चंद्रप्रभा सैकियानी: असम से पर्दा प्रथा हटाने में अहम भूमिका निभाने वाली महिला

    • Author, सुशीला सिंह
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

साल 1925 था. असम के नौगांव में असम साहित्य सभा की बैठक हो रही थी. इस बैठक में महिलाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने पर चर्चा की जा रही थी और लड़कियों में शिक्षा के विस्तार पर ज़ोर दिया जा रहा था.

इस बैठक में पुरुष और महिलाएं दोनों मौजूद थे. लेकिन महिलाएं पुरुषों से अलग बांस से बने पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं.

चंद्रप्रभा सैकियानी मंच पर चढ़ीं और माइक पर शेर सी गरजती आवाज़ में कहा -''तुम पर्दे के पीछे क्यों बैठी हो ''और महिलाओं को आगे आने को कहा.

उनकी इस बात से इस सभा में शामिल महिलाएं इतनी प्रेरित हुईं कि वे पुरुषों को अलग करने वाली उस बांस की दीवार को तोड़कर उनके साथ आकर बैठ गईं.

चंद्रप्रभा की इस पहल को असम के समाज में उस समय प्रचलन में रही पर्दा प्रथा को हटाने के लिए अहम माना जाता है.

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13 साल की उम्र में खोला था स्कूल

असम की रहने वाली इस तेज़तर्रार महिला का जन्म 16 मार्च वर्ष 1901 में कामरूप ज़िले के दोइसिंगारी गांव में हुआ.

उनके पिता रतिराम मजुमदार गांव के मुखिया थे और उन्होंने अपनी बेटी की पढ़ाई पर काफ़ी ज़ोर दिया.

चंद्रप्रभा ने न केवल अपनी पढ़ाई की बल्कि अपने गांव में पढ़ने वाली लड़कियों पर भी ध्यान दिया .

उनके पोते अंतनु सैकिया जो एक पत्रकार भी हैं, कहते हैं, "जब वे 13 साल की थीं तो उन्होंने अपने गांव की लड़कियों के लिए प्राइमरी स्कूल खोला. वहां इस 13 साल की शिक्षिका को देखकर स्कूल इंसपेक्टर प्रभावित हुए और उन्होंने चंद्रप्रभा सैकियानी को नौगांव मिशन स्कूल का वज़ीफ़ा दिलवाया. लड़कियों के साथ शिक्षा के स्तर पर हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ भी उन्होंने अपनी आवाज़ को नौगांव मिशन स्कूल में ज़ोर शोर से रखा और वो ऐसा करने वाली पहली लड़की मानी जाती हैं.''

उन्होंने 1920-21 में किरोनमॉयी अग्रवाल की मदद से तेज़पुर में महिला समिति का गठन किया.

चंद्रप्रभा पर उपन्यास लिखने वाली निरुपमा बॉरगोहाई बताती हैं कि चंद्रप्रभा और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने 'बस्त्र यजना' यानि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करने को लेकर मुहिम चलाई और वस्त्रों को जलाया जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं ने भी भाग लिया. इस समय महात्मा गांधी तेज़पुर आए हुए थे.

निरुपमा बॉरगोहाई के उपन्यास 'अभिजात्री' को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था.

वे बताती हैं कि पिछड़ी जाति से आने वाली चंद्रप्रभा सैकियानी की शादी बहुत ही कम उम्र में एक उम्रदराज़ आदमी के साथ कर दी गई थी और उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

लेखिका निरुपमा बॉरगोहाई कहती हैं कि वे काफ़ी हिम्मत वाली महिला थीं. वे जब शिक्षिका थीं तभी वे एक अलग रिश्ते में रहते हुए अन्बयाही मां बनीं. लेकिन ये रिश्ता सफल नहीं रहा और उन्होंने इस रिश्ते से पैदा हुए बेटे को अपने पास ही रखने का फ़ैसला लिया और उसे ख़ुद पाला.

स्वतंत्रता आंदोलन में लिया भाग

चंद्रप्रभा सैकियानी ने न केवल लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया बल्कि उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और स्वतंत्रता आंदोलन को उन तक पहुंचाने के लिए पूरे राज्यभर में साइकल से यात्रा की और वो ऐसा करने वालीं राज्य की पहली महिला मानी जाती हैं.

उनके पोते अंतनु बताते हैं, ''गांव में अनुसूचित जाति के लोगों को तालाब से पानी लेने की अनुमति नहीं दी जाती थी लेकिन चंद्रप्रभा सैकियानी ने इसके ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाई , लड़ाई लड़ी और लोगों को उनका हक़ दिलवाया. उन्हीं की कोशिश से लोगों को तालाब से पानी लेने का अधिकार मिल पाया. उन्होंने मंदिर में पिछड़ी जातियों के प्रवेश को लेकर भी आंदोलन किया लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाई.''

सन् 1930 में उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया और जेल भी गईं और सन् 1947 तक वे कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर काम करती रहीं.

उन्हें अपने काम के लिए सन् 1972 में पद्मश्री से नवाज़ा गया.

(स्टोरी में शामिल सभी इलेस्ट्रेशन गोपाल शून्य ने बनाए हैं.)

बीबीसी हिंदी दस ऐसी महिलाओं की कहानी ला रहा है जिन्होंने लोकतंत्र की नींव मज़बूत की. उन्होंने महिलाओं के अधिकारों को अपनी आवाज़ दी. वे समाज सुधारक थीं और कई महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने वाली वे पहली महिला बनीं. आपने अभी तीसरी कड़ी पढ़ी, पिछली दो कड़ियां पढ़ें-

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