विकास दुबे प्रकरण से तेज़ हुई एनकाउंटर, जाति और राजनीति की बहस

    • Author, समीरात्मज मिश्र
    • पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए

कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या और इस हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त विकास दुबे और उनके पांच साथियों के कथित एनकाउंटरों में मारे जाने की जांच के लिए सरकार ने एसआईटी और न्यायिक आयोग का गठन भले ही कर दिया है लेकिन मामला जातिगत राजनीति की रंगत पकड़ता जा रहा है.

मध्य प्रदेश के उज्जैन में विकास दुबे के आत्मसमर्पण और फिर अगले ही दिन कथित एनकाउंटर में हुई मौत के बाद न सिर्फ़ इस एनकाउंटर के तरीक़े, इसकी ज़रूरत और इसकी सच्चाई पर सवाल उठ रहे हैं बल्कि इस घटना के साथ विकास दुबे के पांच सहयोगियों की 'एनकाउंटर' में मौत को भी जातीय कोण से देखने की कोशिश हो रही है.

सोशल मीडिया पर इस घटना के बाद से ही राज्य सरकार को 'ब्राह्मण विरोधी' सरकार बताने की मुहिम छिड़ गई तो राजनीतिक दलों ने भी इस नाराज़गी को भुनाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी.

राजनीतिक दलों के बयान

समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस सभी ने इस मामले में सरकार की खिंचाई की और ब्राह्मण समाज से हमदर्दी जताने की कोशिश की. सोशल मीडिया पर न सिर्फ़ इस घटना का बल्कि पिछले तीन साल में ब्राह्मणों की हत्या के आंकड़े पेश करके सरकार को उसकी ज़िम्मेदार बताने की कोशिश हो रही है.

इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें और वीडियो शेयर किए जाने लगे जिसमें कोई ब्राह्मण व्यक्ति अपनी छत पर लगे भारतीय जनता पार्टी के झंडे को बेहद ग़ुस्से में फाड़ रहा है तो कोई युवक अपनी गाड़ी में लगे झंडे को निकाल कर फेंक रहा है और बीजेपी को कभी वोट न देने की क़सम खा रहा है.

यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी इस नाराज़गी की गंभीरता से चर्चा हो रही है और इस पूरे प्रकरण की पहले एसआईटी और फिर न्यायिक आयोग से जांच के आदेश के पीछे इसी दबाव को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है.

हालांकि भारतीय जनता पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी इससे बेफ़िक्र दिखते हैं और उनकी नज़र में इसका कोई राजनीतिक लाभ किसी को नहीं मिलने वाला है. बीबीसी से बातचीत में वाजपेयी कहते हैं, "अपराधी की कोई जाति नहीं होती है. अपराधी के साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए जैसा कि हुआ है. शठे-शाठ्यं समाचरेत की शिक्षा दी गई है हमारे धर्मग्रंथों में. जो लोग इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है. ब्राह्मण समाज बीजेपी के साथ आज भी वैसे ही चट्टान की तरह खड़ा है, जैसे कि पहले खड़ा था."

दरअसल, विकास दुबे प्रकरण में आलोचना के मूल में विकास दुबे और उनका अपराध नहीं बल्कि विकास दुबे के साथ संबंध रखने के आरोप में जो दूसरे एनकाउंटर हुए हैं, वो हैं. इन सभी एनकाउंटर्स पर न सिर्फ़ सवाल उठ रहे हैं बल्कि जिनके एनकाउंटर किए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर के ख़िलाफ़ पुलिस में कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है. यही नहीं, बारह साल के एक बच्चे की घुटनों के बल हाथ उठाकर खड़े होने की जो तस्वीरें आई हैं, उसने लोगों का ग़ुस्सा और बढ़ा दिया है.

जाति पर चर्चा

प्रयागराज में रहने वाले एक युवक संतोष शुक्ल एक इंटर कॉलेज में अध्यापक हैं. वो कहते हैं, "विकास दुबे अपराधी था, उसे मारने का न तो किसी ने विरोध किया और न ही किसी को अफ़सोस है. लेकिन जब उसने सरेंडर कर दिया था तो उसे न्यायिक प्रक्रिया से गुज़रने का मौक़ा तो देना ही चाहिए था. और उसे कोई मौक़ा न भी देते तो कोई बात नहीं. लेकिन छोटे बच्चों, महिलाओं और गांव के पांच अन्य ब्राह्मणों के एनकाउंटर का क्या औचित्य है?"

संतोष शुक्ल कहते हैं कि वो भारतीय जनता पार्टी के बचपन से ही समर्थक रहे हैं लेकिन इन तीन सालों में सरकार की कार्यप्रणाली से उन्हें काफ़ी मायूसी मिली है. संतोष शुक्ल यह बात कहने वाले अकेले नहीं हैं.

राजनीतिक दलों में इस नाराज़गी को भुनाने की कोशिश भी हो रही है. कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद ने बाक़ायदा ब्राह्मण चेतना परिषद नामक संस्था का गठन करके ब्राह्मणों के हित में आवाज़ उठाने का संकल्प कर लिया है. बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने राज्य सरकार से कोई ऐसा क़दम न उठाने की अपील की है जिससे कि ब्राह्मण समाज के लोग ख़ुद को भयभीत महसूस करें. जितिन प्रसाद ने मायावती के इस ट्वीट का "सम्मान करते हुए" उन्हें धन्यवाद दिया.

जितिन प्रसाद ब्राह्मणों की हत्याओं की एक सूची ट्वीट करते हुए सवाल पूछते हैं कि 'उत्तर प्रदेश में इतनी ब्राह्मण हत्याओं का दोषी कौन'. हालांकि जितिन प्रसाद कहते हैं कि ब्राह्मण चेतना परिषद लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए है, इसे विकास दुबे या किसी दूसरे अपराधी के साथ न जोड़ा जाए.

ठाकुर बनाम ब्राह्मण

लेकिन बीजेपी से कांग्रेस में आए पूर्व सांसद डॉक्टर उदित राज ने अपने ट्विटर हैंडल पर यह लिखकर इस बहस को एक क़दम और आगे बढ़ा दिया कि यदि विकास दुबे की जगह कोई ठाकुर होता तो क्या ऐसा ही व्यवहार होता?

यही नहीं, कांग्रेस नेता प्रमोद कृष्णन तो इस मामले में राज्य सरकार पर काफ़ी हमलावर हैं और उन्होंने सीधे तौर पर राज्य सरकार को 'ब्राह्मणों की हत्या करने वाली सरकार' कह दिया.

बीजेपी नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी भले ही इस बात से इनकार कर रहे हों कि ब्राह्मणों में इस बात को लेकर कोई नाराज़गी है लेकिन बीजेपी के अंदर भी इस बात को लेकर न सिर्फ़ चर्चाएं हो रही हैं बल्कि चिंता भी जताई जा रही है.

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर कहते हैं कि विकास दुबे के मारे जाने से और ख़ासकर मारे जाने के तरीक़े से, ब्राह्मण समुदाय में उसे लेकर भारी सहानुभूति पैदा हुई है. उनका कहना था, "जब तक वह ज़िंदा था, किसी ने भी उसका बचाव नहीं किया, लेकिन जिस तरह से उसका एनकाउंटर किया गया, समुदाय के भीतर उसे लेकर आक्रोश है. हमारे नेता यदि इस मुद्दे को जल्द ही नहीं सुलझा पाए तो अगले विधानसभा चुनाव में यह हमारे ख़िलाफ़ जा सकता है."

दरअसल, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर हिन्दूवादी का ठप्पा तो लगा ही है, साथ ही ठाकुरवादी होने के भी आरोप अक़्सर लगते रहे हैं, ख़ासकर जब से वो यूपी के मुख्यमंत्री बने हैं. जिस तरह से सोशल मीडिया पर विकास दुबे के एनकाउंटर के तरीक़े पर सवाल उठाए जा रहे हैं, उसी तरह बहुत से यह कहकर मुख्यमंत्री की प्रशंसा कर रहे हैं कि 'अपराधियों के साथ ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए.'

लेकिन ऐसे समर्थकों से यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि कुलदीप सिंह सेंगर और स्वामी चिन्मयानंद जैसे लोगों को बचाने के लिए सरकार इतनी जद्दोज़हद क्यों करती रही जबकि उनके ख़िलाफ़ लगे आरोप भी बेहद संगीन थे. इस सूची में ऐसे कई नेताओं का ज़िक्र किया जा रहा है.

बीजेपी नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं, "अब शुरुआत हो चुकी है, सबका नंबर आएगा. कोई अपराधी बचेगा नहीं."

इस मामले को लेकर जिस तरह से अपराध, अपराधी और उसके ख़िलाफ़ पुलिस कार्रवाई को जातीय खांचे में बैठाने की कोशिश हो रही है, उससे ये जिज्ञासा भी पैदा हो रही है कि क्या इसका चुनावी राजनीति पर भी कोई असर पड़ने वाला है.

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा कहती हैं, "ग़ुस्सा और नाराज़गी सुलग तो बहुत दिनों से रही है लेकिन दिख अब रही है. योगी जी पर आरोप लगता है कि उन्होंने किसी ब्राह्मण नेता को प्रमोट नहीं किया. कैबिनेट में भी ब्राह्मणों की तुलना में क्षत्रियों की संख्या ज़्यादा है. नियुक्तियों और तैनातियों में भेद-भाव के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन इस घटना ने उन पर यह आरोप पुख़्ता करने में मदद की है कि ब्राह्मणों को निशाना बनाया जा रहा है."

अमिता वर्मा कहती हैं कि ब्राह्मणों में नाराज़गी तो है, इस घटना से वह और बढ़ी है, इसमें संदेह नहीं. वो कहती हैं, "लेकिन बीजेपी को इसका राजनीतिक नुक़सान तब होगा जब इस नाराज़गी को कैश कराने के लिए कोई विपक्षी दल हो. अभी ये कहना बड़ा मुश्किल है कि नाराज़ होने के बावजूद यह वर्ग किसी दूसरी पार्टी के साथ चला जाएगा."

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