बिहार चुनावः ट्रस्ट कैपिटल के मामले में कहाँ हैं नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव- नज़रिया

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- Author, बद्रीनारायण
- पदनाम, समाजशास्त्री, बीबीसी हिंदी के लिए
भारतीय जनतांत्रिक चुनावों में हुए सत्ता परिवर्तनों की प्रक्रिया के पैटर्न की अगर व्याख्या करें, तो दो बातें दिखाई पड़ती है. एक तो विकल्प का होना या न होना और दूसरा, विश्वास की पूँजी, जिसे अक्सर राजनीतिक विमर्शों में 'ट्रस्ट कैपिटल' कहा जाता है.
इसका होना या न होना- ये दो ऐसे तत्व हैं, जो पिछले कई वर्षों से मुखर होकर भारतीय जनतांत्रिक चुनावों में सत्ता परिवर्तन की दिशा तय करते रहे हैं.
बिहार में विधान सभा चुनाव आने वाले समय में होना है और ऐसा लग रहा है कि बिहार के इस विधान सभा चुनाव में सत्ता के परिवर्तन का होना या न होना 'विकल्प' और 'विश्वास की पूँजी' जैसे मुद्दे ही तय करने जा रहे हैं.
बिहार में अगर लोगों से बात करें, तो वर्तमान मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की शासन से कई जगह लोगों में ऊब दिखती है और कई जगह नाराज़गी भी. किंतु ऊब और नाराज़गी जाहिर करने के बाद लोग यह कहते हुए आसानी से सुने जा सकते हैं कि 'क्या करें, कोई बेहतर विकल्प भी तो नहीं है'.
इससे यह जाहिर होता है कि बिहार में मतदाताओं का एक वर्ग परिवर्तन तो चाहता है, लेकिन विकल्प के न होने की बेबसी और लाचारी भी व्यक्त करता है. यानी सत्ता परिवर्तन हो तो सकता है, अगर विपक्ष नीतीश कुमार जैसे नेता का बेहतर विकल्प प्रस्तुत कर दे.
अगर ऐसा नहीं हुआ तो परिवर्तन का भाव मन में और बातचीत में ही अभिव्यक्त हो असमय काल कवलित हो सकता है.
भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में 'विकल्प' का मतलब है कि 'जो अभी है, उससे बेहतर चाहिए'. यह बेहतर कैसे तय होता है? अभी जो सत्ता में है उससे ज़्यादा आस और विश्वास, जो सामने है और सत्ता में आने के लिए दस्तक दे रहा है, मतदाताओं में पैदा कर दे.
यहीं से 'विश्वास की पूँजी' का बनना शुरू होता है. किसी भी नेता के पक्ष में विश्वास एक दिन में नहीं पैदा हो जाता, बल्कि उसके लंबे समय के किए गए राजनीतिक काम, 'कथनी और करनी में एक' और 'चाल-चलन, चरित्र' की एकरूपता आदि से धीरे-धीरे बनना शुरू होता है.

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सत्ता में जो है, वह अपने उसी 'विश्वास की पूँजी' के कारण आता है और उसी के धीरे-धीरे हो रहे क्षरण से वह सत्ता से बाहर हो जाता है.
जो उसका स्थानापन्न होकर उभरता है, वह धीरे-धीरे अपने पक्ष में अपने लिए जनता के मन में विश्वास पैदा करता है. यह विश्वास बनने की प्रक्रिया धीरे-धीरे इकट्ठा होकर चुनाव में जनता को उसके तरफ गोलबंद करता है.
यह 'विश्वास की पूँजी' भारतीय जनतांत्रिक राजनीतिक में कभी-कभी अचानक, जादुई ढंग से विकसित हो जाती है. किंतु यह कुछ विशेष संदर्भ में उन नेताओं के साथ होता है जो अपना 'करिश्मा' विकसित कर लेते हैं.
बिहार के वर्तमान राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में ही कोई करिश्माई नेता नहीं है. एक हद तक और काफ़ी दिनों तक राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव को 'करिश्माई नेता' माना जाता रहा है. लालू यादव अभी जेल में होने के कारण चुनावी राजनीति में सक्रिय नहीं हैं.
लेकिन उनके कपड़े पर दाग लगा और धीरे-धीरे उनके करिश्मे का क्षरण होता गया. उनके दोनों पुत्रों तेजस्वी यादव जो अभी राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व कर रहे हैं और दूसरे बेटे तेज प्रताप यादव में वह करिश्मा अभी तक तो नहीं दिखा है.
जनता दल यूनाइटेड के नेता और बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कभी भी करिश्माई नेता नहीं रहे, उनका असर धीरे-धीरे हुआ लेकिन हुआ तो लंबे समय तक के लिए हुआ. यह इसलिए हुआ कि उन्होंने अपने लिए 'विश्वास की पूँजी' निर्मित की है. सुशील मोदी और नीतीश कुमार के आपसी गठजोड़ का फ़ायदा भी दोनों को मिलता रहा है.
बिहार के आगामी विधान सभा चुनाव में इन दोनों का इकट्ठा होना प्रतिपक्ष के लिए एक कठिन चुनौती तो है ही, साथ ही तेजस्वी यादव को जनता के मन में अपने को नीतीश कुमार के एक बेहतर विकल्प के रूप में बैठाना अभी शेष है. उन्हें अपने लिए एक प्रभावी 'विश्वास की पूँजी' भी निर्मित करना होगा.

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अभी नीतीश कुमार के पास इकट्ठी 'विश्वास की पूँजी' का क्षरण तो महसूस किया जा रहा है, लेकिन तेजस्वी यादव के लिए उनके प्रति विश्वास की पूँजी का प्रभावी होकर आना बाक़ी है. जनता के एक वर्ग में राष्ट्रीय जनता दल के लिए गोलबंदी तो है, लेकिन तेजस्वी यादव के नेतृत्व में जनता के एक बड़े वर्ग के मन में एक सकर्मक विश्वास का उदय होना अभी बाक़ी है.
जातियों की गोलबंदी, सोशल इंजीनियरिंग, विकास के सपने तो बिहार की जनता के मन में उनका राजनीतिक पक्ष तय करने के लिए काम तो कर ही रहे हैं, लेकिन बिहार विधान सभा आगामी चुनाव में 'विकल्प का प्रतीक' और विश्वास की पूँजी- ये दो तत्व सत्ता परिवर्तन का भविष्य तय करेंगे.
यह दो तत्व उस जादुई बटुए की तरह हैं, जिनमें रख कर जाति, धर्म, सामाजिक न्याय' के प्रभावों को बढ़ा कर विजय दिलाने वाला समर्थन पैदा किया जा सकता है.
उत्तरी बिहार के एक युवा ने बातचीत में बताया कि तेजस्वी मेहनत तो कर रहे हैं, लेकिन उनके प्रति जनता के बड़े वर्ग में अभी भी संशय है.
हो सकता है कि आने वाले दिनों में यह संशय धीरे-धीरे कम हो जाए और तेजस्वी एक विकल्प के रूप में जनता के सामने आ सके.
यह आने वाले दिनों के चुनाव अभियानों से तय होगा. अभी तो जनता के एक बड़े वर्ग के मन की बातें उनके मन में ही हैं. लेकिन उनकी बातचीत में कभी-कभी इसकी आभा दिखाई पड़ती है.
(लेखक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट में निदेशक हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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