अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सरकार ज़्यादा पैसा खर्च करना शुरू करेः आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव

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- Author, निधि राय
- पदनाम, बिज़नेस रिपोर्टर, मुंबई
भारतीय अर्थव्यवस्था को 5-6% की वृद्धि दर पर लौटने में 3 से 5 साल का वक़्त लगेगा. ये कहना है भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. डी. सुब्बाराव का. उन्होंने बीबीसी को ईमेल के ज़रिए दिए एक इंटरव्यू में ये कहा. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ये वृद्धि दर भी तब ही मुमकिन है जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में क्या-क्या चुनौतियां होंगी और उनके क्या समाधान हो सकते हैं, उन्होंने विस्तार से बताया.

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बड़ी चुनौतियां कौन सी हैं?
डॉ सुब्बाराव कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती है लोगों की नौकरियां जाने से बचाना और फिर से विकास शुरू करना.
वो कहते हैं, "महामारी अब भी बढ़ रही है, ऐसे में अभी भी कई ख़तरे हैं. कहा नहीं जा सकता कि महामारी के प्रकोप में कब और कैसे कमी आ सकती है. इसलिए अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के पैमाने और जटिलताओं का बहुत ज़्यादा अंदाज़ा लगाना संभव नहीं है."
डॉक्टर सुब्बाराव ने कहा कि निस्संदेह मनरेगा अभी लाइफ़लाइन बना है लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता.
वे कहते हैं, "अस्थायी राहत के तौर पर विस्तारित महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार अधिनियम (मनरेगा) एक जीवन रेखा बन गया, लेकिन यह एक स्थायी समाधान नहीं हो सकता है."
डॉ. सुब्बाराव ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि महामारी से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती की स्थिति में थी. विकास दर एक दशक में सबसे कम - लगभग 4.1% पर थी, राजकोषीय घाटा (सरकार की कुल आय और व्यय के बीच का अंतर) अधिक था और वित्तीय क्षेत्र ख़राब ऋण की समस्या से जूझ रहा था.

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वो कहते हैं कि महामारी का प्रभाव कम होने के बाद ये समस्याएं और बड़ी हो जाएंगी. "वापसी की हमारी संभावनाएं इस बात पर निर्भर करेंगी कि हम इन चुनौतियों का कितने प्रभावी तरीक़े से समाधान निकालते हैं."
जब उनसे पूछा गया कि उन्हें क्या लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के प्रभाव से कब तक बाहर आएगी और कब वापसी करेगी? तो डॉ सुब्बाराव ने कहा, "अगर आपका मतलब है कि अर्थव्यवस्था में सकारात्मक वृद्धि कब से होने लगेगी तो ये अगले साल से संभव है, लेकिन इस साल के नकारात्मक आंकड़े को देखते हुए यह भी कह सकते हैं कि ये सकारात्मक वृद्धि बहुत ज़्यादा नहीं होगी."
इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों में लगभग एक चौथाई की गिरावट आई और कई अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि पूरे साल की ग्रोथ निगेटिव डबल डिजिट में रह सकती है.
"अगर आपका मतलब है कि वृद्धि दर में लंबे वक्त तक टिकने वाला 5-6% तक का सुधार कब आएगा, तो इसमें 3-5 साल लगेंगे और वो भी तब होगा जब सही तैयारी के साथ सही तरीक़े से सब कुछ किया जाएगा."

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समाधानः अर्थव्यवस्था बेहतरी की ओर कैसे बढ़े?
वरिष्ठ अर्थशास्त्री डॉ सुब्बाराव का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के पक्ष में कुछ सकारात्मक चीज़ें हैं और उस पर ही और काम किए जाने की ज़रूरत है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने शहरी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले बेहतर तरीक़े से रिकवर किया है. वो कहते हैं, "जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तो मनरेगा के विस्तार की योजना ने एक लाइफलाइन दी, और महिलाओं, पेंशनभोगियों और किसानों के खातों में तुरंत पैसे डाले गए जिससे उनके हाथ में पैसे आए और फिर से मांग पैदा करने में मदद मिली."
"हाल में कृषि क्षेत्र में किए गए कई सुधार हालात बेहतर करने की दिशा में अच्छी शुरुआत है."
भारत का कंजम्पशन बेस भी देश के लिए एक बड़ी सकारात्मक चीज़ है. देश के 1.35 अरब लोग प्रोडक्शन को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.
डॉ. सुब्बाराव कहते हैं कि अगर उन लोगों के हाथ में पैसा दिया जाता है तो वो खर्च करेंगे जिससे आख़िरकार खपत ही बढ़ेगी. लेकिन ये लक्ष्य हासिल करने के लिए "मज़बूत नीतियों और उनको दृढ़ निश्चय के साथ लागू करने की ज़रूरत होगी."

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भारतीय केंद्रीय बैंक में पद संभालने से पहले वित्तीय सचिव रह चुके डी सुब्बाराव इस आम राय से सहमति जताते हैं कि मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार को पैसा खर्च करना शुरू करना चाहिए. निजी खपत, निवेश और शुद्ध निर्यात ग्रोथ के अन्य फैक्टर हैं, लेकिन फिलहाल ये सभी मुश्किल दौर में हैं.
साथ ही वो कहते हैं, "अगर सरकार इस वक़्त ज़्यादा खर्च करना शुरू नहीं करती है, तो ख़राब ऋण (बैड लोन) जैसी तमाम समस्याओं से निपटना और मुश्किल हो जाएगा और अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता होती जाएगी."
हालांकि वो चेतावनी देते हैं कि "सरकारी उधार की सीमा निर्धारित करना बहुत ज़रूरी होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि इसकी कोई सीमा ही ना हो."

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सरकार के लिए चार सूत्रीय कार्ययोजना
उन्होंने उन प्रमुख क्षेत्रों का ज़िक्र किया जिन पर उनके मुताबिक़ सरकार को फोकस करना चाहिए.
उनके मुताबिक़ सबसे पहले, आजीविका की रक्षा करनी होगी और ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीक़ा मनरेगा का विस्तार करना है जो सेल्फ-टार्गेटिंग है.
दूसरा है, सरकार को रोज़गार बचाने और बैड लोन को बढ़ने से रोकने के लिए संकटग्रस्त उत्पादन इकाइयों की मदद करनी चाहिए.
तीसरा, सरकार को बुनियादी ढांचे के निर्माण पर खर्च करना चाहिए जो संपत्ति के साथ-साथ नौकरियों का निर्माण करेगा.
अंत में, सरकार को बैंकों में अतिरिक्त पूंजी डालनी होगी ताकि क्रेडिट फ़्लो को बढ़ाया जा सके.
इस पहेली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है नौकरियां पैदा करना. महामारी शुरू होने से पहले भी नौकरियों का सृजन एक बड़ी चुनौती थी.
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रिसर्च फर्म, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक़, अगस्त में भारत की बेरोज़गारी दर नौ सप्ताह के उच्चतम स्तर यानी लगभग 9.1% पर थी.
"ज़रूरत है कि अर्थव्यवस्था एक महीने में 10 लाख नौकरियां पैदा करे; हम इसकी आधी भी पैदा नहीं कर रहे. बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार इसी वादे के साथ जीतकर आए थे कि वो "20 की उम्र वाले उन लोगों की ज़िंदगी बदल देंगे जो नए रोज़गार की तलाश कर रहे हैं. इस वादे का पूरा नहीं होना उनकी एक नाकामी मानी जानी चाहिए."
महामारी और फिर इसकी वजह से लगे लॉकडाउन ने नौकरियों के सृजन को कई गुनी बड़ी चुनौती दी है.
ये पूछे जाने पर कि नौकरियां आएंगी कहां से? डॉक्टर सुब्बाराव कहते हैं, "नौकरियों के सृजन के लिए भारत को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर (विनिर्माण क्षेत्र) पर निर्भर होना पड़ेगा. इसीलिए, मेक इन इंडिया, मेक फॉर इंडिया और मेक फॉर द वर्ल्ड ये सभी महत्वपूर्ण नीतिगत उद्देश्य हैं."
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