कोराना संकट: ग़रीबों का मामला अदालत में ले जाने का सही समय कब? - ब्लॉग

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- Author, राजेश प्रियदर्शी
- पदनाम, डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी
भारत सरकार के दूसरे सबसे बड़े वकील यानी सॉलिसिटर जनरल का कहना है कि देश पर संकट है, इसलिए "पेशेवर जनहित याचिकाओं की दुकानें बंद हों." उन्होंने यह बात सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नागेश्वर राव और दीपक गुप्ता की अदालत के सामने टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कही.
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका दायर करने वालों को 'जनहित का पेशेवर दुकानदार' कहा. उन्होंने याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाने पर आपत्ति व्यक्त की. अदालत ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए सात अप्रैल का समय दिया है.
याचिका क्या थी? याचिका ये थी कि सरकार शहरों से पलायन करने पर मजबूर ग़रीबों को वहीं आर्थिक सहायता दे जहाँ वे हैं. याचिका दायर करने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर, वकील अंजलि भारद्वाज और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का कहना था कि ग़रीबों के लिए सरकार ने पर्याप्त क़दम नहीं उठाए हैं.
सॉलिसिटर जनरल सरकार के प्रतिनिधि के रूप में ही पेश हुए थे इसलिए जो कुछ उन्होंने कहा है वह सरकार का ही रुख़ है. एक बुनियादी बात सरकार कह रही है कि इस याचिका को ख़ारिज हो जाना चाहिए क्योंकि अभी देश पर संकट है.
यह बात बिल्कुल वाजिब है कि देश अभूतपूर्व संकट के दौर से गुज़र रहा है, इस संकट से उबरने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं, ये कदम कितने प्रभावी साबित होते हैं यह आगे पता चलेगा.
लॉकडाउन के अलावा, सरकार ने आर्थिक पैकेज, तीन महीने तक कर्ज़ की मासिक किस्त न वसूले जाने और किराया वसूली में ढील जैसे निर्देश जारी किए हैं.

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देश और उसके नागरिक
यह संकट सबके लिए है, जो लोग घरों में बंद हैं, जो अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं, जिन्हें भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा है, जिनकी नौकरियाँ ख़तरे में हैं, जिनके बेहद ज़रूरी काम अटक गए हैं, लेकिन सवाल ये भी है कि जब देश कहा जाता है तो उसका मतलब क्या है?
क्या करोड़ों लोग जो रोज़ कमाते हैं, तभी खा पाते हैं, वे देश के तहत नहीं आते? क्या वे जन नहीं हैं? उनका हित जनहित नहीं है, तो फिर किसका हित जनहित है? देश पर जो संकट बताया जा रहा है, वह इन ग़रीब मज़दूरों से ज़्यादा किसके सिर पर आया है?
देश, भारत माता और राष्ट्र जैसे शब्दों का अमूर्त इस्तेमाल हर सरकार अपनी सुविधा से करती रही है, देश कभी ज़मीन है, देश कभी सरकार है, देश कभी विदेश में बन रही अच्छी या बुरी छवि है, देश कभी पड़ोसी के साथ लड़ाई के करीब है, देश कभी मंदी की चपेट में है, देश कभी विकास कर रहा है, देश में बहुत कुछ हो रहा है....
लेकिन इन सब वाक्यों में लोग कहाँ हैं, और उनका हित क्या है? जनहित के इस सवाल को ग़ैर-ज़रूरी और ग़ैर-वाजिब बना देना सबसे बड़ी राजनीति है, यह हर सियासतदां के बूते की बात नहीं है.
इंदिरा गांधी का दौर जिन लोगों ने देखा है, उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि इंदिरा जी हर काम देश के लिए करती थीं, और बाकी लोग राजनीति करते थे, इंदिरा जी कभी राजनीति नहीं करती थीं. मोदी जी का भी हर काम देश के नाम है, और बाकी सब लोग राजनीति कर रहे हैं.
एक लोकप्रिय और रोबदार प्रधानमंत्री ऐसा ही होता है, वह राजनीति नहीं करता है. उसकी नीतियों से असहमत लोग राजनीति करते हैं, चाहे वे राजनेता हों, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील या फिर पत्रकार.

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काम और जवाबदेही
दूसरी अहम बात, सरकार का रुख़ बहुत साफ़ है, जनता से यही उम्मीद की जाती है कि वह पीएम केयर्स फंड में पैसे डाले, देश में सकारात्मक माहौल बनाए, और इसके लिए ज़रूरी है कि समस्याओं की बात न हो, वरना नकारात्मकता पैदा होगी. ऐसी याचिकाओं से सरकार की परेशानी बढ़ती है क्योंकि उसे कुछ ठोस काम करने होंगे, ये भी हो सकता है कि अदालत जवाब माँगे.
इसमें एक बहुत अहम बात और भी है, ये 'संकट का समय है' इसलिए सरकार से कोई माँग न की जाए, और उन माँगों को मनवाने की कोशिश करने का एक जायज और संविधान-सम्मत रास्ता जो कि जनहित याचिका है, उसे बंद कर दिया जाए.
सॉलिसिटर जनरल का कहना है कि रिपोर्ट देने में कोई समस्या नहीं है लेकिन अगर सरकारी अधिकारी जवाब ही तैयार करते रहेंगे तो कोरोना से निबटने का असली काम कब करेंगे, वो भी उन लोगों की माँग पर जो खुद ग़रीब जनता के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं.
तुषार मेहता की यह बात कुछ हद तक वाजिब लगती है कि क्योंकि पूरा सरकारी अमला इस वक़्त कोराना संकट से पैदा हुई बीसियों मुसीबतों से जूझने में लगा है, आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई, कानून-व्यवस्था, अस्पतालों का प्रबंधन, संक्रमण का फैलाव रोकने की कोशिश और आगे की तैयारी ऐसे काम हैं जो युद्ध स्तर पर चल रहे हैं.
सरकार को लग सकता है कि कानूनी वाद-प्रतिवाद में समय बर्बाद होगा, लेकिन अगर ग़ौर से देखें तो सरकार जनहित की ही बात कर रही है और याचिका दायर करने वाले भी, यह तय करना आसान काम नहीं है कि संकट के समय जो चीज़ें मुल्तवी की जानी चाहिए उनमें ग़रीबों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार की माँग करना शामिल है या नहीं?

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एक अच्छे व्यक्ति की परिभाषा
तुषार मेहता का कहना है कि गरीबों की सहायता करें, न कि सरकार पर दबाव न बनाएँ कि वह गरीबों को आर्थिक सहायता दे. सॉलिसिटर जनरल ने जिस तरह एक अच्छे व्यक्ति को परिभाषित किया है, वह भी कम दिलचस्प नहीं है. उन्होंने कहा है, "एक आदर्श और व्यावहारिक व्यक्ति ज़मीन पर काम कर रहा है जबकि कुछ लोग एसी कमरों में बैठकर जनहित याचिकाएं लगा रहे हैं."
इससे यही लग रहा है कि जनहित याचिका के ज़रिए गरीबों के लिए सरकार से आर्थिक सहायता माँगना न तो आदर्श व्यक्ति का काम है, न ही कानूनी हस्तक्षेप के ज़रिए सरकार को ग़रीबों की मदद के लिए राज़ी करने की कोशिश करना एक व्यावहारिक क़दम है.
यहाँ एसी कमरों की बात भी दिलचस्प है. क्या सॉलिसिटर जनरल कहना चाहते हैं कि नॉन एसी कमरे में बैठने वाला ही जनता का सच्चा हितैषी हो सकता है, यहाँ एसी एक मुहावरा है, मेटाफ़र है जिसका संदेश ये है कि ये लोग जनता के हितैषी नहीं हैं, बल्कि एसी वाले हैं. इस पैमाने से तो बहुत सारे लोग जन हितैषी नहीं हैं, न कोई अफ़सर, न कोई मंत्री.
दरअसल, जिनके के लिए याचिका लगाकर मदद की गुहार की जा रही है, उन तक सॉलिसिटर जनरल यह संदेश पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं कि तुम्हारे लिए मदद माँगने वाले तुम्हारे हितैषी नहीं, जनहित के पेशेवर दुकानदार हैं.
यह राजनीति करने का समय नहीं है...
वकील और सामाजिक कार्यकर्ता अगर अदालत के ज़रिए सरकार को ग़रीबों के लिए एक बड़ा और ठोस कदम उठाने पर राज़ी करते हैं तो क्या उसका असर कुछ रुपये दान करने या कुछ लोगों को खाना खिलाने जितना होगा? ज़ाहिर है, जितनी मदद सरकार कर सकती है या उसको जितनी मदद करनी चाहिए, वह व्यक्तिगत सीमाओं से परे है.
सरकार के वकील ने वही कहा है, जो सरकार कह रही है. यह वैश्विक संकट है और इससे निबटने के लिए सभी कारगर क़दम उठाए जा रहे हैं. इन कारगर कदमों में पालयन करने वालों का हित सबसे ऊपर रखा गया था, उनके लिए सबसे बेहतर तैयारी की गई थी, क्या मौजूदा हालात में इसे सच माना जा सकता है?
संसद अभी बंद है, लेकिन अगर अदालत में ये सब सवाल उठेंगे तो सरकार के लिए शायद माहौल के मैनेजमेंट की समस्या खड़ी हो सकती है. कोरोना संकट को लेकर यह राजनीति करने का समय नहीं है, इस पर तो मोटे तौर पर देश में आम सहमति है, लेकिन सभी सवालों को ताक पर रखना भी शायद कोई विकल्प नहीं है.
प्रधानमंत्री ने कोरोना संकट पर चर्चा के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है जो देर से उठाया गया एक सही कदम है, देश के अमीरों-गरीबों सबको दलगत भावना से ऊपर उठकर इस संकट से निबटना होगा, लेकिन इस संवेदनशीलता के साथ कि संकट को झेलने की सबकी क्षमता एक बराबर नहीं है.

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