मधु लिमये: बिहार से चार बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले मराठी शख़्स

मधु लिमये

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    • Author, नामदेव अंजना
    • पदनाम, बीबीसी मराठी सर्विस

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर को है. सभी पार्टियों के बड़े नेता बिहार में रैलियां करने में जुटे हैं.

बिहार जीतना सभी दलों के लिए एक चुनौती बन गया है. लेकिन कभी इसी बिहार में पुणे के एक मराठी व्यक्ति ने छह बार चुनाव लड़ा था, और चार बार जीत कर संसद पहुंचा था, ये बात आश्चर्यचकित करती है, लेकिन सच है.

इस आदमी का नाम था - मधु लिमये.

लिमये जब संसद में होते थे, तो सत्तापक्ष को डर सताता रहता था कि कब उनपर तीखे सवालों की बौछार हो जाएगी. शतरंज के चैंपियन लिमये के सवाल साक्ष्य और सबूत के साथ किसी को भी फँसाने के लिए काफ़ी थे.

बिहार की राजनीति की बात महाराष्ट्र के इस नेता के ज़िक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती.

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चार बार सांसद रहे

मधु लिमये मूल रूप से पुणे के थे. एक मराठी व्यक्ति का बिहार से चार बार चुनाव जीतना अपने आप में अनोखा है.

राज्यसभा में ऐसे कई दूसरे नेता हुए हैं, लेकिन लोकसभा में ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं. लिमये का बचपन महाराष्ट्र में बीता, उनकी पूरी पढ़ाई भी वहीं से हुई, वो महाराष्ट्र की राजनीति में भी सक्रिय थे.

लिमये समाजवादी विचारधारा से आते थे और गोवा लिबरेशन जैसे अनेक आंदोलनों का भी हिस्सा बने थे.

लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने क़दम रखा तो चुनाव लड़ने के लिए बिहार ही चुना. पहली बार वो 1964 में मुंगेर से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे.

1964 में, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी बनी थी. मधु लिमये पहली बार यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा गए थे. इस जीत के बाद, वह यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी बने.

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1967 के चुनावों में, लिमये ने यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंगेर से जीत हासिल की. हालाँकि, बाद में वो पार्टी से अलग हो गए. 1973 में, लिमये ने बिहार के बांका से चुनाव जीता.

इस बीच आपातकाल की घोषणा कर दी गई. उस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, इंदिरा गांधी विरोधी अधिकांश दलों ने एक साथ आकर जनता दल का गठन किया. जयप्रकाश नारायण इसके प्रमुख बने थे.

लिमये ने 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर बांका से चुनाव लड़ा और फिर जीत हासिल की.

हालांकि 1971 में मुंगेर से और 1980 में बांका से लिमये चुनाव हार भी गए थे. 1980 के बाद से उनका राजनीतिक करियार ढलान की तरफ़ बढ़ने लगा और 1982 आते आते वो सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए.

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बिहार से कैसे जीते लिमये?

बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, "बिहार की राजनीति को दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए. मंडल आयोग से पहले का बिहार और मंडल आयोग के बाद का बिहार. जाति से ज़्यादा बिहार में समाजवादी विचारधारा की राजनीति थी. कर्पूरी ठाकुर इस राजनीति के आख़िरी नेता हैं."

मधु लिमये साठ और सत्तर के दशक में बिहार से लड़ रहे थे. ठाकुर कहते हैं, "समाजवादी विचारधारा राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण द्वारा बिहार की मिट्टी में निहित थी. मधु लिमये उसी दशक में बिहार से चुनाव लड़ रहे थे. इसलिए, विचारधारा जाति से अधिक महत्वपूर्ण थी और इसका उन्हें फ़ायदा मिला."

वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के मधु लिमये के साथ पारिवारिक रिश्ते थे. बीबीसी मराठी से बात करते हुए, वैदिक ने बताया, "साठ और सत्तर के दशक में, अधिकांश राजनीतिक नेताओं में 'राष्ट्रीय आकर्षण' था, मधु लिमये को राष्ट्रीय नेता माना जाता था."

यह पूछने पर कि क्या मधु लिमये जैसा महाराष्ट्र का कोई नेता आज बिहार से जीत सकता है, मणिकांत ठाकुर ने हँसते हुए कहा, "वो विचारधारा का दौर था, लोग विचारधारा और मुद्दों पर वोट देते थे, क्या अब ये होता है?"

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इमानदारी की मिसाल थे लिमये

मधु लिमये ने महाराष्ट्र से भी चुनाव लड़ा था. संयुक्त महाराष्ट्र के गठन से पहले, उन्होंने 1957 में मुंबई में बांद्रा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था लेकिन वो वहां हार गए थे.

गोवा की मुक्ति और लोगों के जोड़ने के लिए उनके किए आंदोलन के कारण लोग उनकी ओर आकर्षित हुए थे. बावजूद इसके वो चुनाव नहीं जीत पाए थे.

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वेद प्रताप वैदिक बताते हैं, "एक बार मैं उनके घर में अकेला था. डाकिए ने घंटी बजाकर कहा कि उनका 1000 रुपए का मनीऑर्डर आया है. मैंने दस्तख़त करके वो रुपए ले लिए. शाम को जब वो आए तो वो रुपए मैंने उन्हें दिए. पूछने लगे कि ये कहाँ से आए. मैंने उन्हें मनीऑर्डर की रसीद दिखा दी. पता ये चला कि संसद में मधु लिमये ने चावल के आयात के सिलसिले में जो सवाल किया था उससे एक बड़े भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ था और उसके कारण एक व्यापारी को बहुत लाभ हुआ था और उसने ही कृतज्ञतावश वो रुपए मधुजी को भिजवाए थे."

मधु लिमये को ग़ुस्सा आया, उन्होंने वैदिक से कहा, "क्या आप कुछ व्यापारियों के लिए दलाल हैं? इस पैसे को उस व्यापारी को वापस भेज दें."

वेद प्रताप वैदिक अगले दिन पोस्ट ऑफ़िस गए और व्यापारी को पैसे लौटा दिए. मधु लिमये के सहयोगी रघु ठाकुर ने बीबीसी हिंदी से बात करते हुए उनसे जुड़ा एक क़िस्सा बताया.

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सांसद नहीं रहे तो तुरंत घर ख़ाली कर दिया

रघु ठाकुर बताते हैं, "वो कभी-कभी हमारे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर जाया करते थे. इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका संसद में पाँच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर ख़ाली कर दो."

"चंपाजी की भी उनमें कितनी निष्ठा थी कि वो मुंबई से दिल्ली पहुँची और वहाँ उन्होंने मकान से सामान निकाल कर सड़क पर रख दिया. उनको ये नहीं पता था कि अब कहाँ जाएं. एक पत्रकार मित्र जो समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे, वहाँ से गुज़र रहे थे, उन्होंने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? जब उन्होंने सारी बात बताई तो वो उन्हें अपने घर ले गए."

रघु ठाकुर कहते हैं, "न केवल उन्होंने अपने जीवनकाल में पेंशन ली, बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी से भी कहा कि वह उनकी मौत के बाद भी पेंशन न लें."

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