भारत-चीन सीमा विवाद ने बढ़ाई लेह की मुश्किलें- ग्राउंड रिपोर्ट

इमेज स्रोत, Arif Radhu/BBC
- Author, आमिर पीरजादा
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
लद्दाख के लेह शहर में एक अजीब सा सन्नाटा है. सीमा पर 20 जवानों की मौत के बाद यहां के लोगों में अनिश्चितता की भावना है.
आमतौर पर दुनियाभर के सैलानियों से भरी रहने वाली सड़कें आजकल खाली पड़ी हैं. कोरोना माहामारी का असर यहां साफ़ देखा जा सकता है. लेह एक कम आबादी वाला शहर है.
यहां प्रति वर्ग किलोमीटर में सिर्फ 3 लोग रहते हैं और रविवार तक कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या 212 पहुंच चुकी थी.
सीमा पर भारत-चीन के बढ़ते विवाद ने इलाक़े के लोगों की चिंताएं बढ़ा दी हैं.
गुरुवार को लद्दाख बुद्धिस्ट असोसिएशन नाम की एक बौद्ध संस्था ने सीमा पर मारे गए जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक मार्च निकालने की कोशिश की लेकिन कोविड-19 के लिए लागू नियमों के तहत उन्हें रोक दिया गया.
सड़कें बंद और टेलीफ़ोन लाइन बंद
गलवान घाटी और पैंगोंग इलाके की ओर जाने वाली सड़कें बाहरी लोगों के लिए बंद कर दी गई हैं. मीडिया को भी वहां जाने की इजाज़त नहीं है.
अधिकारियों का कहना है कि प्रतिबंध कोरोना को ध्यान में रखकर लगाए गए हैं. बीजेपी की लेह इकाई के अध्यक्ष डॉर्जी आंगचुक ने बीबीसी को बताया कि मीडिया को आगे जाने से रोका जा रहा है ताकि किसी तरह की अटकलों से बचा जा सके.
गलवान घाटी लेह से क़रीब 250 किलोमीटर दूर है लेकिन घाटी की सही स्थिति के बारे में यहां किसी को जानकारी नहीं है.
एलएसी के आसपास के इलाकों की फ़ोन लाइन भी पिछले कुछ हफ़्तों से बंद हैं.

इमेज स्रोत, Arif Radhu/BBC
पीएम के भाषण के बाद भ्रम की स्थिति
नामग्याल डुरबोक गलवाल घाटी के डुरबोक इलाके में काउंसलर रह चुके हैं. वो 15 दिनों पहले ही अपने गांव से लेह लौटे थे. वो कहते हैं, “अगर वो (चीनी) हमारे इलाके में नहीं घुसे हैं, तो इतनी तादाद में सेना की तैनाती क्यों की जा रही है?”
वो आगे कहते हैं, “पीएम मोदी ने कहा कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है, लेकिन हम सब गांव वालों को पता है कि घुसपैठ हुई थी. अगर गलवान घाटी को देखें, तो एक ज़मीन है जहां हमारे घोड़े चरने जाते थे लेकिन अब चीनी उस जगह को कंट्रोल कर रहे हैं, इसका क्या मतलब है?”
लेह बीजेपी के अध्यक्ष आंगचुक कहते हैं, “एलएसी के दोनों तरफ़ सेनाएं गश्ती करती हैं, लेकिन एलएसी कोई खींची हुई रेखा नहीं है, कभी-कभी ग़लती से उनकी सेना हमारे इलाक़े में आ जाती है और हमारी सेना उनकी तरफ़ चली जाती है. ऐसे में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ जाती हैं और कई बार झगड़े भी हो जाते हैं. इस बार भी एलएसी पर ही लड़ाई हुई लेकिन चीनी सैनिक हमारे इलाक़े में नहीं घुस पाए”
रिटायर्ट कर्नल सोनम वांगचुक, जिन्होंने पाकिस्तान के ख़िलाफ कारगिल युद्ध में हिस्सा लिया था, बताते हैं, “हमने अपने 20 सैनिक खो दिए, कोई तो विवाद की वजह होगी. इसके अलावा क्या कारण हो सकता है कि हमारे लोगों को जान गंवानी पड़ी? आप उनके इलाके में नहीं घुसे और वो आपके इलाक़े में नहीं आए, तो फिर झगड़ा क्यों हुआ?”
प्रधानमंत्री के बयान पर जब विवाद हुआ तो पीएमओ ने सफ़ाई देते हुए बयान जारी किया जिसमें लिखा था, सर्वदलीय बैठक में जानकारी दी गई कि इस बार काफ़ी अधिक संख्या में चीनी सुरक्षाबल लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) के नज़दीक पहुंचे हैं और हमारी सेना इसका अनुरूप जवाब दे रही है.
बयान में आगे बताया गया, “जहां तक एलएसी के उल्लंघन की बात है, साफ़ तौर पर पीएम ने कहा कि 15 जून को गलवान घाटी में हिंसा इसलिए हुई क्योंकि चीनी सैनिक एलएसी के पास कुछ निर्माण कार्य कर रहे थे और उन्होंने इसे रोकने से इनकार कर दिया.”

इमेज स्रोत, Arif Radhu/BBC
लोगों को रोज़गार की चिंता
एलएसी के पास रहने वाले ज़्यादातर लोग मवेशियों पर निर्भर रहते हैं, चीनी घुसपैठ के कारण उन्हें उन ज़मीनों को खोने का डर है जहां जानवर चरने जाते हैं.
नामग्याल डुरबोक कहते हैं, “चीन कई सालों से हमारी ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ा कर रहा है. हम चैंगथैंग के बनजारे हमेशा से अधिकारियों के सामने ये मुद्दा उठाते रहे हैं लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता, हम लोग भुगत रहे हैं.”
इन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व काउंसलर करते हैं, इन सभी सदस्यों की काउंसिल को लद्दाख ऑटोनोमस हिल डिवलेपमेंट काउंसिल या एलएएचडीसी कहा जाता है. एलएएचडीसी ही इस इलाके के सभी विकास कार्यों के लिए ज़िम्मेदार है.
बीबीसी के हाथ एक चिट्ठी लगी जिसे गलवान और पैंगोंग इलाके के काउंसलरों ने लिखा था. ये चिट्ठी लद्दाख के डिविजनल कमिश्नर को 19 जून को लिखी गई थी. चिट्ठी में भारत-चीन विवाद के कारण पूरे इलाक़े में संचार सुविधाएं अचानक बंद कर दिए जाने के बारे में थी.

इमेज स्रोत, Leh Administration
चिट्ठी में जनप्रतिनिधियों ने लिखा, “बीएसएनएल की सेवाएं पिछले 20 दिनों से बंद हैं जिसके कारण 17 ज़िलों में कम्यूनीकेशन ब्लैकआउट हो गया है.”
चिट्ठी में इसके कारण कोविड -19 के दौरान बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई पर पड़ने वाले असर के बारे में जानकारी दी गई थी. संचार सुविधाएं अभी भी बंद हुए.
लद्दाख के डिविजनल कमिश्नर सौगत बिस्वास ने बीबीसी को बताया, “मैंने सेना से इस बारे में बात की है, वो इस पर विचार कर रहे हैं. बॉर्डर इलाकों में संचार सुविधाएं बीएसएनएल देता है, लेकिन वो लाइन अभी सेना के नियंत्रण में है, ये मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है लेकिन मैं सेना से बात कर रहा हूं.”
एलिहड जॉर्ज 1962 में चीन के ख़िलाफ़ युद्ध कर चुके है. उनका सबसे छोटा बेटा भी सेना में है और अभी पैंगोंग इलाके में तैनात है. वो बताते हैं, “ जैसे ही विवाद शुरू हुआ, मेरे बेटे को वहां भेज दिया गया. मैं उससे बात नहीं कर पा रहा क्योंकि संचार का कोई साधन नहीं है.
इलाके के व्यापारी सेरिंग नामग्याल ने बताया कि उनकी मुलाकात गलवान घाटी और पैंगोंग इलाके के कुछ लोगों से हुई जो राशन लेने लेह आए थे. उन्होंने मुताबिक, “वो लोग अपने गांव से कुछ सामान लेने यहां आए थे. उन्होंने बताया कि श्योक और डुरबोक इलाके में सेना की भारी मौजूदगी है, कई हथियार भी देखे गए हैं.”

इमेज स्रोत, Arif Radhu/BBC
इतनी ऊंचाई पर लड़ना कितना मुश्किल?
लेह शहर के ऊपर भारतीय वायुसेना के विमान कई दिनों से लगातार उड़ान भर रहे हैं, अब ज़मीन पर भी सैनिकों की संख्या बढ़ने की खबरें आ रही हैं. इलाक़े के लोग किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार हैं और उनका कहना है कि वो सेना के साथ खड़े हैं.
नाम्बयाल डुरबोक कहते हैं, “हमनें लद्दाख में कई जंग जैसी परिस्थितियां देखी हैं, हम हमेशा सेना के साथ खड़े रहे हैं. अगर आप गलवान घाटी की बात करें तो अभी भी 400 से 500 सामान ढोने वाले लोग और मज़दूर सेना के साथ काम कर रहे है.”
1999 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान लद्दाख के लोगों ने सेना को ज़रुरी सामान पहुंचाने में मदद की थी क्योंकि ज़्यादातर सेना के पोस्ट पहाड़ों पर थे जहां पहुंचने के सिए सड़कें नहीं थीं.
स्थानीय पत्रकार निसार अहमद ऐसे ही एक ग्रुप का हिस्सा थे. वो बताते हैं, “वो 25 लोगों को ग्रुप था. हम सेना की मदद कर रहे थे. हम कारगिल में सेना की ऊंचाई पर बनी चौकियों पर राशन और गोला-बारूद पहुंचाते थे.”
अहमद आगे बताते हैं, “हर गांव और समुदाय अपने लोगों को सेना की मदद के लिए भेजता था.”
एलएसी नदियों, पहाड़ों और बर्फ़ीले इलाकों से होकर गुज़रता है. ये ज़्यादातर ऊंचाई वाले इलाके हैं, कई जगहों पर ऊंचाई समुद्रतल से 14,000 फ़ीट तक है. इन इलाकों में लड़ने के लिए ख़ास तरह की ट्रेनिंग की ज़रुरत होती है. यहां तैनाती से पहले मौसम के अनुरूप ख़ुद को ढालना होता है. इसके लिए तीन चरणों की ट्रेनिंग से गुज़रना होता है. मौसम के अनुरूप ढलने के बाद जवानों को एक और महीने तक ट्रेनिंग दी जाती है, उसके बाद ही यहां तैनाती हो सकती है.

इमेज स्रोत, Colonel Sonam
कर्नल सोनम बताते हैं, “अगर लड़ाई समतल ज़मीन पर हो तो कई तरह के हथियार इस्तेमाल किए जा सकते हैं, जैसे कि टैंक और दूसरी हथियारों से लैस गाड़ियां लेकिन पहाड़ों पर पैदल सेना की टुकड़ियों की अहमियत सबसे ज़्यादा होती है, इसके अलावा गोलाबारूद और दूसरे ज़रुरी यंत्रों के असर भी इस ऊंचाई पर कम हो जाता हैं.”
लद्दाख के इन इलाकों में हवा का दबाव बहुत कम होता है, वातावरण में नमी कम होती है इसलिए यहां बीमार पड़ने का ख़तरा भी ज्यादा होता है इसलिए शरीर को तैयार रखना ज़रूरी है.
कर्नल सोनम के मुताबिक, “ऊंचाई पर लड़ने के दौरान आपकी एनर्जी जल्दी ख़त्म होने लगती है और हथियार उतने कारगर साबित नहीं होते. हेलिकॉप्टर के भार उठाने की क्षमता भी कम हो जाती है. इसलिए पहाड़ों पर लड़ने के लिए आपको ख़ास तरह के हथियार चाहिए. हम 1962 का युद्ध हार गए थे क्योंकि हम इसके लिए तैयार नहीं थे. हमारे पास हथियार और सैनिकों की कमी थी.”
सोनम आगे कहते हैं, “ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने अपने 20 जवान खो दिए, मैं इससे बहुत दुखी हूं. मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि भारत दबाव बनाए, नहीं तो चीन ऐसी घुसपैठ करता रहेगा.”
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
















