चिराग पासवानः क्या बीजेपी ने नीतीश कुमार के लिए उनसे किनारा कर लिया?

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लोक जनशक्ति पार्टी के पशुपति कुमार पारस गुट ने मंगलवार शाम चिराग पासवान को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाने का एलान किया.
इस गुट ने सूरजभान सिंह को पार्टी का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है जो नया अध्यक्ष चुनने के लिए चुनाव कराएंगे.
इससे पहले लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने सोमवार शाम हाजीपुर से सांसद पशुपति कुमार पारस को सदन में एलजेपी का नेता स्वीकार कर लिया है.
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दूसरी तरफ़ पारस के भतीजे चिराग पासवान ने पार्टी की नेशनल एग्जीक्यूटिव की मीटिंग में सभी बागी सांसदों को पार्टी से बाहर करने का आदेश जारी किया है.
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चिराग पासवान ने इससे पहले एक पुरानी चिट्ठी को जारी करके इस पूरे मामले में अपना पक्ष रखने की कोशिश की थी.
चिट्ठी जारी करते हुए चिराग ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है, "पापा की बनाई इस पार्टी और अपने परिवार को साथ रखने के लिए किए मैंने प्रयास किया लेकिन असफल रहा. पार्टी माँ के समान है और माँ के साथ धोखा नहीं करना चाहिए. लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है. पार्टी में आस्था रखने वाले लोगों का मैं धन्यवाद देता हूँ. एक पुराना पत्र साझा करता हूँ."

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चिराग स्वयं को नरेंद्र मोदी का 'हनुमान' बताते आए हैं. लेकिन संकट की घड़ी में प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह या कोई अन्य बीजेपी नेता चिराग के साथ खड़ा होता नहीं दिख रहा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीजेपी ने चिराग पासवान की तुलना में उनके चाचा पशुपति नाथ पारस को चुन लिया है.
जो हुआ उसका बैकग्राउंड क्या है?
बिहार की राजनीति में सोमवार को जो कुछ घटा है, उसकी असली शुरुआत बिहार विधानसभा चुनाव के साथ होती दिख रही है.
चिराग ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ बेहद आक्रामकता के साथ चुनाव प्रचार किया. चुनाव के दौरान ‘मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं’ जैसे जुमले उछाले गए. इस रुख का पार्टी के अंदर भी विरोध किया गया लेकिन इसके बावजूद बिहार की सड़कों पर इन जुमलों के साथ पोस्टर देखे गए.
इसके बाद चुनावी नतीजे आए और नीतीश कुमार की पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. वहीं, चिराग को इतने आक्रामक रुख के बावजूद सिर्फ एक विधानसभा सीट मिली.

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लेकिन नीतीश कुमार एक बार फिर सत्ता में आए और सीएम बन गए. राजनीतिक पर्यवेक्षकों की मानें तो इसके बाद वो सब शुरू हुआ जिसकी वजह से चिराग अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ गए.
हालांकि, जेडीयू के शीर्ष नेता केसी त्यागी इस बंटवारे में नीतीश कुमार की भूमिका होने से इनकार करते हैं.
वे कहते हैं, “अगर चिराग चुनाव में एनडीए से बाहर नहीं जाते तो क्या ये सब हो रहा होता, जो कि अब हो रहा है, ऐसे में जो परिस्थिति आज पैदा हुई है, इसके लिए वह स्वयं ज़िम्मेदार हैं. और इसमें जेडीयू की कोई भूमिका नहीं है.”
लेकिन बिहार की राजनीति को समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ तिवारी इस तर्क से सहमत नज़र नहीं आते हैं.
वे कहते हैं, “बिहार में जो भी नीतीश कुमार को जानता है, उसे पता है कि नीतीश जी अपनी दुश्मनी भूलते नहीं हैं. अभी दो महीने पहले एलजेपी के कुछ लोग टूटकर जेडीयू में गए थे. कुछ लोग आरजेडी में गए थे. उस समय से बातचीत चल रही थी. इस सबके बीच नीतीश कुमार की चुप्पी बता रही थी कि वह अंदर ही अंदर चिराग पासवान को लेकर विचार कर रहे हैं. इसी बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल में विस्तार की बात भी शुरू हो गयी. चिराग अपने पिता के देहांत से खाली हुई कुर्सी पर दावा ठोकने वाले थे."

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वो आगे कहते हैं, "नीतीश कुमार के पास एलजेपी को चोट पहुंचाने का अच्छा मौका मिल गया. और नीतीश जी ने अपने विश्वासपात्र लल्लन सिंह को इस काम पर लगाया. उन्होंने राम विलास जी के भाई पशुपति नाथ पारस से मिलना शुरू किया. जेडीयू के अंदर नीतीश की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है. उनके निर्देशन के बिना कोई नेता एक शब्द भी नहीं कह सकता है. ऐसे में जब ये फूट पड़ गयी तब नीतीश कुमार के दाएं हाथ आरसीपी सिंह ने बयान दिया कि ‘जो जैसा बोएगा वो वैसा काटेगा’. ये बयान बताता है कि पार्टी में इसे लेकर किस तरह का उत्साह है.”
बीजेपी ने क्या किया?
लेकिन सवाल उठता है कि इस घटनाक्रम में बीजेपी की क्या भूमिका थी?
इस सवाल पर तिवारी कहते हैं, “ऐसा लगता है कि नीतीश जी ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से कहा कि कुछ दिनों के लिए चिराग के मसले को किनारे रखा जाए क्योंकि एक बड़ी घटना हो सकती है. बीजेपी का कहना ये था कि उन्हें इससे मतलब नहीं है कि मंत्री चिराग बनें या कोई अन्य व्यक्ति. उन्हें बस एलजेपी को प्रतिनिधित्व देना है. शायद यही वजह है कि पारस लगातार कह रहे हैं कि उन्होंने पार्टी को तोड़ा नहीं है और पार्टी उनके साथ ही है. ऐसे में पारस के मंत्रिमंडल में जाने की संभावनाएं दिख रही हैं.”

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वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद भी इस घटनाक्रम में नीतीश कुमार की सक्रिय भूमिका देखते हैं लेकिन वे इसमें बीजेपी की भूमिका भी देखते हैं.
बिहार में राजनीति के जातीय समीकरण को समझने वाले सुरूर अहमद कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि इसमें नीतीश जी एक सक्रिय भूमिका है. उनकी पार्टी के नेताओं का बाग़ी सांसदों से फूट के तुरंत बाद मिलना ये साफ करता है. जेडीयू नेता लल्लन सिंह पार्टी कल सुबह ही बाग़ी सांसद वीणा देवी के आवास पर पहुंचे थे. ऐसे में नीतीश जी इसमें शामिल तो थे. लेकिन ये नहीं कहा जा सकता है कि ये पूरी तरह नीतीश कुमार की ही योजना थी."
वो आगे कहते हैं, "क्योंकि इस समय नीतीश कुमार की हैसियत ये नहीं है कि वह बदला लेने का काम करें. और इससे उन्हें कोई फायदा भी होता नहीं दिख रहा है. क्योंकि एलजेपी के पास कोई विधायक नहीं है. एक था जिसे जेडीयू में पहले ही मिला लिया गया है. ऐसे में वजह की कमी दिखाई पड़ती है. मेरी राय में ये बीजेपी की योजना पर हुआ है.”

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रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत
कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक ये भी मानते हैं कि दिल्ली में घटित हुए इस राजनीतिक घटनाक्रम के पीछे चुनावी गणित भी है.
सुरूर अहमद कहते हैं, “बीजेपी बिहार के दलित वोट बैंक पर नज़र जमाए हुए है. बीजेपी चाहती है कि पासवान समाज को एक ऐसा नेता दिया जाए जिसे संभालना आसान हो. ऐसे में बीजेपी ने चिराग़ की जगह चाचा पशुपति नाथ पारस को चुना. क्योंकि इस बात की संभावना है कि चाचा और भतीजे की लड़ाई में बीजेपी बिहार का दलित वोट बैंक, विशेषत: वह समुदाय जिसके नेता राम विलास पासवान हुआ करते थे, हथियाना चाहे."
वो आगे कहते हैं, "इसे इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल चुनाव में सिर्फ मटुआ समुदाय ऐसा था जिसने एक-मुश्त बीजेपी को वोट दिया. और अब बीजेपी पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव की तैयारी कर रही है. ऐसे में मुझे लगता है कि बीजेपी के लिए ये फूट एक तीर से दो निशाने लगाने जैसा है. एक तरफ बीजेपी को चिराग़ और उनकी महत्वाकांक्षाओं से मुक्ति मिल गयी और वहीं दूसरी ओर बिहार की दलित राजनीति में भी नए अवसर पैदा हो गए. नीतीश जी को एक फायदा ये हुआ है कि इस किस्से से उन्होंने कहने के लिए ही सही लेकिन चिराग़ पासवान से बदला ले लिया.”
हालांकि, बीजेपी चिराग पासवान के साथ जो कुछ हुआ, उसमें अपनी भूमिका होने से इनकार करती है.
बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने बीबीसी के साथ बात करते हुए कहा है, “इसमें कहने की कोई बात नहीं है. हमने ये चुनाव जेडीयू के साथ मिलकर लड़ा था और हम उनके साथ हैं. अब एलजेपी के अंदर क्या होता है, ये पार्टी का अंदरूनी मामला है.
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