अमरीका का सेना पर बयान: भारत पर निगाहें, चीन पर निशाना?

अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो

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    • Author, सरोज सिंह
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

भारत-चीन सीमा तनाव के बीच अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो का एक नया बयान सामने आया है.

माइक पॉम्पियो ने ब्रसेल्स फ़ोरम में कहा कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते ख़तरों को देखते हुए अमरीका ने यूरोप से अपनी सेना की संख्या कम करने का फ़ैसला किया है.

भारत-चीन लद्दाख सीमा पर 15-16 जून को गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें भारत के 20 सैनिक मारे गए थे. दोनों देशों के बीच इस विवाद को सुलझाने के लिए बैठकों का दौर जारी है. लेकिन पूरे विश्व में इसकी चर्चा हो रही है.

इस तनाव पर अमरीकी विदेश मंत्री माइक पहले भी संवेदना जता चुके हैं. अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वो भारत और चीन के बीच जारी तनाव पर नज़र रखे हुए हैं और मदद करना चाहते हैं.

ऐसे में अमरीकी विदेश मंत्री के नए बयान ने दोबारा से भारत-चीन सीमा विवाद को सुर्ख़ियों में ला दिया है.

माइक पॉम्पियो ने कहा, ''हम इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हम चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सामना करने के लिए तैयार रहें. हमें लगता है कि हमारे वक़्त की यह चुनौती है और हम इसे सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि हमारी तैयारी पूरी है.''

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में घोषणा की थी कि अमरीका, जर्मनी में अपनी सेना की तादाद घटाएगा. राष्ट्रपति ट्रंप के इस फ़ैसले से यूरोपीय यूनियन ने नाराज़गी ज़ाहिर की थी.

अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप के विरोधी इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं. वहाँ की राजनीति में इसे अमरीका को सैन्य रूप से कमज़ोर करने वाले बयान के तौर पर पेश किया जा रहा है. इसी साल नंवबर में वहाँ चुनाव होने हैं. इस लिहाज़ से ये बयान और महत्वपूर्ण हो जाता है. 

लेकिन भारत में भी चीन के साथ सीमा विवाद के मद्देनज़र इस बयान को काफ़ी अहमियत दी जा रही है. 

अमरीका विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर

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पॉम्पियो के बयान के मायने? 

यही जानने के लिए कि इस बयान को भारत को कितना गंभीरता से लेना चाहिए, हमने बात की अमरीका-भारत- एशिया पर नज़र रखने वाले रणनीतिक विश्लेष्कों से. हर्ष पंत आब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में डायरेक्टर हैं और किंग्स कॉलेज, लंदन में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफ़ेसर भी रह चुके हैं. 

डॉ. हर्ष पंत के मुताबिक़ ये प्रस्ताव कोई नई बात नहीं है. अमरीका जर्मनी और यूरोप से सेना हटाने की बात पहले से करता आया है. इस बार बात टाइमिंग की है. दरअसल जर्मनी समेत यूरोप के कई देशों में नेटो संधि की वजह से अमरीका ने अपने सैनिकों की तैनाती की हुई है.

नेटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन. इसे उत्तर अटलांटिक संधि संगठन भी कहा जाता है. इसकी स्थापना 04 अप्रैल, 1949 को सोवियत संघ का मुक़ाबला करने के उद्देश्य से की गई थी. फ़िलहाल इस गठबंधन में अमरीका, ब्रिटेन सहित 29 सदस्य देश हैं, जिनकी आपस में राजनीतिक और सैन्य साझेदारी है.

साल 2014 में नेटो ने यह फ़ैसला किया था कि कुछ सदस्य देश रक्षा पर अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत ख़र्च करेंगे. अमरीका वर्तमान में रक्षा बजट पर जीडीपी का 3.5% से अधिक ख़र्च कर रहा है. यूरोपीय सदस्य देशों में ग्रीस, ब्रिटेन, इस्टोनिया, लातविया का यह ख़र्च 2% या उससे अधिक है. 

साल 2018 से डोनल्ड ट्रंप ये कहते आए हैं कि नेटो के सदस्य देश अमरीका का फ़ायदा उठा रहे हैं. उन्होंने यह बात नेटो सम्मेलन में भी कही कि अन्य सदस्य देशों को आर्थिक योगदान में बढ़ोतरी करनी चाहिए. 

डॉ. हर्ष पंत के मुताबिक़, ये विवाद पहले से ही चल रहा है. जर्मनी के साथ ट्रंप अब ऐसे बयान देकर मोलभाव करने वाली राजनीति कर रहे हैं, ताकि सैनिकों की उपस्थिति के लिए सभी देश आर्थिक योगदान में बराबरी का सहयोग करें. ये विवाद ट्रंप का अकेले का नहीं है. उनके पहले भी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी इस बारे में बयान देते थे. 

यूरोप में अमरीकी सैनिक - 2018 के आँकड़े
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जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अमरीकी, कनाडाई और लातिन अमरीकी स्टडी सेंटर में प्रोफ़ेसर चिंतामणी महापात्रा कहते हैं कि इस बयान के राजनीतिक मायने अधिक हैं.

वो कहते हैं, "पॉम्पियो का ये बयान पॉलिटिकल है. डिफ़ेंस स्ट्रैटेजी को देखते हुए ये बयान नहीं दिया गया है."

इसके पीछे वो वजह भी गिनाते हैं. 

उनके मुताबिक़ माइक पॉम्पियो एक डिप्लोमेट हैं. वो इस बयान से चीन को सिगनल भेज रहे हैं. चीन अपने पड़ोसी देशों के साथ जो बर्ताव कर रहा है वो अमरीका को स्वीकार्य नहीं है. वो साफ़-साफ़ शब्दों में कह रहे हैं कि यूएस और यूरोप चीन के रवैए से तंग आ चुके हैं.

ये बात केवल पड़ोसी देशों के साथ चीन के मिलिट्री ऑपरेशन से जुड़ी नहीं है. इससे पहले कोरोना वायरस महामारी में भी चीन का रवैया दुनिया के दूसरे देशों को पसंद नहीं आया, जिसके बारे में अमरीका कई बार खुल कर मोर्चा खोल चुका है. 

प्रोफ़ेसर महापात्रा के मुताबिक़ पॉम्पियो का ये बयान भारत के कम और चीन और जर्मनी के लिए दिया गया बयान ज़्यादा है. उन्होंने इशारों-इशारों में जर्मनी को बता दिया कि अमरीका जर्मनी के बर्ताव से ख़ुश नहीं है और जर्मनी को सैनिकों के रखरखाव के लिए अब अधिक ख़र्च करना पड़ेगा. 

वो कहते हैं कि फ़िलहाल अमरीका के दुनिया भर के सभी महाद्वीपों के 70 देशों में 800 जगहों पर मिलिट्री कैंप हैं. अकेले जर्मनी में आज की तारीख़ में 34 कैंप चल रहे हैं. फ़िलहाल 50 हज़ार अमरीकी सैनिक जर्मनी में हैं जिन्हें घटा कर अमरीका आधा करना चाहता है. इस बयान से ये मतलब ना निकाला जाए कि जर्मनी से अपने सैनिकों को पूरी तरह से हटा रहा है अमरीका. इसका मतलब सिर्फ़ इतना है कि वो सैनिकों की संख्या आधा करने पर विचार कर रहा है.

नरेन्द्र मोदी और डोनल्ड ट्रंप

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भारत के लिए बयान कितना अहम है? 

प्रोफ़ेसर महापात्रा ये नहीं मानते कि माइक पॉम्पियो ने सिर्फ़ भारत के संदर्भ में ऐसा कहा है.  लेकिन वो ये भी मानते हैं इस इलाके़ में भारत अमरीका के लिए एक महत्वपूर्ण पार्टनर है.

भारत-चीन सीमा विवाद के बाद अमरीका की तरफ़ से सबसे पहले माइक पॉम्पियो ने ही बयान दिया था. चाहे अमरीका में नवंबर में होने वाले चुनाव की बात हो या फिर रक्षा मामलों की या फिर क्वॉड समूह की बात - भारत अमरीका के रिश्ते हर मोर्चे पर दोस्ताना रहे हैं. यही वजह है कि चुनाव से पहले डोनाल्ड ट्रंप भारत का दौरा भी करके गए थे.

आर्थिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध है. लेकिन हाल के दिनों में भारत को अमरीका की व्यापार की वरियता सूची से बाहर कर दिया गया था. दोनों देशों के बीच सामाजिक संबंध भी अच्छे हैं. यही वजह है कि एच1बी वीज़ा लेने वालों में भी भारतीयों की तादाद सबसे ज़्यादा है. अमरीका जानता है कि चीन के विश्व में बढ़ते दबाव को रोकने के लिए भारत का साथ ज़रूरी है.

उनके मुताबिक़ अमरीका इस बयान के साथ दो हित एक साथ साध रहा है. पहला जर्मनी को इसके ज़रिए संदेश भिजवा दिया.  

दूसरी बात ये कि जब चीन का बर्ताव भारत ही के साथ नहीं बल्कि वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, ताइवान और फिलीपीन्स के साथ भी बदतर हो रहे थे, तो अमरीका को लगा कि ये सही मौक़ा है.

सैन्य शक्ति का इस्तेमाल जर्मनी से हटा कर इन देशों की तरफ़ किया जाए. यहाँ याद रखने वाली बात है कि ये सभी देश अमरीका के अलायंस पार्टनर या स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं. अगर चीन इन सभी देशों पर हावी होगा तो उसको आर्थिक तौर पर नुक़सान तो होगा ही, पार्टनरशिप पर भी असर पड़ेगा.

इसलिए उनका मानना है कि अमरीका के इस बयान को एशिया में चीन के बढ़ते प्रसार के ख़तरे से अमरीका की बढ़ती चिंता के तौर पर देखना चाहिए.  

अमरीका विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो और भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर

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अमरीका के लिए ये देश महत्वपूर्ण क्यों हैं? 

हर्ष पंत के मुताबिक़ फ़िलहाल यूरोप के देशों को ज़्यादा ख़तरा नहीं है. इसलिए अमरीका के रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि अमरीका को वहाँ से अपनी ताक़त हटा कर इंडो- पैसिफिक क्षेत्र में लगाना चाहिए जहाँ अमरीका के व्यापारिक और सामरिक दोनों हित हैं. ये बात ओबामा के समय से अमरीका में चलती रही है. 

इस इलाक़े में चीन और जापान की दुश्मनी किसी से छिपी नहीं है. जापान और अमरीका की दोस्ती भी है.

इसके अलावा साउथ चाइना सी पर भी चीन अपना अधिकार पहले से जमाता ही रहा है, जो अमरीका को बर्दाश्त नहीं है. चीन और जापान दुनिया की दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. दोनों देशों के बीच समस्या केवल राजनयिक स्तर पर नहीं है बल्कि सीमाओं को लेकर भी है.

दोनों देशों के बीच दो छोटे द्वीप को लेकर विवाद हुआ था. एक द्वीप सेनकाकु जो जापान में है और दूसरा द्वीप दिओयु चीन में है. चीन सेनकाकु द्वीप पर अपने  प्रभुत्व का दावा करता है जिसका जापान विरोध करता है. फ़िलहाल सेनकाकु द्वीप पर जापान का प्रशासनिक अधिकार चलता है.

प्रोफ़ेसर महापात्र के मुताबिक़ जापान ने हाल में इस द्वीप के नाम को बदलने की कोशिश की थी जिसका चीन ने विरोध किया था और अपने कोस्ट गार्ड भेजे. नतीजा ये कि दोनों देशों ने यहाँ अपनी-अपनी जल सेनाओं की गश्त बढ़ा दी थी. बाक़ी फ़िलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान से चीन का विवाद साउथ चाइना सी यानी दक्षिण चीन सागर को लेकर है.  

दक्षिण चीन सागर, इंडोनेशिया और वियतनाम के बीच पड़ने वाला समंदर का ये हिस्सा, क़रीब 35 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है.

दक्षिणी चीन सागर

इस पर चीन, फ़िलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रुनेई अपना दावा करते रहे हैं. क़ुदरती ख़ज़ाने से भरे इस समुद्री इलाक़े में जीवों की सैकड़ों प्रजातियाँ पाई जाती हैं.

सात देशों से घिरे दक्षिणी चीन सागर पर इंडोनेशिया को छोड़कर बाक़ी सभी 6 देश अपना दावा जताते रहे हैं. लेकिन चीन का कहना है कि ये इलाक़ा उसका है. दक्षिणी चीन सागर, प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के बीच स्थित बेहद अहम कारोबारी इलाक़ा भी है. दुनिया के कुल समुद्री व्यापार का 20 फ़ीसदी हिस्सा यहाँ से गुज़रता है.     

आज से पाँच-सात साल पहले तक इस इलाक़े को लेकर इतनी तनातनी नहीं थी. 2015 के आसपास, चीन के समंदर में खुदाई करने वाले जहाज़, बड़ी तादाद में ईंट, रेत और बजरी लेकर दक्षिणी चीन सागर पहुँचे. पहले एक बंदरगाह बनाया गया. फिर हवाई जहाज़ों के उतरने के लिए हवाई पट्टी. देखते ही देखते, चीन ने दक्षिणी चीन सागर में एक आर्टिफ़िशियल द्वीप तैयार करके उस पर सैनिक अड्डा बना लिया. 

अमरीका इसे अपने इंडो-पैसिफ़िक रीजन में विस्तार के लिए ख़तरे के तौर पर देखता है. हाल ही में उसने तीन एयरक्राफ्ट कैरियर यहाँ तैनात किए हैं. 

प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्र भी यही मानते हैं. उनके मुताबिक़ इंडो-पैसिफिक रीजन से अमरीका का पुराना लगाव है. केवल ट्रंप ही नहीं ओबामा भी इस क्षेत्र में आर्थिक व्यापार और विस्तार के पक्ष में थे.

इस इलाक़े में अमरीका का निवेश भी ज़्यादा है और व्यापार के लिए वातावरण भी अनुकूल है. इस क्षेत्र में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, भारत को एक महत्वपूर्ण पार्टनर के तौर पर देखते हैं. वैसे ही ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान को भी देखते हैं और इस पूरे बयान के पीछे अमरीका के अपने हित सधते हैं.

साफ़ है कि इस बयान को सीधे भारत से नहीं बल्कि चीन के रवैए और जर्मनी के संदर्भ में देखना भी ज़रूरी  है. आने वाले दिनों में अमरीका में इस पर बहस भी तेज़ होगी.  

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