भारत के इकलौते मातृ सत्तात्मक समाज में कैसे चलता है घर परिवार?

    • Author, चिंकी सिन्हा
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता, शिलॉन्ग से लौटकर

ये मेघालय के एक सुखी परिवार की कहानी है. इस कहानी में मां-बाप और उनके दो बच्चे हैं. ये सब मिलकर एक साथ सुखी रहने के बारे में गीत गाते हैं.

अचानक एक दिन मां बीमार होती है और उनकी मौत हो जाती है.

मां की तरफ़ के संबंधी, स्थानीय परंपरा के मुताबिक़ बच्चों को अपने साथ ले जाते हैं, जबकि पिता यह कहता है कि वह अपने बच्चों की देखभाल करेगा क्योंकि मरने से पहले उनकी पत्नी कहा था कि बच्चों को कभी मत छोड़ना.

इसके बाद एक दिन बच्चे अपने नानी घर से भागकर अपने पिता के साथ रहने आ जाते हैं, क्योंकि दोनों अपने पिता से बेहद प्यार करते थे और पिता भी अपने बच्चों से उतना ही प्यार करते थे.

ये कहानी है, "फादर वेअर आर यू?" की. इसे हाल ही में यूट्यूब पर अपलोड किया गया है.

जिस शख़्स ने इसे सालों पहले एक नाटक के तौर पर लिखा था और उसे वीडियो के रूप में फिल्माया, उन्होंने ही इसे यूट्यूब पर अपलोड किया है.

मातृसत्तात्मक समाज

ये शख्स हैं माइकल सेयम जो बीते कई दशकों से एक खास उद्देश्य पर काम कर रहे हैं, यह उद्देश्य पुरुषों से जुड़ा है.

भारत के इकलौते मातृसत्तात्मक समाज में, वह ऐसे बदलाव पर काम कर रहे हैं जिसका उद्देश्य वहां मौजूद पारिवारिक ढांचे को बदलना है हालांकि वह ढांचा खुद ही आकांक्षाओं के चलते तेज़ी से बदलते समाज में अस्तित्व बचाने का संघर्ष कर रहा है.

पहाड़ों से घिरे शिलॉन्ग की ख़ूबसूरत वादियों वाली गलियों में ऐसे बैनर वाले बोर्ड दिखाई देते हैं, जिन पर लिखा है संपत्ति में न्यायोचित बँटवारा हो. यह वह अभियान है जिसे अकेले शख्स के तौर पर सेयम बीते 30 सालों से चला रहे हैं.

मेघालय के प्राचीन मातृ सत्तात्मक समाज में परिवार की सबसे छोटी बेटी परिवार की संपत्ति की संरक्षक होती है, पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ रहने के लिए उनके घर जाना होता है और वंशावली मां के नाम से आगे बढ़ती है.

गारो जनजाति में

सेयम ने बीते 30 सालों में इस चलन के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष में हार नहीं मानी है. वे अपनी संस्था मैथशाफ्रॉन्ग (आगे बढ़ने की कोशिश) के साथ बदलाव की कोशिशों में जुटे हैं और दावा करते हैं कि बदलाव हो रहा है.

मेघालय की 30 प्रतिशत आबादी वाली गारो जनजाति में मातृसत्तामक प्रथा का चलन है, इनकी आबादी क़रीब 30 लाख है. इनके अलावा 17 लाख आबादी वाली खासी और जैनतिया अनुसूचित जनजाति के परिवारों में भी इस प्रथा का चलन है.

हालांकि यह चलन अब बदलाव के दौर से गुजर रहा है क्योंकि कुछ पुरुष अब इस बात को लेकर आवाज उठा रहे हैं कि उत्तराधिकार की यह व्यवस्था लैंगिक भेद पर आधारित है, इसलिए भेदभावपूर्ण है.

वैसे ये जानना दिलचस्प है कि केरल के नायर समुदाय भी मातृ सत्तात्मक समाज हुआ करता था, जिसे 1925 में क़ानून के ज़रिए बदला गया था. इसके बाद मेघालय भारत में इकलौती ऐसी जगह बची, जहां मातृ सत्तात्मक परिवारों का चलन है.

बदलाव की कोशिशें

सेयम बताते हैं, "हमलोगों का समाज मातृ सत्तात्मक, मातृ सत्तात्मक और मातृ सत्तात्मक है. 1970-71 में सीटीमोन सावेन नामक खासी जनजाति की महिला ने गुवाहटी हाइकोर्ट में एक मुक़दमा दर्ज कराया था."

सावेन अपनी संपत्ति को अपनी इच्छा मुताबिक बेचना चाहती थी और उन्होंने इसके लिए अदालत से अनुमति मांगी थी.

सेयम के मुताबिक, "उस वक्त से हम लोग अदालत के फ़ैसले को मानते हैं जिसमें कहा गया था कि परिवार की सबसे छोटी बेटी परिवार की उत्ताराधिकारी भी है ना कि केवल संरक्षक. इस फैसले के मुताबिक उसे संपत्ति की बिक्री के लिए परंपरागत प्रथा के मुताबिक अपने मामा या परिवार के दूसरे सदस्यों से अनुमति की जरूरत भी नहीं रही."

हाइकोर्ट के उस फैसले को किसी ने चुनौती नहीं दी, लेकिन यह फैसला एक तरह से मातृ सत्तात्मक समाज में बदलाव की कोशिशों की शुरुआत थी.

मेघालय सरकार

तब शिलॉन्ग ऐसे शहर के तौर पर उभरा था जहां मुख्य तौर पर कृषि प्रधान समाज रह रहा था जो अपने परंपरागत जनजातीय नियमों से बंधा हुआ था, लेकिन जनजातीय सामाजिक समुदाय से अलग परिवार का अस्तित्व उभर रहा था जिसमें परिवार का मुखिया पति हो रहे थे लेकिन उनके पास ना तो कोई अधिकार थे और ना ही कोई भूमिका.

लेकिन ये तब शुरुआत भर थी. 1986 में मेघालय सरकार ने एक क़ानून पारित किया जिसके मुताबिक़ ख़ुद से बनाई गई संपत्ति में एक समान वितरण की अनुमति दी गई.

सेयम बताते हैं, "लेकिन मेरे बेटे के लिए यह सपंत्ति पारिवारिक संपत्ति हो जाएगी और फिर 1971 का प्रावधान लागू होगा जिसमें उत्तराधिकारी सबसे छोटी बेटी होगी."

यही वजह है कि राज्य के हाईवे और क्रासिंग पर ऐसे पोस्टर दिखाई देते हैं जिसमें बताया गया है कि यहां के सालाना नृत्य उत्सवों की विजेता को रानी का खिताब मिलता है.

रोमांटिक संस्करण

या फिर ऐसी जगह के तौर पर पेश करता है जहां भारत के दूसरे हिस्सों से अलग महिला होना सेलिब्रेट किया जाता, लेकिन इन सबके बाद भी राज्य में कन्या भ्रूण हत्या के मामले देखने को मिलते हैं.

वैसे पर्यटन के लिहाज से इन सबका बहुत अधिक महत्व है लेकिन अब ऐसी परंपराएं समाज में निरर्थक होती जा रही हैं.

दरअसल, अब यह एक रोमांटिक संस्करण भर रह गया है, जिसमें कई चीजों की अनदेखी होती है. अब यह मातृ सत्तात्मक चलन की तरह उग्र नहीं है. इसमें कई चीजों का मिश्रण है, जिसमें पितृसत्ता भी शामिल है.

सेयम कहते हैं, "परंपरा को तोड़ने के लिए लंबे अभियान की ज़रूरत होती है, आपको काफ़ी जागरूक होना होता है."

शादियां टूटने लगी हैं...

परंपरागत समुदायिक संस्कृति के मुताबिक, अगर पुरुष और महिला साथ रहने लगते हैं तो उन्हें शादीशुदा मानने का चलन है.

सेयम के मुताबिक़ यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है क्योंकि पुरुष कभी इससे निकल सकता था क्योंकि बच्चों को माता का नाम मिलता है.

सेयम बताते हैं, "पुरुषों को गुजारा भत्ता देने की जरूरत नहीं होती है. इसी वजह से अब हमारे यहां शादियां टूटने लगी हैं और अकेली महिलाओं वाले परिवार देखने को मिल रहे हैं. जो लोग मेघालय को महिलाओं के लिए स्वर्ग बताते हैं उन्हें इन बातों की जानकारी नहीं होती है. इन कमियों के चलते ही हमारे यहां अनाथालय हैं. ओल्ड एज होम्स बी हैं. ये सब बदलाव हुए हैं."

समय के साथ जनजातीय समुदाय की ताकत भी कम हुई है, परिवारों में अब मामा की शक्ति पिता में समाहित होने लगी है लेकिन पिता के शक्तियों को निश्चित किए बिना यह हो रहा है.

ज़मीन और संपत्ति का वारिस

सेयम बताते हैं, "पहले मां के भाई का फैसला अंतिम माना जाता था, लेकिन अब समाज संक्रमण के दौर में है, उसका एक पांव तो परंपराओं में है और दूसरा आधुनिकता में."

सेयम के पिता ने उन्हें अपनी ज़मीन और संपत्ति का वारिस बनाने वाली वसीयत कराई है. उनकी छोटी बहन अमरीका में रहती है और ऐसे में सबसे बड़े को माता-पिता की देखभाल का जिम्मा उठाना पड़ रहा है. सेयम की चार बहनें और वे इकलौते भाई हैं.

सेयम पहले खासी स्टुडेंट यूनियन से जुड़े थे, ऐसे में देश के दूसरे हिस्सों से आने वाले लोगों से मिलने जुलने का मौका मिलता रहा, इस दौरान उन्हें कई विचार भी मिलते थे.

इन सबके असर से उन्होंने मेघालय में शादी के अनिवार्य पंजीयन और संपत्ति कानून के लिए अभियान शुरू किया.

बाद में उन्होंने कई और मुद्दों जिसे वे जनजातीय समुदायिक संस्कृति की खामियां मानते हैं, उसके खिलाफ अभियान छेड़ा. 2012 में राज्य सरकार ने शादियों के पंजीयन को अनिवार्य करने का कानून बनाया लेकिन अभी भी राज्य में पंजीयन के बिना ज्यादातर शादियां हो रही हैं.

स्वतंत्रता में बाधा

सेयम बताते हैं, "मैं अर्थव्यवस्था की ओर देखता हूं तो राज्य इकॉनमी का अधिकांश हिस्से का नियंत्रण बाहरी लोगों के हाथों में है और बाकी बचे हिस्से पर खासी महिलाओं का नियंत्रण है. पुरुष के तौर पर हमारे पास ना तो नाम है और ना ही संपत्ति. हमने इन सबके लिए अभियान चलाने का फैसला लिया."

उनके इन अभियानों का महिला समूहों ने विरोध भी किया है लेकिन सेयम के मुताबिक वे संपत्ति में एकसमान बंटवारे की बात नहीं करके न्यायोचित बंटवारे की मांग कर रहे हैं. यदि माता अपनी सपंत्ति से सभी बच्चों को वंचित करना चाहेंगे तो भी कानून उनकी मदद करेगा.

मेघालय की मातृ सत्तात्मक परंपरा को लेकर लोगों में काफी उत्सुकता देखने को मिलती है लेकिन बीते कई सालों से यह परंपरा बदलाव के दौर से गुजर रही है. अब युवतियां भी अपने घरों से बाहर निकल रही हैं, क्योंकि उन्हें भी मातृ परंपराएं अपनी पसंद की स्वतंत्रता में बाधा की तरह दिखाई देती है.

पितृ सत्तात्मक व्यवस्था

सिंगखोंगग रिम्पई थेम्माई (एक नया घर) नामक संस्था ने मेघालय की मातृ सत्तात्मक प्रणाली को उखाड़ फेंकने को अपना लक्ष्य बनाया है. इस संस्था की स्थापना अप्रैल, 1990 में हुई थी, संस्था के अधिकारियों को मुताबिक इसका उद्देश्य पुरुषों को महिलाओं के दबदबे से आजाद करना है.

देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों के पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के उलट, खासी परंपरा में संपत्ति का उत्तराधिकार परिवार की सबसे छोटी बेटी को मिलता है ताकि वह अपने भाईयों और माता-पिता की देखभाल कर सके. सबसे छोटी बहन के पति को पत्नी के घर ही रहना होता है.

लेकिन पारिवारिक संपत्ति पर कोई भी फैसला लेने के लिए उसे उसे अपनी मां के भाई पर निर्भर होना होता है, भाई और पति के बदले उनसे अनुमति लेनी होती है.

सिंगखोंगग रिम्पई थेम्माई के मुताबिक, खासी समुदाय में पुरुषों की स्थिति महिलाओं के बराबर नहीं है. यह मौटे तौर पर शहरी लोगों का समूह है लेकिन पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के लिए पूरी तरह से परिवर्तन का विरोध करता है.

अंतरजातीय विवाह

इन सबके बावजूद, खासी समुदाय में महिलाओं से भेदभाव भी दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है.

कोई अगर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 ( 2005-2006) के आंकड़ों की तुलना नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 (2015-2016) से करे तो घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे ज़्यादा बढ़ोत्तरी मेघालय में हुई है.

हिंसा झेलने वाली महिलाओं की संख्या 12.8 प्रतिशत से बढ़कर 28.7 प्रतिशत हो चुकी है. सर्वे के मुताबिक, शादीशुदा महिलाओं में 28.7 प्रतिशत को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है और इनमें 57.3 प्रतिशत महिलाएं अपने घर और जमीन का मालिकाना हक रखती हैं.

अंतरजातीय विवाह का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत है, इसके उलट मेघालय की शादियों में एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत शादियां अंतरजातीय होती हैं.

साल 2108 में ऐसे कानून का प्रस्ताव सामने आया था जिसके मुताबिक खासी जनजातिय समुदाय की महिलाओं को गैर-खासी से विवाह करने पर रोकने की बात कही गई थी लेकिन ना तो यह प्रस्ताव सदन में रखा गया और ना ही मंजूर हुआ.

अंतिम जनगणना

तब यह तर्क दिया जा रहा था कि खासी महिलाएं समुदाय से बाहर दूसरे लोगों से शादियां करेंगी तो यह समुदाय लुप्त प्राय हो जाएगा.

मेघालय में ही सबसे ज्यादा पति द्वारा छोड़ दी गईं अकेली मांएं हैं. अंतिम जनगणना के मुताबिक यहां ऐसी मांएं 22 प्रतिशत हैं.

सेयम के मुताबिक मातृ सत्तात्मक व्यवस्था में यह दुर्भाग्यपूर्ण है और इसका असर बच्चों पर पड़ता है. अगर माता की मृत्यु हो जाए तो पिता के पास बच्चों की कस्टडी का भी अधिकार नहीं है. मां के परिवार वाले आकर बच्चों और संपत्ति पर अपना हक जताते हैं.

सेयम के मुताबिक, "हम यहां पुरषों की स्थिति मजबूत करना चाहते हैं." न्यायोचित बंटवारे की मांग के साथ उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे हैं. पहले वे नुक्कड़ नाटकों की शक्ल में थे. 1990 के दशक में उन्होंने इन्हें मंचित कर वीडियो बनाने का फैसला लिया. वीडियो बनाकर ये कैबल चैनल्स को देने को लेगे.

हाल ही में सेयम ने यूट्यूब पर फादर, वेअर आर यू? अपलोड किया है.

आदिवासी योद्धा

मेघालय में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था कब शुरू हुई, इसका कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता. हालांकि लोककथाओं में कहा जाता है कि दक्षिण पूर्व एशिया के आदिवासी योद्धा पूर्वज थे और युद्ध में मरने वाली महिलाओं को पुरस्कार के तौर पर जमीन का अधिकार और वंश को बढाने का हक देते थे.

खासी समुदाय की सामाजिक- सांस्कृतिक संस्था सेंग खासी केमई शिलांग के वाइस प्रेसीडेंट अरवन सिंह तारैंग बताते हैं, "हम अपनी महिलाओं को देवी के तौर पर देखते हैं. जो इसे बदलना चाहता है वो पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है."

सेंग खासी की स्थापना 1899 में हुई थी. इसकी स्थापना ईसाई मिशनरीज के जरिए खासी जनजाती में धर्मांतरण की कोशिशों को रोकने के नाम पर हुई थी.

हालांकि अभी ईसाईयत खासी समुदाय की परंपरागत संस्कृति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं और खासी समुदाय के लोग मानते हैं कि उनकी मूल परंपराएं और आस्था भविष्य में विलुप्त हो जाएंगी.

महिलाओं की खिलखिलाहट

सेंग खासी ईस्ट खासी हिल्स के अध्यक्ष 67 साल के नोंगरेम्माई माडानेरटिंग पायलुम, शिलांग के रायनजा में 55 साल की डेस्टिना तारांग के लिविंग रूम में बैठे हैं, वे उसी परिसर में बने अलग अलग घरों में रहने वाली पांच बहनों को बुलाते हैं.

डेस्टिना सबसे बड़ी हैं और वे उस घर में रहती हैं जिसमें सबका जन्म हुआ था. खिड़कियों और दरवाजे पर पर्दे हैं और कमरे में परिवार की तस्वीरें दीवार पर लगी है. केंद्र में पिता का पोट्रेट लगा है. मां का पोट्रेट सबसे छोटी बेटी यानी खाटदु, रितिना तारांग के घर में स्थित है. रिटिना 43 साल की हैं.

पायलुम बताते हैं, "अब तक सिस्टम में कोई बदलाव नहीं आया है."

महिलाएं खिलखिलाने लगीं. वे इन महिलाओं को क्यों नहीं बोलने दे रहे हैं, ये पूछे जाने पर वे कहते हैं बाद में बताएंगे. महिलाओं की खिलखिलाहट बढ़ गई लेकिन किसी नहीं दखल नहीं दिया.

पायलुम बताते हैं, "मातृ सत्तात्मक परंपराएं अनंतकाल से चली आ रही है. सबसे छोटी बेटी को दूसरों को आश्रय देती है. वह मदद करती है. यह हमारे लिए आशीर्वाद है."

संयुक्त परिवार की तरह

लेकिन इस घर में बहनें मिलकर अपने माता-पिता का ख्याल रखती हैं, वह भी तब जब उन सबके पति उनके साथ ही रहते हैं. इन लोगों का मानना है कि समय बदल गया है और अब परिवार को तय करना है कि वे अपनी संपत्ति का क्या करते हैं.

रितिना बताती हैं, "जो लोग माता-पिता के साथ होंगे, उनकी देखभाल करेंगे उन्हें संपत्ति मिलनी चाहिए. अगर दंपति के पास बेटी नहीं है तो वह अपनी संपत्ति समुदाय के बदले बेटे को दे सकते हैं. यह बदलाव आया है."

पांचों बहनें एक ही जगह पर किसी संयुक्त परिवार की भांति रहती हैं क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें एकसाथ, एकजुट होकर रहना सिखाया है.

अगर खासी समुदाय का कोई पुरुष गैर खासी महिला से शादी करता है तो तांगजैत अनुष्ठान के जरिए कुर नाम के प्रत्यय के साथ उन्हें मातृ सत्तात्मक व्यवस्था में शामिल होने देता है.

बहरहाल, पायलुम यह स्वीकर करते हैं कि उन्हें अपने माता पिता से जमीन मिली थी, लेकिन उनकी शादी ऐसी महिला से हुई जो अपने परिवार की छोटी बेटी नहीं थी, तो उन्होंने घर बनवाया और एक संयुक्त परिवार में रहते हैं.

व्यवस्थाओं का दमनकारी असर

उन्होंने बताया, "मेरी पत्नी के पास कोई संपत्ति नहीं है." उनके दामाद उन्हें अचरज से देख रहे थे. एक दिन पहले शाम में उन्होंने बताया था कि उन्हें नहीं मालूम था कि उनकी शादी खाटदू यानी परिवार की सबसे छोटी बेटी से हो रही है.

उन्होंने अपनी पहचान छुपाने के अनुरोध के साथ कहा था, "यह बड़ा मुश्किल है." इस बातचीत को 12 साल की सातवीं में पढ़न वाली संसारी सुन रही थी. संसारी रितिना की बेटी हैं. सबसे छोटी.

रीति का मतलब परंपरा होता है तो संसारी का मतलब सुसंस्कृत. पायलुम कहते हैं, "वह घर पर रहेगी." लेकिन रितिना बताती हैं, कि बेटी खुद फैसला लेगी. कुछ व्यवस्थाओं का दमनकारी असर इस रूप में भी सामने आता है.

संसारी बताती हैं, "मैं जानती हूं कि मैं सबसे छोटी बेटी थी. मैं यह भी जानती हूं कि समय बदल रहा है. मैंने तय नहीं किया है कि घर से बाहर निकलूंगी या घर में ही रहूंगी. हम देखेंगे."

यह बदलाव आया है. यहां के मातृ सत्तात्मक समाज के रोमांटिसिज्म के बावजूद स्वतंत्र होने की चाहत दिखती है.

पांचों बहन एक पुरानी परंपरा के तहत पारिवारिक ढांचे में बदलाव की प्रतिनिधि हैं. वे हंसती भी हैं और परिवार के मुखिया को करेक्ट भी करती है. साथ ही सब, इन बातों को बहुत गंभीरता से भी नहीं लेतीं.

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