चमोली आपदा पर शोध रिपोर्ट: 'ग्लेशियर टूटने से घाटी में एटम बम की तरह निकली ऊर्जा'

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- Author, जोनाथन अमोस
- पदनाम, बीबीसी विज्ञान संवाददाता
प्रकृति अकसर हमें हैरान करती है. हम बार-बार उसकी ताक़त को नज़रअंदाज़ करते हैं और और इसके नतीजे विनाशकारी होती हैं.
इस साल फ़रवरी में उत्तराखंड के चमोली में आई त्रासदी में भी यही हुआ. तब हिमालय पर्वत का एक हिस्सा नीचे घाटी में गिर गया था.
इसके मलबे ने नीचे भारी तबाही मचाई. 200 से ज़्यादा लोग मारे गए और हज़ारों करोड़ की लागत के हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बर्बाद हो गए.
उस वक़्त इस हादसे के कुछ वीडियो आपने देखे ही होंगे. भयावह मलबा नीचे की तरफ आ रहा था और अपने रास्ते में आ रही हर चीज़ को बहा ले जा रहा था.
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अब 50 से अधिक शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने इसे लेकर अपनी शोध रिपोर्ट प्रकाशित की है और बताया है कि वास्तव में इस प्राकृतिक आपदा के दौरान क्या हुआ होगा.
इसे कई डाटा स्रोतों के आधार पर बनाया गया है जिसमें सेटेलाइट तस्वीरों से लेकर मौके के निरीक्षण शामिल हैं.

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इसे पढ़कर आप उदासी से घिर जाते हैं, जो आंकड़े दिए गए हैं, यदि ईमानदारी से कहा जाए तो, उन्हें समझना मुश्किल है.
इस त्रासदी की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली ज़िले के 6 किलोमीटर ऊंचे शिखर रोंटी पीक से हुई थी.
180 मीटर मोटी और 500 मीटर चौड़ी ग्लेशियर के बर्फ़ की एक चादर अचानक टूट कर गिर गई थी.
शोध टीम की गणना के मुताबिक क़रीब 2.7 करोड़ क्यूबिक मीटर सामग्री एक मिनट तक मुक्त होकर गिर रही थी.
ये सामग्री कितनी भारी थी इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि ये मिस्र के गिज़ा के महान पिरामिड से दस गुणा अधिक वज़नी थी.

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हिरोशिमा के परमाणु बम से 15 गुना अधिक ऊर्जा
जब ये नीचे रोंटी घाटी में गिरी तो हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बमों से 15 गुना अधिक ऊर्जा निकली.
शोध टीम के प्रमुख डॉ. डैन शुगर कहते हैं, "इसमें 80 प्रतिशत चट्टान और 20 प्रतिशत बर्फ़ थी. ये दो किलोमीटर नीचे गिरी तो इतनी ऊर्जा निकली की समूची बर्फ़ पिघल कर पानी बन गई."
कनाडा की कैलगैरी यूनिवर्सिटी में कार्यरत डॉ शुगर कहते हैं, "ये चट्टानों का एक सामान्य भूस्खलन होता लेकिन इस क्रिया ने इसे एक ऐसे भूस्खलन में बदल दिया जो बेहद तेज़ गति से दस किलोमीटर दूर तक और निचली ऊंचाइयों तक गया."
जब ये सामग्री टकराई तो इसने आसपास की चट्टानों को तुरंत पत्थरों में बदल दिया जिनमें कुछ दस मीटर तक चौड़े थे. इससे हवा का जो धमाका हुआ उससे आसपास का बीस हेक्टेयर जंगल बर्बाद हो गया."
सामान्य तौर पर चूरा-चूरा हुए द्रव्यमान को अपनी जगह पर ही रहना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. किसी कंक्रीट मिक्स जैसी स्थिरता के साथ ये और नीचे की तरफ बढ़ता चला गया.
जब ये 15 किलोमीटर नीचे श्रीगंगा हाइड्रोप्रोजेक्ट से टकराया तो इसकी रफ़्तार 25 मीटर प्रति सेकंड या 90 किलोमीटर प्रति घंटा थी. ये एक तेज़ रफ़्तार कार के बराबर गति थी. यहां से दस किलोमीटर और नीचे तवोपन हाइड्रो प्लांट के पास पहुंचते-पहुंचते भी यह 16 मीटर प्रति सेकंड की रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था.
"ग्लोबल वार्मिंग से नहीं जोड़ा जा सकता"
उस समय ये आशंका ज़ाहिर की गई थी कि ये पानी किसी ग्लेशियर झील के टूटने से आया है.
हिमालय के ग्लेशियर में झीलों का बनना आम बात है. कई बार ये टूट जाती हैं तो फ्लैश फ्लड आ जाते हैं. शोध टीम ने चमोली त्रासदी में इस पक्ष को नकार दिया है. टीम को ऐसा कोई स्रोत नहीं मिला जो इस घटनाक्रम की पुष्टि करे.
फ़रवरी में जब ये त्रासदी आई थी तब जलवायु परिवर्तन और उसकी इसमें भूमिका को लेकर भी सवाल उठाए गए थे.
ये एक जटिल मुद्दा है. शोध टीम का कहना है कि किसी एक घटनाक्रम को सीधे जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग से नहीं जोड़ा जा सकता है. हालांकि उनका कहना है कि तापमान बढ़ने की वजह से हिमालय की चट्टानों के टूटने के मामले बढ़े हैं.
साइंस मैग्ज़ीन में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ता लिखते हैं, "ग्लेशियर के सिमटने से चट्टानें अस्थिर होती हैं और इससे नीचे की चट्टानों का हाड्रोलॉजिकल और थर्मल संतुलन बदलता है."
"चार साल से सरक रही थी चट्टान"
इस शोध पत्र के सह लेखक और एरिज़ोना के प्लेनेटरी साइंस इंस्टीट्यूट से जुड़े प्रोफ़ेसर जेफ़री कार्गल ने बीबीसी से कहा, "किसी एक कारण की तरफ़ इशारा करना मुश्किल है. लेकिन हम ये जानते हैं कि ये विशाल चट्टानें जो गिरी हैं ये पिछले चार सालों से सरक रही थी. सेटेलाइट तस्वीरें बताती हैं कि ये दसियों मीटर सरक चुकी थीं. दुर्भाग्यवश किसी इंसान की नज़र इस पर नहीं पड़ सकी."
अब सवाल ये है कि इन सब घटनाक्रमों का उत्तराखंड में रहने वाले और यहां काम करने वाले लोगों के लिए क्या मायने हैं?
जल नीति विशेषज्ञ और उत्तराखंड के हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्टों पर लिखती रहने वाली पत्रकार कविता उपाध्याय कहती हैं, "इस इलाक़े में भूकंप और बाढ़ आती रहती है और यह बहुत डायनमिक है. यहां किसी भी बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए."
वे कहती हैं कि ये पहली बार नहीं है जब इस तरह के हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट बर्बाद हुए हैं.
कविता कहती हैं, "2012-13 की बाढ़ में भी ये बर्बाद हुए थे. ऐसे में इस नाज़ुक क्षेत्र में इतने बड़े प्रोजेक्टों के निर्माण पर आपको सवाल उठाने होंगे. आप ये कह सकते हैं कि यहां विकास नहीं होना चाहिए लेकिन सरकारें इसे नहीं सुनेंगी. इन प्रोजोक्ट से रोज़गार मिलता है और सरकार ईंधन आधारित ऊर्जा से हाइड्रो पॉवर की तरफ बढ़ रही है. ऐसे में अगर आप व्यवहारिक समाधान चाहते हैं तो कम से कम ऐसी आपदा से पहले चेतावनी का सिस्टम तो होना ही चाहिए."
ब्रिटेन की शेफ़ील्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और शोध के सह-लेखक और भूस्खलन विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर डेव पेटली भी इससे सहमत हैं.
वे कहते हैं, "चमोली आपदा ये बताती है कि हम ऊंचे पहाड़ी इलाकों में जो महंगा इंफ्रास्ट्रक्चर बना रहे हैं उससे होने वाले ख़तरों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं."
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वे कहते हैं, सामान्य परिस्थितियों में हम जो आंकलन करते हैं ये ख़तरा उससे कहीं ज़्यादा है. जलवायु परिवर्तन ने इसे और बढ़ा दिया है.
"हमें इन ख़तरों का और बेहतर आकलन करना होगा अन्यथा हमें इन प्रोजेक्ट की अधिक भारी मानवीय, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण कीमत चुकानी होगी."
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