बिहार बाढ़: 'जो पार्टी बाढ़ में हमारी सुध नहीं ले रही, हम उसे वोट क्यों दें?'

- Author, प्रियंका दुबे
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, बिहार के दरभंगा से
बिहार डायरी का तीसरा पन्ना
जगह - दरभंगा स्थित दरभंगा-मुज़फ़्फ़रपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 57
दरभंगा-मुज़फ़्फ़रपुर राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 57 यानी एनएच 57 पर दरभंगा जिले की ओर आगे बढ़ते हुए जो पहला नज़ारा दिखा, उसने मुझे भीतर तक हिला दिया था.
कुछ स्थानीय बाढ़ पीड़ित हाईवे के किनारे ही एक मृतक का दाह संस्कार कर रहे थे.

मैंने 'शांतिपूर्ण परिस्थितियों' में पहली बार हाईवे के किनारे किसी लाश का अंतिम संस्कार होते हुए देखा था. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या दरभंगा से गुज़रते इस एनएच 57 पर अभी वाक़ई परिस्थितियां 'शांतिपूर्ण' हैं? क्या सिर्फ़ दंगा-फ़साद या हिंसा को ही अशांतिपूर्ण परिस्थिति माना जा सकता है? क्या अहिंसक रूप से सड़क पर सोने को मजबूर बिहार के बाढ़ पीड़ित परिवारों का दुःख हमारे दिलों में फैलने वाली एक सामूहिक अशांति का कारण नहीं होना चाहिए?
इन्हीं सवालों से जूझते हुए मैं एनएच 57 के उस हिस्से पर पहुँची जहां दरभंगा जिले के सिंहवाड़ा ब्लॉक के कुमारपट्टी गाँव के लोग पन्नी की तिरपालों में दिन गुज़ार रहे हैं.

हाईवे या सैलाब के बीच कोई पुल?
हाईवे पर रह रहे कुमारपट्टी गाँव के इन बाढ़ पीड़ितों तक पहुंचने के लिए एनएच 57 बूढ़ी गंडक, बागमती और अधवारा समूह की नदियों की कई धाराओं से होती हुई आगे बढ़ती है.
सड़क के दोनों ओर मुझे पानी में डूबे खेत, खलिहान, पक्के मकान, झोपड़ियाँ और बिजली के खंभे नज़र आते हैं. कहीं सामने फैले पानी के अनंत विस्तार में डूबे पेड़ों की ऊपर का कुछ टहनियाँ नज़र आती हैं तो कहीं पानी में बहते मरे हुए मवेशी.
उफनती हुई बूढ़ी गंडक, बागमती और अधवारा की धाराओं ने जैसे पूरे इलाक़े में पानी का एक जाल बिछाया हुआ है. बीच-बीच में एनएच 57 पर आगे बढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम किसी बड़े दरिया के बीच से गुज़र रहे हैं.
दरभंगा जिले में प्रवेश करते ही हमें काली-सफ़ेद तिरपालों में अपनी अस्थायी छत बनाकर रह रहे ग्रामीणों की कतार नज़र आना शुरू हो जाती है. फिर जैसे हाईवे आगे बढ़ता है, कहीं कम तो कहीं ज़्यादा - सड़क पर नागरिकों के अस्थायी बसेरे आंखों के सामने से गुज़रते चले जाते हैं.

कुछ देर बाद गाड़ी रोक कर जब मैं सड़क पार कर कुमारपट्टी गाँव के निवासियों से बात करने के लिए आगे बढ़ती हूँ तो हाईवे के डिवाइडर पर रखे एक मिट्टी के चूल्हे पर नज़र जाती हैं.
अक्सर गांव के घरों में पाया जाने वाला यह लिपा-पुता कच्चा चूल्हा बीच हाईवे पर कुछ ऐसे पड़ा था जैसे अपने अस्तित्व के ज़रिए वो यहां के आम जीवन के सड़क पर आ जाने जाने की निर्मम घोषणा कर रहा हो.
डिवाइडर पार करने पर सड़क के उस पार हमारी मुलाक़ात होती है राम भजन साहू और उनकी पत्नी सावित्री देवी से. लाठी लेकर अपनी तिरपाल से बनी झोपड़ी के सामने बैठे राम भजन के घर में बीस दिनों से पानी भरा हुआ है.
पूछने पर काफ़ी देर सोच में डूबे हुए से ख़ामोश रहते हैं. लेकिन पत्नी सावित्री अपनी व्यथा नहीं छिपा नहीं पातीं. "हमारे घर में कमर तक पानी भरा हुआ है. कहाँ रहेंगे? जब कोई चारा नहीं बचा तो अंत में यहां सड़क पर आकर रहना पड़ा. सरकार से हमें तिरपाल तक नहीं मिला. अपने पैसों से तिरपाल ख़रीदना पड़ा. घर ढह गया है, काम काज बंद हो गया है. न रोग़ज़ार है न पैसा...".

सड़क पर जानवरों-सा जीवन
पास ही खड़े युवाओं से पता चला कि पिछली रात एक बस अचानक अपना नियंत्रण खोकर हाईवे पर सो रहे ग्रामीणों से टकराते हुए आगे गुज़ार गई थी. संतलाल कुमार नामक एक 14 वर्षीय लकड़े को घुटने पर चोट भी आई लेकिन ख़ुशकिस्मती से सभी सो रहे ग्रामीणों की जान बच गयी.
कुमारपट्टी गांव के निवासी प्रदीप महतो बताते हैं, "कुत्ते जैसी ज़िंदगी हो गयी है यहां सड़क पर. जैसे कुत्ते होते हैं न - हर आहट पर जाग जाते हैं... उसी तरह हम भी हर आहट पर जाग जाते हैं. यह ये कहना ज़्यादा सही होगा कि हम सोते ही नहीं है. एक आदमी सड़क पर पहरा देता है तो बाक़ी जनों की थोड़ी आंख लगती है."
"वैसे अगर कल की तरह कोई बस या ट्रक बीच रात धड़धड़ाता हुआ हमें कुचल भी जाता है तो पहरा देने वाल व्यक्ति क्या कर पाएगा? उसे भी चोट लगेगी और हम भी मारे जाएँगे. यह सब सड़क पर रहने के ख़तरे हैं ही जिन्हें हमें रोज़ झेलना पड़ता है".
सामुदायिक रसोई की ख़राब हालत
कुमारपट्टी गाँव के निवासियों को 6 हज़ार रुपए की क्षतिपूर्ति राशि के साथ साथ तिरपाल और चूड़े जैसे दूसरी सरकारी सहायताएँ भी नहीं मिली हैं. लेकिन सरकार की ओर से कुमारपट्टी गाँव के ही सरकारी स्कूल में उनके लिए सामुदयिक रसोई की व्यवस्था की गई है जहां 25 जुलाई से सभी बाढ़ पीड़ितों के लिए दो वक़्त का खाना बनाया जाता है.
स्कूल के टीचर विनय कुमार को इस सामुदायिक रसोई के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी दी गई है. शाम 6 बजे से बाढ़ पीड़ितों को खाने में पतली-सी खिचड़ी और आलू का चोखा दिया जा रहा था. लेकिन दलदलनुमा कीचड़ के बीच चल रही यह रसोई बहुत ख़राब हालत में थी. चारों तरफ़ गंदगी फैली हुई थी और खाना वितरित करने वाले 3 में से 2 रसोई कर्मचारियों ने मास्क नहीं लगाया था.

कोरोना और बाढ़ की दोहरी मार : सड़क पर गाड़ियों से नहीं बच सकते तो कोरोना से कैसे बचेंगे?
कोरोना से हुए नुक़सान का ज़िक्र होते ही सुमना देवी जैसे बिफर पड़ती हैं.
ग़ुस्से से कहती हैं, "एक तो कोरोना पहले ही हम ग़रीबों की जान मारने आ गया था. तीन महीनों से लड़के बच्चे सब घर पर बैठे हैं. किसी के पास न रोज़गार और न ही पैसा. ऊपर से अब यह बाढ़. पूर घर पानी में ढह गया है हमारा."
"अभी तक कोई नेता मुँह दिखाने नहीं आया है. और कोरोना के बारे में क्या पूछ रही हैं? जब सड़क पर रहने को मजबूर हैं और तेज़ी से गुज़रती गाड़ियों से ही नहीं बच सकते तो यहां इतने खुले में कोरोना से कैसे बचेंगे?"

हम मन में दबाए बैठे हैं, जो बाढ़ में हमारी मदद करेगा, उसी को वोट देंगे
राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों का ज़िक्र होते ही कुमारपट्टी के सभी बाढ़ पीड़ित आक्रोश और दुःख से भर जाते हैं. ग़ुस्से में स्थानीय निवासी रामप्रीत राम की आंखों में पानी तैर जाता है.
वो कहते हैं, "बीस दिन से यहां मुसीबत में पड़े हैं और कोई नेता झांकने नहीं आया है. घर में कमर से ऊपर बाढ़ का पानी भरा हुआ है. कोरना की वजह से रोज़गार नहीं है. ज़िंदगी का ठिकाना नहीं है कि आज रात ज़िंदा हैं तो कल भी रहेंगे या नहीं. डर लगा रहता हैं कि रात में सड़क पर सोते हुए कोई गाड़ी कुचल के न चली जाए और हम नींद में ही न मर जाएँ. जो नेता हमारे इतने मुश्किल वक़्त में हमारी मदद को नहीं आए, उन्हें क्यों वोट देंगे हम?"
राम प्रीत की बातों में वह रूखापन और दुःख है जो सड़क कि मुश्किल ज़िंदगी अक्सर आपको तोहफ़े में देती हैं. बिहार के बाढ़ पीड़ितों के दिल की किसी खोई हुई आवाज़ की तरह वह आगे कहते हैं, "हम अभी नहीं बताएंगे कि हम किसे वोट देंगे. हम देखेंगे की बाढ़ में किसने हमारा साथ दिया और किसने नहीं. फिर सोचेंगे और उसी को वोट देंगे जो नेता हमारे लिए खड़ा होगा".
शाम ढल चुकी है और एनएच 57 पर तेज़ी से भागते ट्रकों की आवाज़ों के बीच बिहार डायरी का यह पन्ना भी यहीं ख़त्म होता है.
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