वही खेल हो जाए या बीजेपी की सीटें कुछ घट जाएं तो 2024 में विपक्ष का काम बहुत आसान हो जाएगा. लेकिन इसके लिए उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टियों को कुछ वैसा ही करना होगा, जैसा ममता ने बंगाल में कर दिखाया है.
हालांकि अखिलेश यादव ने बीबीसी को दिए साक्षात्कार में साफ़ कहा है कि समाजवादी पार्टी छोटे दलों के साथ गठबंधन करेगी, क्योंकि बड़ी पार्टियां बंटवारे में ज़्यादा सीटें मांगती हैं जबकि उनका प्रदर्शन उस हिसाब से नहीं होता है.
ऐसे में विधानसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियां अलग अलग लड़ें और लोकसभा में साथ आएं ये फ़ॉर्मूला कितना कारगर होगा इसका आकलन अभी से करना मुश्किल होगा. ममता की बुधवार की रैली में बीएसपी, लेफ़्ट, नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी की तरफ़ से कोई नहीं था.

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सोनिया और पवार को ममता स्वीकार
नीरजा चौधरी कहती हैं कि विपक्ष को एकजुट करने में सोनिया और पवार जैसे बड़े नेताओं का रुख़ बहुत अहम रहने वाला है. नीरजा को लगता है कि विपक्ष के नेताओं को साथ लाने में प्रशांत किशोर की भूमिका अहम हो सकती है.
भले ही कांग्रेस में अंदरूनी कलह चल रही हो, पिछली दो लोकसभा चुनावों में ज़्यादा सीटें न मिली हो, विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर न रहा हो, लेकिन इन सबके बावजूद कांग्रेस अब तक 'बिग ब्रदर' वाले अपने रोल से बाहर नहीं निकल पाई है. पवार भी अपने इलाक़े के एक कद्दावर नेता हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि राष्ट्रीय पार्टी के नेतृत्व को क्या क्षेत्रीय पार्टियां स्वीकार करेंगी? दूसरी तरफ़ सवाल ये भी है कि क्षेत्रीय पार्टी के नेतृत्व को कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी स्वीकार कर पाएगी?
महुआ कहती हैं, "सोनिया और पवार को ममता के नेतृत्व से दिक़्क़त नहीं होने वाली है. वो इसलिए क्योंकि अभी विपक्ष की हर पार्टी का मुख्य उद्देश्य एक है और वो है बीजेपी को केंद्र से हटाना."
"ये बात सही है कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पार्टी है, लेकिन सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनना है. कांग्रेस से प्रधानमंत्री पद का नाम होगा भी तो राहुल गांधी का होगा. उम्र और अनुभव दोनों में राहुल गांधी, ममता बनर्जी से कमतर हैं. एक बार के लिए मान लिया जाए कि राहुल गांधी को ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री मानना होगा, तो इसमें उन्हें भला क्या दिक़्क़त होगी. सार्वजनिक मंच पर राहुल गांधी कभी ऐसे पेश नहीं आएं हैं, जिससे ऐसा लगता हो कि उनका 'इगो बहुत बड़ा है.
पवार भी चुनावी राजनीति को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं. वो महाराष्ट्र के मराठा लीडर हैं और ममता बनर्जी तीन बार की मुख्यमंत्री है."
यहां एक बात याद रखने वाली ये है कि पवार, ममता और सोनिया तीनों एक दौर में एक साथ कांग्रेस में रह चुके हैं.

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पश्चिम बंगाल के बाहर ममता
महुआ चटर्जी कहती हैं, "अगर आप पूछें कि क्या 2024 में ममता प्रधानमंत्री की दावेदार हैं, तो मैं कहूंगी कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है."
भले ही पश्चिम बंगाल से लोकसभा की मात्र 42 सीटें ही हैं. लेकिन जब देवेगौड़ा और आईके गुजराल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो ममता की दावेदारी पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद और बड़ी हो गई है. आज देश के हर कोने में पश्चिम बंगाल में बीजेपी की हार की चर्चा होती है तो ममता का नाम भी साथ में आता है.
एक तथ्य ये ज़रूर है कि ममता की पार्टी बंगाल तक ही सीमित है, लेकिन बंगाल के बाहर अपनी पहचान बनाने की मंशा से ही उन्होंने शहीद दिवस कार्यक्रम के पोस्टर बंगाल के बाहर भी लगवाए. बांग्ला की जगह हिंदी और अंग्रेजी में जनता को संबोधित किया, जिसका सीधा प्रसारण पश्चिम बंगाल के बाहर दिल्ली, गुजरात, त्रिपुरा, बिहार, यूपी और तमिलनाडु में भी हुआ.
बुधवार को अपने संबोधन में ममता ने कहा कि "वो केवल एक कार्यकर्ता हैं और सीनियर नेताओं के निर्देशों का पालन करेंगी." इस पर महुआ कहती हैं, "ये बयान भी ममता बनर्जी की राजनीति का हिस्सा है. जो नेता किसी पद की लालच में न हो, उस पर दूसरी राजनीतिक पार्टियां जल्द भरोसा भी जताएंगी और साथ भी आएंगी."
ममता के बयान का अर्थ विस्तार से समझाते हुए महुआ कहती हैं, "ममता ने ये भी बता दिया कि उनकी प्राथमिकता भारत के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी नहीं है, वो केवल केंद्र से बीजेपी को हटाना चाहती हैं, जिसमें उनकी निर्णायक भूमिका होगी."
जानकार ममता बनर्जी के भाषण के अलग-अलग मायने निकाल रहे हैं, अपने तरीक़े से उसकी व्याख्या भी कर रहे हैं लेकिन सब ये ज़रूर मान रहे हैं कि आने वाले दिनों में जब भी 2024 के लिए प्रधानमंत्री पद की दावेदारों की चर्चा होगी, तो उस लिस्ट में ममता बनर्जी का भी नाम होगा.
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