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कोरोना लॉकडाउन: बीवी को साइकिल पर बैठाकर 750 किलोमीटर का सफ़र करने वाला मज़दूर
- Author, समीरात्मज मिश्र
- पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए
"भैया, डर और भूख भला किसे हिम्मत नहीं देते?"
ये शब्द न तो किसी महान दार्शनिक के हैं और न ही किसी कालजयी उपन्यास के किसी महान पात्र के. बल्कि ये तो वह मूल मंत्र है जिसने बलरामपुर के राघोराम को रोहतक से अपने गांव तक चले जाने का संबल दिया और 750 किमी की यात्रा उन्होंने पांच दिनों में अपनी पत्नी के साथ साइकिल से पूरी की.
राघोराम उन्हीं हज़ारों लोगों में से एक हैं जिन्हें कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते देशभर में अचानक लागू किए लॉकडाउन यानी बंदी के कारण हरियाणा के रोहतक से यूपी के बलरामपुर लौटना पड़ा.
राघोराम कहते हैं कि कोरोना वायरस और आगे अपने अस्तित्व संकट के भय ने उन्हें इतनी ताक़त दी कि वो अपनी मंज़िल तक पहुंच सके.
राघोराम बताते हैं, "हम जिस कंपनी में काम करते थे, वह कुछ दिन पहले ही बंद कर दी गई थी. हमने ठेकेदार को फ़ोन किया तो वो बोला कि हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते. मकान मालिक ने कहा कि रुकोगे तो किराया लगेगा. रोहतक में रह रहे हमारे जानने वाले कुछ लोग अपने घरों को निकल रहे थे तो हमने भी सोचा कि यहां से जाने में ही भलाई है. घर-गांव पहुंच जाएंगे तो कम से कम भूख से तो नहीं मरेंगे. वहां कुछ न कुछ इंतज़ाम हो ही जाएगा."
राघोराम पांच महीने पहले ही रोहतक गए थे. एक प्राइवेट कंपनी में ठेकेदार के ज़रिए उन्हें कुछ दिन पहले ही नौकरी मिली थी.
महीने में नौ हज़ार रुपए तनख़्वाह मिलती थी. 27 मार्च की सुबह अपनी पत्नी के साथ रोहतक से साइकिल पर सवार होकर चल पड़े.
चार दिन बाद यानी 31 मार्च की शाम को वो गोंडा पहुंचे. जिस वक़्त हमारी उनकी पहली बार बातचीत हुई, वो गोंडा पहुंच चुके थे और ज़िला अस्पताल में पत्नी के साथ चेक-अप के लिए जा रहे थे.
जेब में मात्र 120 रुपए और 700 किमी का सफ़र
राघोराम बताते हैं, "रोहतक से जब हम निकले तो जेब में सिर्फ़ 120 रुपए, दो झोलों में भरे थोड़े-बहुत कपड़े और सामान के अलावा हमारे पास और कुछ नहीं था. हम पहली बार साइकिल से आ रहे थे इसलिए हमें रास्ते की भी कोई जानकारी नहीं थी. सोनीपत तक हमें ख़ूब भटकना पड़ा. जगह-जगह पुलिस वाले रोक भी रहे थे लेकिन हमारी मजबूरी समझकर आगे जाने दिए. सोनीपत के बाद जब हम हाईवे पर आए, उसके बाद हम बिना भटके ग़ाज़ियाबाद, बरेली, सीतापुर, बहराइच होते हुए गोंडा पहुंच गए."
31 मार्च को ज़िला अस्पताल में स्वास्थ्य की जांच के बाद राघोराम को घर जाने की अनुमति मिल गई. उनका गांव बलरामपुर के रेहरा थाने में पड़ता है लेकिन ससुराल गोंडा ज़िले में है. राघोराम बताते हैं कि उस दिन रात हो जाने के कारण वो गोंडा अपनी ससुराल चले गए. उसके अगले दिन वो पत्नी के साथ अपने गांव पहुंचे.
रोहतक से बलरामपुर की सड़क मार्ग से दूरी क़रीब साढ़े सात सौ किमी है. राघोराम बताते हैं कि साइकिल से इतनी लंबी दूरी तो क्या गांव से केवल बलरामपुर तक ही कभी-कभी जाया करते थे. लेकिन 'कोरोना वायरस ने दिल में इतना भय पैदा कर दिया कि उसी भय से इतनी दूर चल पड़ने की ताक़त मिली.
इन पांच दिनों में राघोराम लगातार साइकिल चलाते रहे, सिर्फ़ हर घंटे पांच-सात मिनट रुककर आराम कर लेते थे. वो कहते हैं, "साथ में मेरी पत्नी भी थी इसलिए लगातार बहुत देर तक साइकिल चलाना संभव नहीं था. रात में दो घंटे आराम करते थे. कभी किसी पेट्रोल पंप पर रुक जाते थे या फिर जो दुकानें बंद रहती थीं, उनके बाहर आराम कर लेते थे."
साइकिल ने दिया सहारा
राघोराम रोहतक से तो अपनी पत्नी के साथ ही चले थे लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था कि रास्ते में उन्हें अपने जैसे हज़ारों लोग मिलेंगे.
उनकी पत्नी सीमा बताती हैं, "हाईवे पर तो जिधर देखो उधर आदमी ही दिख रहे थे. कोई सिर पर बोरा लादे जा रहा है, कोई बैग लादे जा रहा है. कुछ लोग अकेले चले जा रहे थे तो कुछ लोग ग्रुप में. उन्हें देखकर हमें अपना दर्द कम महसूस होने लगा क्योंकि हमारे पास तो जाने का साधन था, उनके पास तो वो भी नहीं था. साइकिल न रही होती तो हमें भी पैदल ही आना पड़ता. समस्या सबकी लगभग वही थी जो हमारी थी."
राघोराम के पास पैसे नहीं थे लेकिन साथ में खाने-पीने की कुछ जीज़ें ज़रूर थीं. हालांकि रास्ते में उन्हें इसकी दिक़्क़त नहीं हुई.
वो बताते हैं, "जगह-जगह लोग खाने-पीने की चीज़ें बांट रहे थे, इसलिए खाने की समस्या नहीं आई. हालांकि रोड पर लोग भी बहुत थे, फिर भी मदद के लिए भी इतने हाथ बढ़े हुए थे कि किसी को तकलीफ़ नहीं हुई. लेकिन रास्ते में पैदल चलने वाले कुछ लोग ऐसे ज़रूर मिले जिन्हें रोका जा रहा था या फिर कुछ लोगों को पुलिस वालों ने मारा भी था. हमारे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं आई."
राघोराम पढ़े-लिखे नहीं हैं. कुछ साल पहले उनकी शादी हुई है. यह सोचकर गांव से रोहतक आए थे कि वहां कुछ कमाएंगे, ख़ुद भी सुख से रहेंगे और घर वालों की भी मदद करेंगे. लेकिन एक बार फिर उनका ठिकाना वही गांव बन गया है, जहां से नया और बेहतर ठिकाना ढूँढ़ने के लिए वो कुछ महीने पहले निकले थे.
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