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पश्चिम बंगाल: ममता बनर्जी की 'फ़ाइटर' इमेज के आगे बीजेपी का पलड़ा कितना भारी
- Author, ज़ुबैर अहमद
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
पश्चिम बंगाल में छह महीने से भी कम समय में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन राज्य भर में चुनावी माहौल अभी से काफ़ी गर्म हो चुका है.
जीत किसकी होगी ये कहना काफ़ी मुश्किल है, लेकिन इस समय केवल एक रुझान साफ़ है और वो ये कि इस चुनाव में सीधी टक्कर सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच है.
बीजेपी पश्चिम बंगाल को हर हाल में जीतना चाहती है. पार्टी ने अभी से अपने संसाधनों को चुनावी मुहिम में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह के रोड शो हों या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का दौरा, बीजेपी गंभीरता से बंगाल के चुनावी मैदान में कूद चुकी है.
इसके अलावा सुवेंदु अधिकारी और कुछ दूसरे नेताओं का टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल होना बीजेपी की मुहिम के लिए काफ़ी अहम माना जा रहा है.
लेकिन चुनाव के बाद बंगाल में सत्ता की बागडोर बीजेपी पहली बार संभालेगी या टीएमसी तीसरी बार विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता पर बनी रहेगी, ये कई बातों पर निर्भर करेगा.
वोट शेयर में बदलाव का क्या होगा असर
कोलकाता में राजनीतिक विश्लेषक अरुंधति मुखर्जी कहती हैं, "फ़िलहाल झुकाव बीजेपी की तरफ़ अधिक दिखाई देता है." कोलकाता रिसर्च ग्रुप के सियासी विश्लेषक रजत रॉय के विचार में भी इस समय बीजेपी की मुहिम में गति दिखती है.
लेकिन अरुंधति मुखर्जी के अनुसार इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी ही चुनाव जीतेगी. वो कहती हैं, "राज्य में बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो ममता बनर्जी की सरकार से ऊब चुके हैं. एंटी-इनकंबेंसी फ़ैक्टर भी है. बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो मोदी सरकार को पसंद नहीं करते. ये दोनों तरह के लोग कांग्रेस और वाम मोर्चे के गठबंधन को वोट देंगे. अगर गठबंधन का वोट शेयर बढ़ा, तो ममता बनर्जी का जीतना आसान हो जाएगा."
कोलकाता के ही राजनीतिक जानकार विश्वजीत भट्टाचार्य इस बात से सहमत हैं कि गठबंधन को अगर अधिक वोट मिले, तो नुक़सान बीजेपी को होगा, क्योंकि टीएमसी का वोट शेयर कई चुनावों से लगभग एक जैसा है.
वो कहते हैं, "मेरे विचार में कांग्रेस और वामपंथी मोर्चे के वोटर ममता बनर्जी को वोट देंगे, क्योंकि ये टैक्टिकल वोट करेंगे और अगर ये हुआ तो ममता बनर्जी चुनाव जीत सकती हैं."
इसलिए अनुमान ये लगाया जा रहा है कि अगर ममता बनर्जी की पार्टी ने अगले चुनाव में अपना वोट शेयर बनाए रखा और कांग्रेस और वाम फ्रंट के गठबंधन ने पिछले साल के आम चुनाव में हासिल किए अपने 12 प्रतिशत वोट विधानसभा चुनाव में हासिल कर लिए तो टीएमसी की जीत तय है.
बंगाल में बीजेपी को पड़ने वाले वोट एक समय में वाम दलों को पड़ा करते थे. टीएमसी के वोटर बीजेपी की तरफ़ ट्रांसफ़र नहीं हुए हैं. बीजेपी का 2019 के आम चुनाव में वोट शेयर लगभग 40 प्रतिशत तक पहुँच गया, जिसने कई लोगों को हैरान कर दिया और ये बढ़ोतरी वाम मोर्चे के वोट ट्रांसफ़र होने से हुई थी.
राज्य में बीजेपी ने धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं. साल 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कुल 294 सीटों में से 289 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन इसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई. इसका वोट शेयर केवल चार प्रतिशत था.
2014 के लोकसभा चुनाव में इसे राज्य की 42 सीटों में से केवल दो पर जीत हासिल हुई. इसका वोट शेयर 17 प्रतिशत रहा. पिछले विधानसभा चुनाव में इसे 10 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट शेयर मिले और केवल तीन सीटें.
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 18 सीटें जीतीं. इसका वोट शेयर बढ़कर 40.64 प्रतिशत हो गया. बीजेपी अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले विधानसभा चुनाव में इस परिणाम को दोहराने की उम्मीद कर रही है.
दूसरी तरफ़ 2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर वाम मोर्चे की 34 साल पुरानी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद ममता बनर्जी को बंगाल में पहली बार सरकार बनाने का अवसर मिला. टीएमसी ने चुनाव में 184 सीटें जीती थीं और पार्टी का वोट शेयर 39.9 प्रतिशत था.
2014 के आम चुनाव में देश भर में मोदी लहर थी, लेकिन इसके बावजूद बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी को 42 सीटों में से 34 पर कामयाबी मिली.
2016 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कांग्रेस से एलायंस ख़त्म करने के बावजूद 211 सीटें हासिल कीं और इसका वोट शेयर 44.9 प्रतिशत था. पिछले साल हुए आम चुनाव में पार्टी ने केवल 22 सीटें जीतीं लेकिन इसके वोट शेयर में केवल पांच प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली.
ममता बनर्जी बनाम कौन?
रजत रॉय का तर्क ये है कि पार्टियों के वोट शेयर के बजाय दूसरे कई और फ़ैक्टर पर निगाह डालने की ज़रूरत है. उनके मुताबिक़ ममता बनर्जी टीमएसी का चेहरा हैं और मुख्यमंत्री भी. वोटर जानते हैं कि अगर उनकी पार्टी जीती, तो मुख्यमंत्री कौन होगा. वो कहते हैं, "बीजेपी में कोई मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है. कोई भी ममता के क़द का नहीं है."
बीजेपी नरेंद्र मोदी और अमित शाह को सामने ला रही है, लेकिन इसका ममता बनर्जी को ये कहने का मौक़ा मिल गया है कि बीजेपी बाहर की पार्टी है. रजत रॉय कहते हैं, "ममता बनर्जी बंगाली बनाम बाहरी का कार्ड खेल रही हैं और इसका असर दिखाई दे रहा है. सोशल मीडिया पर भी ये बहस का मुद्दा बन गया है."
रजत रॉय के अनुसार ममता बनर्जी की इस मुहिम को बीजेपी की कुछ ग़लतियाँ भी शक्ति दे रही हैं. रवींद्रनाथ टैगोर और अमर्त्य सेन के बारे में दिए गए बयान से ममता बनर्जी ने कहना शुरू कर दिया है कि बीजेपी बंगाल की संस्कृति के ख़िलाफ़ है और ये बंगाली वोटर के लिए एक संवेदनशील मामला है.
अरुंधति कहती हैं कि आम धारणा ये है कि ममता बनर्जी एक फ़ाइटर है. "उनकी नज़रों में भी जो उन्हें पसंद करते हैं और ऐसे लोगों की नज़रों में भी जो उन्हें नापसंद करते हैं, वो एक फ़ाइटर हैं."
रजत रॉय के अनुसार धारणा आम ये भी है कि वो ईमानदार हैं, लेकिन पार्टी के अधिकतर नेता भ्रष्ट हैं. वो कहते हैं, "इसीलिए वो हर जगह कहती हैं कि लोग वोट उन्हें दें और बंगाल में टीएमसी को वोट नहीं पड़ते, ममता बनर्जी को वोट दिए जाते हैं."
ओवैसी फ़ैक्टर
कुछ लोगों का कहना है कि असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी ममता बनर्जी की जीत में रोड़ा अटका सकती है. ओवैसी ने बंगाल में चुनाव लड़ने की घोषणा पहले ही कर दी है.
विधानसभा की कुल 294 सीटों में से 70 ऐसी सीटें हैं, जहाँ मुस्लिम वोटर 20 प्रतिशत से अधिक हैं और राज्य में लगभग चार प्रतिशत मुसलमान ऐसे हैं, जिनकी एकमात्र भाषा उर्दू है और वो जिन इलाक़ों में रहते हैं वो बिहार के उन इलाक़ों से सटे हैं, जहाँ से ओवैसी को बिहार विधानसभा के चुनाव में कामयाबी मिली है.
ओवैसी ख़ुद बंगाल का दौरा कर चुके हैं और वहाँ पिछले छह महीनों में उनकी पार्टी की कई शाखाएँ खुल चुकी हैं.
क्या वो टीएमसी का गेम ख़राब कर सकते हैं?
अरुंधति मुखर्जी कहती हैं कि ओवैसी का असर होगा. वो कहती हैं, "ममता बनर्जी का मुसलमानों पर यक़ीनन ज़ोर है, लेकिन ओवैसी का थोड़ा ही असर होगा. ओवैसी ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं, जिसका मुसलमानों पर असर होता है. वो उनकी नौकरियों और शिक्षा जैसे मुद्दे भी उठा रहे हैं. टीएमसी का मुस्लिम वोट शेयर इस बार थोड़ा घटेगा."
ये भी पढ़ें: पश्चिम बंगालः बीजेपी ने फिर चलाया सीएए का चुनावी तीर
रजत रॉय के मुताबिक़, मुसलमान ममता बनर्जी को वोट देते आये हैं लेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा राज्य सरकार से ख़ुश नहीं है, क्योंकि मुसलमानों को नौकरियों और शिक्षा में बेहतरी के दिए गए वादे पूरे नहीं किए गए. "लेकिन मेरे विचार में ममता से नाराज़ मुसलमान भी टैक्टिकल वोटिंग करेंगे, क्योंकि मुस्लिम समुदाय बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट करेगी."
लेकिन विश्वजीत भट्टाचार्य कहते हैं कि ओवैसी का इस चुनाव पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.
ममता बनर्जी बीजेपी की राह में आख़िरी रोड़ा
बीजेपी में बड़े नेता राज्य में पार्टी के नेताओं को ये पैग़ाम दे रहे हैं कि वो 200 सीटें जीतने की उनकी मुहिम पर ज़ोर दें. अमित शाह ने भी सार्वजनिक सभाओं में कम से कम 200 सीटें जीतने का दावा किया है. लेकिन अंदरूनी तौर पर पार्टी को मालूम है कि 200 सीटों का लक्ष्य वास्तविक नहीं है. हाँ पार्टी ये ज़रूर मानती है कि ध्रुवीकरण से इस लक्ष्य के क़रीब ज़रूर जाया जा सकता है. ऐसे में बीजेपी चाहेगी कि ओवैसी की पार्टी चुनाव लड़े.
राज्य में मुसलमानों की आबादी लगभग 28-30 प्रतिशत है, जो जम्मू-कश्मीर और असम के बाद सबसे अधिक है. विश्वजीत भट्टाचार्य के अनुसार मोहन भागवत ने कई बार कहा है कि हिंदू इंडिया की कल्पना मुस्लिम आबादी वाले राज्यों पर सत्ता में आए बिना नहीं की जा सकती.
विश्वजीत कहते हैं, "ये आरएसएस का मक़सद है. हमारे देश में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले राज्य जम्मू-कश्मीर में गए और सत्ता में आए. असम दूसरा सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला राज्य है. वो वहाँ भी गए और चुनाव जीता और तीसरा सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाला राज्य पश्चिम बंगाल है. बीजेपी पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के लिए बहुत बेक़रार है. इसकी इस कोशिश में आख़िरी रोड़ा ममता बनर्जी हैं."
दूसरा ये कि 2025 में आरएसएस की स्थापना के 100 साल पूरे हो जाएँगे. आरएसएस का पहला सियासी धड़ा यहीं बना था. इन्हीं कारणों से बीजेपी सत्ता में आने के लिए उतावली हो रही है.
बंगाल में आरएसएस दशकों तक ग़ुमनाम रहने के बाद एक बार फिर से एक अहम सामाजिक संस्था बन कर उभरी है. आरएसएस एक ऐसी संस्था है, जो अपनी शाखाओं की संख्या की जानकारी नहीं देती लेकिन बंगाल की मीडिया के अनुसार 2011 में इसकी शाखाओं की संख्या 800 थी जो 2018 में 2000 से अधिक हो गई है
राजनीतिक विशेषज्ञ रजत रॉय स्वीकार करते हैं कि पश्चिम बंगाल में आरएसएस की शाखाएँ बढ़ी हैं. उनके विचार में मध्यम वर्ग के हिंदू हिंदुत्व विचारधारा से प्रभावित हुए हैं और एक सोच ऐसी उभरी है कि मुसलमानों को सबक़ सीखाना है. वो कहते हैं, "इस सोच का सियासी पार्टियाँ और बुद्धिजीवी वर्ग विरोध नहीं कर सके हैं."
राज्य में इसके पनपने का एक बड़ा कारण हैं दिलीप घोष जिन्होंने 2014 के अंत में राज्य की बीजेपी इकाई के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला. वो एक पुराने प्रचारक हैं जिन्होंने पूर्व और पूर्वोत्तर राज्यों में लगभग 25 वर्षों तक काम किया है.
घोष के अपने शब्दों में, "मैं आज जो कुछ भी हूँ, आरएसएस की वजह से हूँ. संघ एक अनुशासित जीवन जीने का तरीक़ा सिखाता है और यही वह प्रशिक्षण है जिसने मुझे राज्य के बीजेपी प्रमुख की भूमिका निभाने की ताक़त दी. आरएसएस हमारे देश के लिए सही तरह के पुरुषों का निर्माण करता है, हमारा मंत्र है साउंड बॉडी में साउंड माइंड. मुझे आरएसएस का प्रचारक होने पर गर्व है और आज भी मैं संघ के दैनिक अभ्यास का अनुसरण करता हूं, जैसे मैंने एक युवा कैडर के रूप में किया था."
सुवेंदु अधिकारी एक फ़ैक्टर?
सुवेंदु अधिकारी टीएमसी के एक बड़े नेता के रूप में देखे जाते थे. उनका बीजेपी में जाना ममता बनर्जी के लिए बड़ा झटका था.
विश्वजीत भट्टाचार्य कहते हैं उनका असर बंगाल के कई इलाक़ों में है. वो तीन सहकारी बैंकों के चेयरमैन हैं और उनके अपने क़रीबी साथी दो सहकारी बैंकों के चेयरमैन हैं. कई कॉटेज इंडस्ट्री इन बैंकों से पैसे लेते हैं. अधिकारी ने बीजेपी में शामिल होने से पहले कई रैलियाँ कीं ताकि वो ये परख सकें कि जनता उनके साथ है या नहीं. उनके साथ कई और नेता भी टीएमसी से बीजेपी में शामिल हुए लेकिन उनका क़द सबसे ऊंचा था.
लेकिन ये कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई है. विश्वजीत भट्टाचार्य कहते हैं, "मेरे विचार में अभी कुछ और चीज़ें बदलने वाली हैं. सुवेंदु के तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर चले जाने जैसे और भी मामले सामने आ सकते हैं."
रजत रॉय के अनुसार सुवेंदु अधिकारी के बीजेपी में शामिल होने से पार्टी को झटका ज़रूर लगा है, लेकिन इसका चुनाव में असर दक्षिण बंगाल के कुछ इलाक़ों तक सीमित होगा, ख़ासतौर से उन इलाक़ों में जहाँ उनका प्रभाव है.
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